बगला दशक
(प्रस्तुत ‘बगला-दशक’ स्तोत्र में पाँच मन्त्र बगला विद्या के सुख-साध्य और सु-शीघ्र फल-दायी हैं । इस मन्त्रों में एक बगला के ‘मन्दार’ मन्त्र नाम से प्रसिद्ध है ।
उक्त स्तोत्र में मन्त्र तो पाँच हैं, पर उनके विषय में मन्त्रोद्धार तथा फल-समेत दस पद्य होने के कारण ‘बगला-दशक’ नाम दिया है ।)
सुवर्णाभरणां देवीं, पीत-माल्याम्बरावृताम् ।
ब्रह्मास्त्र-विद्यां बगलां, वैरिणां स्तम्भनीं भजे ।।
मैं सुवर्ण के बने सर्वाभरण पहने हुए तथा पीले वस्त्र और पीले पुष्प (चम्पा) की माला धारण करने वाली एवं साधक के वैरियों का स्तम्भन करने वाली ब्रह्मास्त्र-विद्या-स्वरुपा बगला विद्या भगवती को भजता हूँ ।
बगला के मूल विद्या-स्वरुप का विवेचन
(१)
यस्मिंल्लोका अलोका अणु-गुरु-लघवः स्थावरा जंगमाश्च ।
सम्प्रोताः सन्ति सूत्रे मणय इव वृहत्-तत्त्वमास्तेऽम्बरं तत् ।।
पीत्वा पीत्यैक-शेषा परि-लय-समये भाति या स्व-प्रकाशा ।
तस्याः पीताम्बरायास्तव जननि ! गुणान् के वयं वक्तुमीशाः ।।
हे जननि ! जिसमें ये लोक, जो दृश्य दीखने योग्य हैं और अलोक, जो अदृश्य – न दीखने योग्य हैं (ऐसे बहुत से पदार्थ और जीवादि तत्त्व हैं, जो मानव दृष्टि में नहीं आते, परन्तु अवश्यमेव अपनी सत्ता सूक्ष्म-से-सूक्ष्म रखते हैं ), वे अणु-से-अणु, लघु छोटे, गुरु बड़े, स्थूल-रुप वाले स्थावर तथा जंगम, स्थिर और चर-स्वरुप वाले -सभी ओत-प्रोत हैं, पिरोए हुए हैं । जैसे सूत में मनके पिरोए हुए हों । वह सबसे बड़ा तत्त्व अम्बर – आकाश – महाकाश-तत्त्व है । इस महाऽऽकाश-तत्त्व में ही यह सब कुछ प्रपञ्च ब्रह्माण्ड अनेकानेक व्याप्त हो रहे हैं । यह भावार्थ हुआ ।
उस महा-महान् अम्बर तत्त्व को महा-प्रलय-समय में पी-पीकर केवल एक-मात्र आप स्व-प्रकाश से शेष रहती हैं । स्वयं केवल आप ही प्रकाशमान रहती हैं । उस ‘पीताम्बरा – पीतम् अम्बरं यथा सा’ – पी लिया है महाऽऽकाश-तत्त्व जिसने, ऐसी महा मूल-माया-स्वरुपा भगवती बगला ! आपके गुण-गान करने में हम कौन समर्थ हो सकते हैं ! ।
(२)
आद्यैस्त्रियाऽक्षरैर्यद् विधि-हरि-गिरिशींस्त्रीन् सुरान् वा गुणांश्च,
मात्रास्तिस्त्रोऽप्यवस्थाः सततमभिदधत् त्रीन् स्वरान् त्रींश्च लोकान् ।
वेदाद्यं त्यर्णमेकं विकृति-विरहितं बीजमों त्वां प्रधानम्,
मूलं विश्वस्य तुर्य्यं ध्वनिभिरविरतं वक्ति तन्मे श्रियो स्यात् ।।
हे मातः ! पीताम्बरे ! भगवति ! अकार आदि तीन वर्णों से ‘प्रणव’ ॐ के विश्लेषण में – अ + उ + म् – ऐसे तीन अक्षर हैं । इन तीनों अक्षरों में ब्रह्मा-विष्णु-महेश इन तीनों देवों को और तीन (सत्त्व, रजः, तमः) गुणों की एवं तीन मात्राओं एक-द्वि-त्रिमात्राओं को तथा उदात्त, अनुदात्त, स्वरित – इन स्वरों को तथा तीन अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) को और तीन लोकों (भूः, भुवः, स्वः) को निरन्तर बतलाया हुआ यह वेद का आद्य वर्ण ॐ-कार (प्रणव) तीन अक्षरवाला विकृति-रहित निर्विकार आपका बीज है । यह आपको अपनी तीन वर्ण-ध्वनियों से उक्त सभी तीन-तीन देवों, गुणों, अवस्थाओं, मात्राओं, स्वरों और लोकों में सर्व-प्रधान-तत्त्व विश्व का मूल-तुरीय तत्त्व निरन्तर बतलाता है । वह मुझे श्री प्रदान करने वाला हो ।
(३)
सान्ते रान्तेन वामाक्षणि विधु-कलया राजिते त्वं महेशि !
