दीक्षा के भेद ४ चार
जैसा मित्रो हमने हमारे गुरू कृपा ओर इष्टकृपा के माध्यम से आप सभी को यहाँ गुरू दीक्षा के छः ६ भेद बता चूके है हालाकि सभी दीक्षा भेद इनमे से ही निकले है पर ये आठ ८ भेद प्रमुख है बाकी सभी प्रकार इनसे ही निकले है,
७, सातः, शाम्भवी दीक्षा ,ये सिर्फ मात्र विचार या स्पर्श से ही सब कुछ संभव हो जाता है या स्मरण मात्र से ही,
गुरोरालोकमोत्रण भाषणात् स्पर्शनादिप ध्यानम , ,, सघः संजायते ग्यानं सा दीक्षा शाम्भवी मता ,।।
मित्रो इन सभी का मतलब यही है कि आपका अगर गुरूदेव पर पुणे विश्वास है तो उनका ध्यान करने से ही आपको गति मिल सकती है साधना श्रेत्र अथवा सांसरिक सागर को पार करने मे, ये गुरूदेव पर निर्भर है की वो आपकी ओर कृपापूर्वक कब देखते है या कब बात करते है (संभाषण, वार्तालाप )से या स्पर्श ( प्रेमपूर्वक शिष्य को छुने से या मस्तक पर हाथ पिरोने से या आग्या चक्र मे अपनी ऊर्जा के संचार करने से मात्र ही ) शिष्य मे शक्तियों का संचार हो जाता है ओर अगर शिष्य गुरू भक्त हो तो छुने मात्र से ही उनके ह्रदय मे एकदम यानी तत्काल ही ग्यान उत्पन्न हो जाता है पर इसमे गुरूशिष्य के साथ आपका रिश्ता दर्शाता है कि आप कैसे है ओर इष्ट से मिलाती है यही कृपा गुरू की सारी शक्तियां शिष्यो को जागृत आवस्था मे ले आती है अगर समझदार या समझने वाला शिष्य हुआ तो वो गुरू भी सौ या हजार कदम आगे रह सकता है ओर अपना ओर अपने गुरू का नाम अमर कर सकता है, ये दीक्षा मात्र नही ये माँ आदि शक्ति का ही एक रुप है
८,आठवी दीक्षा, वाग्दीक्षा, यानी वाणी द्वारा दी जानी वाली दीक्षा कर्णदीक्षा भी इसका का अंग है,, यानी मंत्रोद्वारा या अपनी श्रीवाणी से दीक्षित करना,,
मित्रो इसमे आदिनाथ द्वारा स्वयंम माता को शाम्भवी नाम देकर इस दीक्षा के बारे मे पुणे विस्तार से बताया गया है,, है शाम्भवी, वाणी द्वारा जो दीक्षा दी जाती है उसको वाग्दीक्षा कहाँ जाता है जैसे मंत्र स्वर्ण करना कान मे या एंकात मे गुरू द्वारा शिष्यो को मंत्रो का उपदेश प्रदान करना, इसमे मे भी तीव्रा ओर तीव्रतमा नामक दो भेद है, जिस समय षडध्वग्यानी गुरू शिष्य के जानु, नाभि, ह्रदय ओर सभी षट् स्थानो मे भुवन, तत्व, कला, वर्ण, पद, ओर मन्त्राध्व को चिन्हित कर गुरूपदिष्ट मार्ग से बेध कर उसको मंत्र प्रदान करता है तो उसी समय शिष्य सभी पापो से मुक्त होकर तथा पाशरहित होकर भूमि पर लेटता है ओर उसको दिव्यभाव प्राप्त होता है, मित्रो नादान बालक की कलंम से आज बस इतना बाकी फिर कभी ये सारी दीक्षाये शिष्यो के लिए है पर यह सब शिष्य की योग्यता पर भी निर्भर है की गुरू से क्या ले ओर क्या दे गुरू अगर निर्धन है तो गुरू के भरण पोषण की जिम्मेदारी सभी शिष्यो की रहती है चाहे गुरू मांगे या ना मांगे, क्योंकि पिता वह जो पुत्रो को खिलाये यहाँ भी शिष्यो को पुत्र ओर गुरू को पिता समझा जाता है,, ओर गुरू का पिता समझा जाता है जब तक शिष्य आध्यात्मिक मे परिपक्व नही हो जाता जब तक गुरू यानी पिता की जिम्मेदारी बनती है कि वो उसको आगे बढाये या उसका आध्यात्मिक पुण्य आगे ले जाये,, इसी प्रकार सभी दीक्षा कर्मपुर्वक प्राप्त करके, आप अपने अलग अलग आदिनाथ या आदिशक्ति, मतलब रूद्र रुप या रुद्र रूपायै की या अलग अलग महाविधाओ की उनकी अाम्नाय दीक्षा लेकर फिर, शाक्ताभिषेक दीक्षा के बाद पुर्णोभिषेक दीक्षा प्राप्त करे, उसके बाद, क्रमानुसार या गुरू कृपानुसार मेधा दीक्षा महामेधा दीक्षा, बाद मे समााज्या दीक्षा प्राप्त करे,,
बाकी कल पोस्ट करते है,, आगे क्या है देखते है 😍