बीजान्तःस्था लतेव प्रविलससि सदा सा हि माया स्थिरेयम् ।
जप्ता श्याताऽपि भक्तैरहनि निशि हरिद्राक्त-वस्त्रावृतेन ।
शत्रून् स्तभ्नाति कान्तां वशयति विपदो हन्ति वित्तं ददाति ।।
हे महेशि ! भगवति बगले ! ‘वामाक्षणि’ बाँएं नेत्र में अर्थात् ईकार में, ‘विधु-कलया’ (रान्तेन राजिते सान्ते) ‘रान्ते’ लकार से और ‘विधु-कलया’ चन्द्र-बिन्दु अनुस्वार बिन्दु से विराजित, ‘सान्त’ हकार में अर्थात् ईकार में लकार मिले हुए और अनुस्वार-युक्त हकार से “ह्ल्रीं” बनता है । इसे ‘स्थिर-माया’ कहते हैं । यही बगला का मुख्य बीज है । इसमें हे महेशि ! आप बीज में लता की तरह सदा विलास करती हो । वही ‘स्थिर-माया’ आपका एकाक्षर मुख्य मन्त्र है । यह ध्यान और जप करने से भक्तो, साधकों को, जो दिन में रात में हरिद्रा (हल्दी) से रंगे वस्त्र पहने हुए, हल्दी की माला से, पीतासन पर बैठे इसे ध्याते-जपते हैं या जपते आपका ध्यान करते रहते हैं, तो यही ‘स्थिर-माया’ महा-मन्त्र उन साधकों के शत्रुओं को स्तम्भित करते है, मनोहर कामिनियों को वशीभूत करता है, विपत्तियों को दूर करता है और मन-माना धन प्रदान करता है । अर्थात् सभी वाञ्छित प्रदान करता है ।
(४)
मौनस्थः पीत-पीताम्बर-वलित-वपुः केसरीयासवेन ।
कृत्वाऽन्तस्तत्त्व-शोधं कलित-शुचि-सुधा-तर्पणोऽर्चां त्वदीयाम् ।
कुर्वन् पीतासनस्थः कर-धृत-रजनी-ग्रन्थि-मालोऽन्तराले ।
ध्यायेत् त्वां पीत-वर्णां पटु-युवति-युतो हीप्सितं किं न विन्देत् ।।
हे पीताम्बरे भगवति ! आपका साधक मौन धारे हुए, यहाँ ‘मौन’ से अन्यान्य बातचीत करने, किसी दूसरे से बोलने का निषेध समझना चाहिए, स्वयं साधक तो ध्यान-मन्त्रादि उच्चारण करें ही, ऐसा संकेत है । पीले आसन पर बैठ, पीले वस्त्र पहन, अपनी चतुर शक्ति के साथ केसर आसव से तत्त्व-शोधन कर अन्तर्याग में ध्यान-पूजा कर उसी शोधित केसर के आसव से भगवती को तर्पण अर्पण कर (पुनः आवरण-सहित पूजा पूर्ण कर) हरिद्रा-ग्रन्थि की माला हाथ में ले उससे जप करता है (सशक्ति ही जप करता है) और आप पीत-वर्णों का ध्यान करता है, तो निश्चय ही वह कौन-सा मनोरथ है, जो उसे प्राप्त न हो । अर्थात् वह समर्थ साधक सभी अभीष्ट पा सकता है । यह प्रयोग भी अनुभूत ही है ।
(५)
वन्दे स्वर्णाभ-वर्णा मणि-गण-विलसद्धेम-सिंहासनस्थाम् ।
पीतं वासो वसानां वसु-पद-मुकुटोत्तंस-हारांगदाढ्याम् ।
पाणिभ्यां वैरि-जिह्वामध उपरि-गदां विभ्रतीं तत्पराभ्याम् ।
हस्ताभ्यां पाशमुच्चैरध उदित-वरां वेद-बाहुं भवानीम् ।।
सुवर्ण-से वर्ण (कान्ति, रुप) वाली, मणी-जटित सुवर्ण के सिंहासन पर विराजमान और पीले वस्त्र पहने हुई (पीले ही गन्ध-माल्य-सहित) एवं ‘वसु-पद’-अष्ट-पद-अष्टादश सुवर्ण के मुकुट, कुण्डल, हार, बाहु-बन्धादि भूषण पहने हुई एवं अपनी दाहिनी दो भुजाओं में नीचे वैरि-जिह्वा और ऊपर गदा धारण करती हुई; ऐसे ही बाएँ दोनों हाथों में ऊपर पाश और नीचे वर धारण करती हुई, चतुर्भुजा भवानी भगवती को ‘वन्दे’ प्रणाम करता हूँ ।
(६)
षट्-त्रिंशद्-वर्ण-मूर्तिः प्रणव-मुख-हरांघ्रि-द्वयस्तावकीन-
श्चम्पा-पुष्प-प्रियाया मनुरभि-मतदः कल्प-वृक्षोपमोऽयम् ।
ब्रह्मास्त्रं चानिवार्य्यं भुजग-वर-गदा-वैरि-जिह्वाग्र-हस्ते !
यस्ते काले प्रशस्ते जपति स कुरुतेऽप्यष्ट-सिद्धिः स्व-हस्ते ।।
पाश, वर, गदा और वैरि-जिह्वा हाथ में धारण करने वाली ! आपका प्रणव-मुख वाला, ॐ-कार जिसका मुख है -आदि है । और ‘हरांघ्रि-द्वय’ – ठ-द्वय-’स्वाहा’ अन्त में पद है, ऐसी छत्तीस वर्णों की मूर्ति-माला; चम्पा के पुष्पों को अधिक प्रिय समझनेवाली आपका यह महा-मन्त्र कल्प-वृक्ष के समान सर्वाभीष्ट फल देने वाला है । यही अनिवार्य, जिसका कोई प्रतीकार नहीं है ऐसा, ब्रह्मास्त्र है । जो साधक इसे ‘प्रशस्त’ काल में -चन्द्र-तारादि अनुकूल समय में जपता है (आपकी सबिधान अर्चना के साथ), वह आठों सिद्धियों को अपने अस्त-गत कर लेता है ।
(७)
मायाद्या च द्वि-ठान्ता भगवति ! बगलाख्या चतुर्थी-निरुढा ।
विद्यैवास्ते य एनां जपति विधि-युतस्तत्व-शोधं निशीथे ।
दाराढ्यः पञ्चमैस्त्वां यजति स हि दृशा यं यमीक्षेत तं तम् ।
स्वायत्त-प्राण-बुद्धीन्द्रिय-मय-पतितं पादयोः पश्यति द्राक् ।।
हे भगवति ! ‘मायाद्या’-माया ‘ह्रीं’ आदि में है जिसके, ऐसी और ‘चतुर्थी-निरुढा’ – चतुर्थी विभक्ति में बैठी हुई ‘स्वाहा’ – यह ‘आख्या’ नाम अर्थात् ‘बगलायै’; द्वि-ठान्ता – द्वि-ठः ‘स्वाहा’ है अन्त में जिसके अर्थात् ‘ह्रीं बगलायै स्वाहा’ – यों सप्तार्ण मन्त्र हुआ । यह भी विद्या ही है । स्वाहान्त मन्त्र ‘विद्या’ कहलाते हैं । जो मानव आगम-विधान-कुल और आम्नायोक्त पद्धति से अर्द्ध-रात्रि में तत्त्व-शोधन आदि पूर्णकर ‘दाराढ्यः’ दारा-शक्ति, उसके साथ, पाँच मकारों से आपकी पूजा करता है और इस विद्या का जप करता है, वह साधकेन्द्र अपनी दृष्टि से जिस-जिसको देखता है, शीघ्र ही उस-उसको मन-प्राण-बुद्धि-इन्द्रियों-समेत स्व-वश हुए और अपने चरणों में पड़े हुए देखता है ।
(८)
माया-प्रद्युम्न-योनिव्यनुगत-बगलाऽग्रे च मुख्यै गदा-धारिण्यै ।
स्वाहेति तत्त्वेन्द्रिय-निचय-मयो मन्त्र-राजश्चतुर्थः ।
पीताचारो य एनं जपति कुल-दिशा शक्ति-युक्तो निशायाम् ।
स प्राज्ञोऽभीप्सितार्थाननुभवति सुखं सर्व-तन्त्र-सवतन्त्रः ।।
हे मातः ! माया ‘ह्रीं’ (यहाँ स्थिर-माया भी स्वीकार्य है, प्रसंगोपात्त होने के कारण), प्रद्युम्न ‘क्लीं’ और ‘योनि ‘ऐं’ – इनके अनुगत ‘बगला’, उसके आगे ‘मुख्यै’ और ‘गदा-धारिण्यै स्वाहा’ – इस प्रकार यह तत्त्व (५) और इन्द्रिय (१०) मिलकर पन्द्रह वर्ण का ( ह्रीं क्लीं ऐं बगला-मुख्यै गदा-धारिण्यै स्वाहा) मन्त्र हुआ । इसे ‘बगला पञ्चदशी मन्त्र रत्न’ कहते हैं । यह चौथा मन्त्र-राज है , जो साधक-श्रेष्ठ इस मन्त्र को कुल-क्रम से -निशा में शक्ति-समन्वित हुआ जपता है (अर्चन-तर्पण सहित), वह बुद्धिमान् विद्वान् सर्व-तन्त्र-स्वतन्त्र होता है और अपने सभी अभीष्ट अर्थों का सुख-पूर्वक अनुभव करता है ।
(९)
श्री-माया-योनि-पूर्वा भगवति बगले ! मे श्रियं देहि देहि,
स्वाहेत्थं पञ्चमोऽयं प्रणव-सह-कृतो भक्त-मन्दार-मन्त्रः ।
सौवर्ण्या मालयाऽमुं कनक-विरचिते यन्त्रके पीत-विद्याम् ।
ध्यायन् पीताम्बरे ! त्वां जपति य इह स श्री समालिंगितः स्यात् ।।
श्री – ‘श्रीं’ बीज और माया -’ह्रीं’ बीज तथा योनि – ‘ऐं’ बीज पूर्व बोलकर ‘भगवति बगले ! मे श्रियं देहि देहि स्वाहा’ इस प्रकार ‘प्रणव’ ॐ-कार सहित किया हुआ यह पाँचवाँ ‘भक्त-मन्दार’ नाम का बगला विद्या का मन्त्र-रत्न है । इस मन्त्र को सुवर्ण की माला से सुवर्ण यन्त्र पर हे पीताम्बरे ! आप भगवती को पूजता – ध्याता हुआ जो मनुष्य जपता है, वह संसार में श्री (लक्ष्मी) से समालिंगित रहता है । पीताम्बरा ‘पञ्चदशी’ भी यही है, प्रणव-सहित ‘षोडशी’ भी यही है ।
(१०)
एवं पञ्चापि मन्त्रा अभिमत-फलदा विश्व-मातुः प्रसिद्धाः,
देव्या पीताम्बरायाः प्रणत-जन-कृते काम-कल्प-द्रुमन्ति ।
एतान् संसेवमाना जगति सुमनसः प्राप्त-कामाः कवीन्द्राः ।
धन्या मान्या वदान्या सुविदित-यशसो देशिकेन्द्रा भवन्ति ।।