जय माँ जय बाबा महाकाल जय श्री राधे कृष्णा अलख आदेश 🙏🏻🌹🙏🏻
जैसा मित्रो हमने हमारे गुरू कृपा ओर इष्टकृपा के माध्यम से आप सभी को यहाँ गुरू दीक्षा के छः ६ भेद बता चूके है हालाकि सभी दीक्षा भेद इनमे से ही निकले है पर ये आठ ८ भेद प्रमुख है बाकी सभी प्रकार इनसे ही निकले है,
७, सातः, शाम्भवी दीक्षा ,ये सिर्फ मात्र विचार या स्पर्श से ही सब कुछ संभव हो जाता है या स्मरण मात्र से ही,
गुरोरालोकमोत्रण भाषणात् स्पर्शनादिप ध्यानम , ,, सघः संजायते ग्यानं सा दीक्षा शाम्भवी मता ,।।
मित्रो इन सभी का मतलब यही है कि आपका अगर गुरूदेव पर पुणे विश्वास है तो उनका ध्यान करने से ही आपको गति मिल सकती है साधना श्रेत्र अथवा सांसरिक सागर को पार करने मे, ये गुरूदेव पर निर्भर है की वो आपकी ओर कृपापूर्वक कब देखते है या कब बात करते है (संभाषण, वार्तालाप )से या स्पर्श ( प्रेमपूर्वक शिष्य को छुने से या मस्तक पर हाथ पिरोने से या आग्या चक्र मे अपनी ऊर्जा के संचार करने से मात्र ही ) शिष्य मे शक्तियों का संचार हो जाता है ओर अगर शिष्य गुरू भक्त हो तो छुने मात्र से ही उनके ह्रदय मे एकदम यानी तत्काल ही ग्यान उत्पन्न हो जाता है पर इसमे गुरूशिष्य के साथ आपका रिश्ता दर्शाता है कि आप कैसे है ओर इष्ट से मिलाती है यही कृपा गुरू की सारी शक्तियां शिष्यो को जागृत आवस्था मे ले आती है अगर समझदार या समझने वाला शिष्य हुआ तो वो गुरू भी सौ या हजार कदम आगे रह सकता है ओर अपना ओर अपने गुरू का नाम अमर कर सकता है, ये दीक्षा मात्र नही ये माँ आदि शक्ति का ही एक रुप है
८,आठवी दीक्षा, वाग्दीक्षा, यानी वाणी द्वारा दी जानी वाली दीक्षा कर्णदीक्षा भी इसका का अंग है,, यानी मंत्रोद्वारा या अपनी श्रीवाणी से दीक्षित करना,,
मित्रो इसमे आदिनाथ द्वारा स्वयंम माता को शाम्भवी नाम देकर इस दीक्षा के बारे मे पुणे विस्तार से बताया गया है,, है शाम्भवी, वाणी द्वारा जो दीक्षा दी जाती है उसको वाग्दीक्षा कहाँ जाता है जैसे मंत्र स्वर्ण करना कान मे या एंकात मे गुरू द्वारा शिष्यो को मंत्रो का उपदेश प्रदान करना, इसमे मे भी तीव्रा ओर तीव्रतमा नामक दो भेद है, जिस समय षडध्वग्यानी गुरू शिष्य के जानु, नाभि, ह्रदय ओर सभी षट् स्थानो मे भुवन, तत्व, कला, वर्ण, पद, ओर मन्त्राध्व को चिन्हित कर गुरूपदिष्ट मार्ग से बेध कर उसको मंत्र प्रदान करता है तो उसी समय शिष्य सभी पापो से मुक्त होकर तथा पाशरहित होकर भूमि पर लेटता है ओर उसको दिव्यभाव प्राप्त होता है, मित्रो नादान बालक की कलंम से आज बस इतना बाकी फिर कभी ये सारी दीक्षाये शिष्यो के लिए है पर यह सब शिष्य की योग्यता पर भी निर्भर है की गुरू से क्या ले ओर क्या दे गुरू अगर निर्धन है तो गुरू के भरण पोषण की जिम्मेदारी सभी शिष्यो की रहती है चाहे गुरू मांगे या ना मांगे, क्योंकि पिता वह जो पुत्रो को खिलाये यहाँ भी शिष्यो को पुत्र ओर गुरू को पिता समझा जाता है,, ओर गुरू का पिता समझा जाता है जब तक शिष्य आध्यात्मिक मे परिपक्व नही हो जाता जब तक गुरू यानी पिता की जिम्मेदारी बनती है कि वो उसको आगे बढाये या उसका आध्यात्मिक पुण्य आगे ले जाये,, इसी प्रकार सभी दीक्षा कर्मपुर्वक प्राप्त करके, आप अपने अलग अलग आदिनाथ या आदिशक्ति, मतलब रूद्र रुप या रुद्र रूपायै की या अलग अलग महाविधाओ की उनकी अाम्नाय दीक्षा लेकर फिर, शाक्ताभिषेक दीक्षा के बाद पुर्णोभिषेक दीक्षा प्राप्त करे, उसके बाद, क्रमानुसार या गुरू कृपानुसार मेधा दीक्षा महामेधा दीक्षा, बाद मे समााज्या दीक्षा प्राप्त करे,,
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