इस प्रकार ये पाँचों मन्त्र विश्व माता देवी भगवती पीताम्बरा के प्रसिद्ध हैं और ये प्रणत (भक्त साधक) जनों के लिए काम-कल्पद्रुम हैं । इन्हें साधते हुए विद्वान साधक भक्त लोग पूर्ण मनोरथ पाते और कविराज बनते एवं धन्य सम्माननीय तथा उदार नम वाले प्रख्यात यशस्वी और देशिकेन्द्र अर्थात् गुरुवर मण्डलाधीश बनते हैं ।
करस्थ चषकस्यात्र, संभोज्य झषकस्य च ।
बगला-दशकाध्येतुर्मातंगी मशकायते ।।
हाथ में सुधा-पूर्ण पात्र हो (तत्त्व-शोधन करता और रहस्य-याग में होम करता हो तथा तर्पण – निरत हो), आगे उस साधक के भोज्य पदार्थों में का प्रशस्त ‘झषक’ शोधित संस्कारित हो । फिर बगला भगवती का दशक वह पढ़ता हो, ऐसे साधकेन्द्र के लिए या उक्त साधक के आगे मातंग हाथी भी मशक समान हो जाता है । वह साधक हाथी को भी, अपने विपरित हो, तो मच्छर समझता है ।
उक्त स्तोत्र में मन्त्र तो पाँच हैं, पर उनके विषय में मन्त्रोद्धार तथा फल-समेत दस पद्य होने के कारण ‘बगला-दशक’ नाम दिया है ।)
सुवर्णाभरणां देवीं, पीत-माल्याम्बरावृताम् ।
ब्रह्मास्त्र-विद्यां बगलां, वैरिणां स्तम्भनीं भजे ।।
मैं सुवर्ण के बने सर्वाभरण पहने हुए तथा पीले वस्त्र और पीले पुष्प (चम्पा) की माला धारण करने वाली एवं साधक के वैरियों का स्तम्भन करने वाली ब्रह्मास्त्र-विद्या-स्वरुपा बगला विद्या भगवती को भजता हूँ ।
बगला के मूल विद्या-स्वरुप का विवेचन
(१)
यस्मिंल्लोका अलोका अणु-गुरु-लघवः स्थावरा जंगमाश्च ।
सम्प्रोताः सन्ति सूत्रे मणय इव वृहत्-तत्त्वमास्तेऽम्बरं तत् ।।
पीत्वा पीत्यैक-शेषा परि-लय-समये भाति या स्व-प्रकाशा ।
तस्याः पीताम्बरायास्तव जननि ! गुणान् के वयं वक्तुमीशाः ।।
हे जननि ! जिसमें ये लोक, जो दृश्य दीखने योग्य हैं और अलोक, जो अदृश्य – न दीखने योग्य हैं (ऐसे बहुत से पदार्थ और जीवादि तत्त्व हैं, जो मानव दृष्टि में नहीं आते, परन्तु अवश्यमेव अपनी सत्ता सूक्ष्म-से-सूक्ष्म रखते हैं ), वे अणु-से-अणु, लघु छोटे, गुरु बड़े, स्थूल-रुप वाले स्थावर तथा जंगम, स्थिर और चर-स्वरुप वाले -सभी ओत-प्रोत हैं, पिरोए हुए हैं । जैसे सूत में मनके पिरोए हुए हों । वह सबसे बड़ा तत्त्व अम्बर – आकाश – महाकाश-तत्त्व है । इस महाऽऽकाश-तत्त्व में ही यह सब कुछ प्रपञ्च ब्रह्माण्ड अनेकानेक व्याप्त हो रहे हैं । यह भावार्थ हुआ ।
उस महा-महान् अम्बर तत्त्व को महा-प्रलय-समय में पी-पीकर केवल एक-मात्र आप स्व-प्रकाश से शेष रहती हैं । स्वयं केवल आप ही प्रकाशमान रहती हैं । उस ‘पीताम्बरा – पीतम् अम्बरं यथा सा’ – पी लिया है महाऽऽकाश-तत्त्व जिसने, ऐसी महा मूल-माया-स्वरुपा भगवती बगला ! आपके गुण-गान करने में हम कौन समर्थ हो सकते हैं ! ।
(२)
आद्यैस्त्रियाऽक्षरैर्यद् विधि-हरि-गिरिशींस्त्रीन् सुरान् वा गुणांश्च,
मात्रास्तिस्त्रोऽप्यवस्थाः सततमभिदधत् त्रीन् स्वरान् त्रींश्च लोकान् ।
वेदाद्यं त्यर्णमेकं विकृति-विरहितं बीजमों त्वां प्रधानम्,
मूलं विश्वस्य तुर्य्यं ध्वनिभिरविरतं वक्ति तन्मे श्रियो स्यात् ।।
हे मातः ! पीताम्बरे ! भगवति ! अकार आदि तीन वर्णों से ‘प्रणव’ ॐ के विश्लेषण में – अ + उ + म् – ऐसे तीन अक्षर हैं । इन तीनों अक्षरों में ब्रह्मा-विष्णु-महेश इन तीनों देवों को और तीन (सत्त्व, रजः, तमः) गुणों की एवं तीन मात्राओं एक-द्वि-त्रिमात्राओं को तथा उदात्त, अनुदात्त, स्वरित – इन स्वरों को तथा तीन अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) को और तीन लोकों (भूः, भुवः, स्वः) को निरन्तर बतलाया हुआ यह वेद का आद्य वर्ण ॐ-कार (प्रणव) तीन अक्षरवाला विकृति-रहित निर्विकार आपका बीज है । यह आपको अपनी तीन वर्ण-ध्वनियों से उक्त सभी तीन-तीन देवों, गुणों, अवस्थाओं, मात्राओं, स्वरों और लोकों में सर्व-प्रधान-तत्त्व विश्व का मूल-तुरीय तत्त्व निरन्तर बतलाता है । वह मुझे श्री प्रदान करने वाला हो ।
(३)
सान्ते रान्तेन वामाक्षणि विधु-कलया राजिते त्वं महेशि !
बीजान्तःस्था लतेव प्रविलससि सदा सा हि माया स्थिरेयम् ।
जप्ता श्याताऽपि भक्तैरहनि निशि हरिद्राक्त-वस्त्रावृतेन ।
शत्रून् स्तभ्नाति कान्तां वशयति विपदो हन्ति वित्तं ददाति ।।
हे महेशि ! भगवति बगले ! ‘वामाक्षणि’ बाँएं नेत्र में अर्थात् ईकार में, ‘विधु-कलया’ (रान्तेन राजिते सान्ते) ‘रान्ते’ लकार से और ‘विधु-कलया’ चन्द्र-बिन्दु अनुस्वार बिन्दु से विराजित, ‘सान्त’ हकार में अर्थात् ईकार में लकार मिले हुए और अनुस्वार-युक्त हकार से “ह्ल्रीं” बनता है । इसे ‘स्थिर-माया’ कहते हैं । यही बगला का मुख्य बीज है । इसमें हे महेशि ! आप बीज में लता की तरह सदा विलास करती हो । वही ‘स्थिर-माया’ आपका एकाक्षर मुख्य मन्त्र है । यह ध्यान और जप करने से भक्तो, साधकों को, जो दिन में रात में हरिद्रा (हल्दी) से रंगे वस्त्र पहने हुए, हल्दी की माला से, पीतासन पर बैठे इसे ध्याते-जपते हैं या जपते आपका ध्यान करते रहते हैं, तो यही ‘स्थिर-माया’ महा-मन्त्र उन साधकों के शत्रुओं को स्तम्भित करते है, मनोहर कामिनियों को वशीभूत करता है, विपत्तियों को दूर करता है और मन-माना धन प्रदान करता है । अर्थात् सभी वाञ्छित प्रदान करता है ।
(४)
मौनस्थः पीत-पीताम्बर-वलित-वपुः केसरीयासवेन ।
कृत्वाऽन्तस्तत्त्व-शोधं कलित-शुचि-सुधा-तर्पणोऽर्चां त्वदीयाम् ।
कुर्वन् पीतासनस्थः कर-धृत-रजनी-ग्रन्थि-मालोऽन्तराले ।
ध्यायेत् त्वां पीत-वर्णां पटु-युवति-युतो हीप्सितं किं न विन्देत् ।।
हे पीताम्बरे भगवति ! आपका साधक मौन धारे हुए, यहाँ ‘मौन’ से अन्यान्य बातचीत करने, किसी दूसरे से बोलने का निषेध समझना चाहिए, स्वयं साधक तो ध्यान-मन्त्रादि उच्चारण करें ही, ऐसा संकेत है । पीले आसन पर बैठ, पीले वस्त्र पहन, अपनी चतुर शक्ति के साथ केसर आसव से तत्त्व-शोधन कर अन्तर्याग में ध्यान-पूजा कर उसी शोधित केसर के आसव से भगवती को तर्पण अर्पण कर (पुनः आवरण-सहित पूजा पूर्ण कर) हरिद्रा-ग्रन्थि की माला हाथ में ले उससे जप करता है (सशक्ति ही जप करता है) और आप पीत-वर्णों का ध्यान करता है, तो निश्चय ही वह कौन-सा मनोरथ है, जो उसे प्राप्त न हो । अर्थात् वह समर्थ साधक सभी अभीष्ट पा सकता है । यह प्रयोग भी अनुभूत ही है ।
(५)
वन्दे स्वर्णाभ-वर्णा मणि-गण-विलसद्धेम-सिंहासनस्थाम् ।
पीतं वासो वसानां वसु-पद-मुकुटोत्तंस-हारांगदाढ्याम् ।
पाणिभ्यां वैरि-जिह्वामध उपरि-गदां विभ्रतीं तत्पराभ्याम् ।
हस्ताभ्यां पाशमुच्चैरध उदित-वरां वेद-बाहुं भवानीम् ।।
सुवर्ण-से वर्ण (कान्ति, रुप) वाली, मणी-जटित सुवर्ण के सिंहासन पर विराजमान और पीले वस्त्र पहने हुई (पीले ही गन्ध-माल्य-सहित) एवं ‘वसु-पद’-अष्ट-पद-अष्टादश सुवर्ण के मुकुट, कुण्डल, हार, बाहु-बन्धादि भूषण पहने हुई एवं अपनी दाहिनी दो भुजाओं में नीचे वैरि-जिह्वा और ऊपर गदा धारण करती हुई; ऐसे ही बाएँ दोनों हाथों में ऊपर पाश और नीचे वर धारण करती हुई, चतुर्भुजा भवानी भगवती को ‘वन्दे’ प्रणाम करता हूँ ।
(६)
षट्-त्रिंशद्-वर्ण-मूर्तिः प्रणव-मुख-हरांघ्रि-द्वयस्तावकीन-
श्चम्पा-पुष्प-प्रियाया मनुरभि-मतदः कल्प-वृक्षोपमोऽयम् ।
ब्रह्मास्त्रं चानिवार्य्यं भुजग-वर-गदा-वैरि-जिह्वाग्र-हस्ते !
यस्ते काले प्रशस्ते जपति स कुरुतेऽप्यष्ट-सिद्धिः स्व-हस्ते ।।
पाश, वर, गदा और वैरि-जिह्वा हाथ में धारण करने वाली ! आपका प्रणव-मुख वाला, ॐ-कार जिसका मुख है -आदि है । और ‘हरांघ्रि-द्वय’ – ठ-द्वय-’स्वाहा’ अन्त में पद है, ऐसी छत्तीस वर्णों की मूर्ति-माला; चम्पा के पुष्पों को अधिक प्रिय समझनेवाली आपका यह महा-मन्त्र कल्प-वृक्ष के समान सर्वाभीष्ट फल देने वाला है । यही अनिवार्य, जिसका कोई प्रतीकार नहीं है ऐसा, ब्रह्मास्त्र है । जो साधक इसे ‘प्रशस्त’ काल में -चन्द्र-तारादि अनुकूल समय में जपता है (आपकी सबिधान अर्चना के साथ), वह आठों सिद्धियों को अपने अस्त-गत कर लेता है ।
(७)
मायाद्या च द्वि-ठान्ता भगवति ! बगलाख्या चतुर्थी-निरुढा ।
विद्यैवास्ते य एनां जपति विधि-युतस्तत्व-शोधं निशीथे ।
दाराढ्यः पञ्चमैस्त्वां यजति स हि दृशा यं यमीक्षेत तं तम् ।
स्वायत्त-प्राण-बुद्धीन्द्रिय-मय-पतितं पादयोः पश्यति द्राक् ।।
हे भगवति ! ‘मायाद्या’-माया ‘ह्रीं’ आदि में है जिसके, ऐसी और ‘चतुर्थी-निरुढा’ – चतुर्थी विभक्ति में बैठी हुई ‘स्वाहा’ – यह ‘आख्या’ नाम अर्थात् ‘बगलायै’; द्वि-ठान्ता – द्वि-ठः ‘स्वाहा’ है अन्त में जिसके अर्थात् ‘ह्रीं बगलायै स्वाहा’ – यों सप्तार्ण मन्त्र हुआ । यह भी विद्या ही है । स्वाहान्त मन्त्र ‘विद्या’ कहलाते हैं । जो मानव आगम-विधान-कुल और आम्नायोक्त पद्धति से अर्द्ध-रात्रि में तत्त्व-शोधन आदि पूर्णकर ‘दाराढ्यः’ दारा-शक्ति, उसके साथ, पाँच मकारों से आपकी पूजा करता है और इस विद्या का जप करता है, वह साधकेन्द्र अपनी दृष्टि से जिस-जिसको देखता है, शीघ्र ही उस-उसको मन-प्राण-बुद्धि-इन्द्रियों-समेत स्व-वश हुए और अपने चरणों में पड़े हुए देखता है ।
(८)
माया-प्रद्युम्न-योनिव्यनुगत-बगलाऽग्रे च मुख्यै गदा-धारिण्यै ।
स्वाहेति तत्त्वेन्द्रिय-निचय-मयो मन्त्र-राजश्चतुर्थः ।
पीताचारो य एनं जपति कुल-दिशा शक्ति-युक्तो निशायाम् ।
स प्राज्ञोऽभीप्सितार्थाननुभवति सुखं सर्व-तन्त्र-सवतन्त्रः ।।
हे मातः ! माया ‘ह्रीं’ (यहाँ स्थिर-माया भी स्वीकार्य है, प्रसंगोपात्त होने के कारण), प्रद्युम्न ‘क्लीं’ और ‘योनि ‘ऐं’ – इनके अनुगत ‘बगला’, उसके आगे ‘मुख्यै’ और ‘गदा-धारिण्यै स्वाहा’ – इस प्रकार यह तत्त्व (५) और इन्द्रिय (१०) मिलकर पन्द्रह वर्ण का ( ह्रीं क्लीं ऐं बगला-मुख्यै गदा-धारिण्यै स्वाहा) मन्त्र हुआ । इसे ‘बगला पञ्चदशी मन्त्र रत्न’ कहते हैं । यह चौथा मन्त्र-राज है , जो साधक-श्रेष्ठ इस मन्त्र को कुल-क्रम से -निशा में शक्ति-समन्वित हुआ जपता है (अर्चन-तर्पण सहित), वह बुद्धिमान् विद्वान् सर्व-तन्त्र-स्वतन्त्र होता है और अपने सभी अभीष्ट अर्थों का सुख-पूर्वक अनुभव करता है ।
(९)
श्री-माया-योनि-पूर्वा भगवति बगले ! मे श्रियं देहि देहि,
स्वाहेत्थं पञ्चमोऽयं प्रणव-सह-कृतो भक्त-मन्दार-मन्त्रः ।
सौवर्ण्या मालयाऽमुं कनक-विरचिते यन्त्रके पीत-विद्याम् ।
ध्यायन् पीताम्बरे ! त्वां जपति य इह स श्री समालिंगितः स्यात् ।।
श्री – ‘श्रीं’ बीज और माया -’ह्रीं’ बीज तथा योनि – ‘ऐं’ बीज पूर्व बोलकर ‘भगवति बगले ! मे श्रियं देहि देहि स्वाहा’ इस प्रकार ‘प्रणव’ ॐ-कार सहित किया हुआ यह पाँचवाँ ‘भक्त-मन्दार’ नाम का बगला विद्या का मन्त्र-रत्न है । इस मन्त्र को सुवर्ण की माला से सुवर्ण यन्त्र पर हे पीताम्बरे ! आप भगवती को पूजता – ध्याता हुआ जो मनुष्य जपता है, वह संसार में श्री (लक्ष्मी) से समालिंगित रहता है । पीताम्बरा ‘पञ्चदशी’ भी यही है, प्रणव-सहित ‘षोडशी’ भी यही है ।
(१०)
एवं पञ्चापि मन्त्रा अभिमत-फलदा विश्व-मातुः प्रसिद्धाः,
देव्या पीताम्बरायाः प्रणत-जन-कृते काम-कल्प-द्रुमन्ति ।
एतान् संसेवमाना जगति सुमनसः प्राप्त-कामाः कवीन्द्राः ।
धन्या मान्या वदान्या सुविदित-यशसो देशिकेन्द्रा भवन्ति ।।
इस प्रकार ये पाँचों मन्त्र विश्व माता देवी भगवती पीताम्बरा के प्रसिद्ध हैं और ये प्रणत (भक्त साधक) जनों के लिए काम-कल्पद्रुम हैं । इन्हें साधते हुए विद्वान साधक भक्त लोग पूर्ण मनोरथ पाते और कविराज बनते एवं धन्य सम्माननीय तथा उदार नम वाले प्रख्यात यशस्वी और देशिकेन्द्र अर्थात् गुरुवर मण्डलाधीश बनते हैं ।
करस्थ चषकस्यात्र, संभोज्य झषकस्य च ।
बगला-दशकाध्येतुर्मातंगी मशकायते ।।
हाथ में सुधा-पूर्ण पात्र हो (तत्त्व-शोधन करता और रहस्य-याग में होम करता हो तथा तर्पण – निरत हो), आगे उस साधक के भोज्य पदार्थों में का प्रशस्त ‘झषक’ शोधित संस्कारित हो । फिर बगला भगवती का दशक वह पढ़ता हो, ऐसे साधकेन्द्र के लिए या उक्त साधक के आगे मातंग हाथी भी मशक समान हो जाता है । वह साधक हाथी को भी, अपने विपरित हो, तो मच्छर समझता है ।
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श्री मार्कण्डेय-प्रोक्त लघु-दुर्गा-सप्तशती
ॐ वींवींवीं वेणुहस्ते स्तुतिविधवटुके हां तथा तानमाता,
स्वानंदेमंदरुपे अविहतनिरुते भक्तिदे मुक्तिदे त्वम् ।
हंसः सोहं विशाले वलयगतिहसे सिद्धिदे वाममार्गे,
ह्रीं ह्रीं ह्रीं सिद्धलोके कष कष विपुले वीरभद्रे नमस्ते ।। १ ।।
ॐ वींवींवीं वेणुहस्ते स्तुतिविधवटुके हां तथा तानमाता,
स्वानंदेमंदरुपे अविहतनिरुते भक्तिदे मुक्तिदे त्वम् ।
हंसः सोहं विशाले वलयगतिहसे सिद्धिदे वाममार्गे,
ह्रीं ह्रीं ह्रीं सिद्धलोके कष कष विपुले वीरभद्रे नमस्ते ।। १ ।।
ॐ ह्रीं-कारं चोच्चरंती ममहरतु भयं चर्ममुंडे प्रचंडे,
खांखांखां खड्गपाणे ध्रकध्रकध्रकिते उग्ररुपे स्वरुपे ।
हुंहुंहुं-कार-नादे गगन-भुवि तथा व्यापिनी व्योमरुपे,
हंहंहं-कारनादे सुरगणनमिते राक्षसानां निहंत्रि ।। २ ।।
खांखांखां खड्गपाणे ध्रकध्रकध्रकिते उग्ररुपे स्वरुपे ।
हुंहुंहुं-कार-नादे गगन-भुवि तथा व्यापिनी व्योमरुपे,
हंहंहं-कारनादे सुरगणनमिते राक्षसानां निहंत्रि ।। २ ।।
ऐं लोके कीर्तयंती मम हरतु भयं चंडरुपे नमस्ते,
घ्रां घ्रां घ्रां घोररुपे घघघघघटिते घर्घरे घोररावे ।
निर्मांसे काकजंघे घसित-नख-नखा-धूम्र-नेत्रे त्रिनेत्रे,
हस्ताब्जे शूलमुंडे कलकुलकुकुले श्रीमहेशी नमस्ते ।। ३ ।।
घ्रां घ्रां घ्रां घोररुपे घघघघघटिते घर्घरे घोररावे ।
निर्मांसे काकजंघे घसित-नख-नखा-धूम्र-नेत्रे त्रिनेत्रे,
हस्ताब्जे शूलमुंडे कलकुलकुकुले श्रीमहेशी नमस्ते ।। ३ ।।
क्रीं क्रीं क्रीं ऐं कुमारी कुहकुहमखिले कोकिले,
मानुरागे मुद्रासंज्ञत्रिरेखां कुरु कुरु सततं श्रीमहामारि गुह्ये ।
तेजोंगे सिद्धिनाथे मनुपवनचले नैव आज्ञा निधाने,
ऐंकारे रात्रिमध्ये शयितपशुजने तंत्रकांते नमस्ते ।। ४ ।।
मानुरागे मुद्रासंज्ञत्रिरेखां कुरु कुरु सततं श्रीमहामारि गुह्ये ।
तेजोंगे सिद्धिनाथे मनुपवनचले नैव आज्ञा निधाने,
ऐंकारे रात्रिमध्ये शयितपशुजने तंत्रकांते नमस्ते ।। ४ ।।
ॐ व्रां व्रीं व्रुं व्रूं कवित्ये दहनपुरगते रुक्मरुपेण चक्रे,
त्रिःशक्त्या युक्तवर्णादिककरनमिते दादिवंपूर्णवर्णे ।
ह्रीं-स्थाने कामराजे ज्वल ज्वल ज्वलिते कोशितैस्तास्तुपत्रे
स्वच्छंदं कष्टनाशे सुरवरवपुषे गुह्यमुंडे नमस्ते ।। ५ ।।
त्रिःशक्त्या युक्तवर्णादिककरनमिते दादिवंपूर्णवर्णे ।
ह्रीं-स्थाने कामराजे ज्वल ज्वल ज्वलिते कोशितैस्तास्तुपत्रे
स्वच्छंदं कष्टनाशे सुरवरवपुषे गुह्यमुंडे नमस्ते ।। ५ ।।
ॐ घ्रां घ्रीं घ्रूं घोरतुंडे घघघघघघघे घर्घरान्यांघ्रिघोषे,
ह्रीं क्रीं द्रं द्रौं च चक्र र र र र रमिते सर्वबोधप्रधाने ।
द्रीं तीर्थे द्रीं तज्येष्ठ जुगजुगजजुगे म्लेच्छदे कालमुंडे,
सर्वांगे रक्तघोरामथनकरवरे वज्रदंडे नमस्ते ।। ६ ।।
ह्रीं क्रीं द्रं द्रौं च चक्र र र र र रमिते सर्वबोधप्रधाने ।
द्रीं तीर्थे द्रीं तज्येष्ठ जुगजुगजजुगे म्लेच्छदे कालमुंडे,
सर्वांगे रक्तघोरामथनकरवरे वज्रदंडे नमस्ते ।। ६ ।।
ॐ क्रां क्रीं क्रूं वामभित्ते गगनगडगडे गुह्ययोन्याहिमुंडे,
वज्रांगे वज्रहस्ते सुरपतिवरदे मत्तमातंगरुढे ।
सूतेजे शुद्धदेहे ललललललिते छेदिते पाशजाले,
कुंडल्याकाररुपे वृषवृषभहरे ऐंद्रि मातर्नमस्ते ।। ७ ।।
वज्रांगे वज्रहस्ते सुरपतिवरदे मत्तमातंगरुढे ।
सूतेजे शुद्धदेहे ललललललिते छेदिते पाशजाले,
कुंडल्याकाररुपे वृषवृषभहरे ऐंद्रि मातर्नमस्ते ।। ७ ।।
ॐ हुंहुंहुंकारनादे कषकषवसिनी मांसि वैतालहस्ते,
सुंसिद्धर्षैः सुसिद्धिर्ढढढढढढढः सर्वभक्षी प्रचंडी ।
जूं सः सौं शांतिकर्मे मृतमृतनिगडे निःसमे सीसमुद्रे,
देवि त्वं साधकानां भवभयहरणे भद्रकाली नमस्ते ।। ८ ।।
सुंसिद्धर्षैः सुसिद्धिर्ढढढढढढढः सर्वभक्षी प्रचंडी ।
जूं सः सौं शांतिकर्मे मृतमृतनिगडे निःसमे सीसमुद्रे,
देवि त्वं साधकानां भवभयहरणे भद्रकाली नमस्ते ।। ८ ।।
ॐ देवि त्वं तुर्यहस्ते करधृतपरिघे त्वं वराहस्वरुपे,
त्वं चेंद्री त्वं कुबेरी त्वमसि च जननी त्वं पुराणी महेंद्री ।
ऐं ह्रीं ह्रीं कारभूते अतलतलतले भूतले स्वर्गमार्गे,
पाताले शैलभृंगे हरिहरभुवने सिद्धिचंडी नमस्ते ।। ९ ।।
त्वं चेंद्री त्वं कुबेरी त्वमसि च जननी त्वं पुराणी महेंद्री ।
ऐं ह्रीं ह्रीं कारभूते अतलतलतले भूतले स्वर्गमार्गे,
पाताले शैलभृंगे हरिहरभुवने सिद्धिचंडी नमस्ते ।। ९ ।।
हंसि त्वं शौंडदुःखं शमितभवभये सर्वविघ्नांतकार्ये,
गांगींगूंगैंषडंगे गगनगटितटे सिद्धिदे सिद्धिसाध्ये ।
क्रूं क्रूं मुद्रागजांशो गसपवनगते त्र्यक्षरे वै कराले,
ॐ हीं हूं गां गणेशी गजमुखजननी त्वं गणेशी नमस्ते ।। १० ।।
गांगींगूंगैंषडंगे गगनगटितटे सिद्धिदे सिद्धिसाध्ये ।
क्रूं क्रूं मुद्रागजांशो गसपवनगते त्र्यक्षरे वै कराले,
ॐ हीं हूं गां गणेशी गजमुखजननी त्वं गणेशी नमस्ते ।। १० ।।
।। इति मार्कण्डेय कृत लघु-सप्तशती दुर्गा स्तोत्रं ।।
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भगवती षोडशी
‘दस महा-विद्याओ’ में तीसरी महा-विद्या भगवती षोडशी है, अतः इन्हें तृतीया भी कहते हैं । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि वास्तव में आदि-शक्ति एक ही हैं, उन्हीं का आदि रुप ‘काली’ है और उसी रुप का विकसित स्वरुप ‘षोडशी’है, इसी से ‘षोडशी’ को ‘रक्त-काली’ नाम से भी स्मरण किया जाता है । भगवती तारा का रुप ‘काली’ और ‘षोडशी’ के मध्य का विकसित स्वरुप है । प्रधानता दो ही रुपों की मानी जाती है और तदनुसार ‘काली-कुल′ एवं ‘श्री-कुल′इन दो विभागों में दशों महा-विद्यायें परिगणित होती हैं ।
भगवती षोडशी के मुख्यतः तीन रुप हैं – (१) श्री बाला त्रिपुर-सुन्दरी या श्री बाला त्रिपुरा, (२) श्री षोडशी या महा-त्रिपुर सुन्दरी तथा (३) श्री ललिता त्रिपुर-सुन्दरी या श्री श्रीविद्या ।
आठ वर्षीया स्वरुप बाला त्रिपुर सुन्दरी का, षोडश-वर्षीय स्वरुप षोडशी स्वरुप तथा ललिता त्रिपुर सुन्दरी स्वरुपयुवा अवस्था को माना है ।
श्री विद्या की प्रधान देवि ललिता त्रिपुर सुन्दरी है । यह धन, ऐश्वर्य भोग एवं मोक्ष की अधिष्ठातृ देवी है । अन्य विद्यायें को मोक्ष की विशेष फलदा है, तो कोई भोग की विशेष फलदा है परन्तु श्रीविद्या की उपासना से दोनों ही करतल-गत हैं ।
इसकी उपासना तंत्रों में अति रहस्यमय व गुप्त है तथा पूर्व जन्म के विशेष संस्कारों के बलवान होने पर ही इस विद्या की दीक्षा का योग माना है । साधक को क्रम-पूर्वक दीक्षा लेनी चाहिए तभी उत्तम रहता है । कहीं-कहीं ऐसा देखा गया है कि जिन्होंने क्रम-दीक्षा के बिना ललिता त्रिपुर सुन्दरी की उपासना सीधे की है, उन्हें पहले आर्थिक कठिनाईयाँ प्राप्त हुई है एवं बाद में उसका विकास हुआ ।
‘श्री बाला’ का मुख्य मन्त्र तीन अक्षरों का है और उनका पूजा-यन्त्र ‘नव-योन्यात्मक’ है । अतः उन्हें ‘त्रिपुरा’ या‘त्र्यक्षरी’ नामों से भी अभिहित करते हैं ।
‘श्री ललिता’ या ‘श्री श्रीविद्या’ का मुख्य मन्त्र पन्द्रह अक्षरों का होने से उनका नामान्तर ‘पञ्च-दशी’ भी है । इनका पूजा-यन्त्र ‘श्री-चक्र’ या ‘श्री-यन्त्र’ नाम से प्रसिद्ध है ।
‘श्री षोडशी’ या ‘महा-त्रिपुर-सुन्दरी’ का मुख्य मन्त्र सोलह अक्षरों का है, उसी के अनुरुप उनका नाम है । पूजा यन्त्र ‘श्रीललिता’ – जैसा ही है ।
‘श्री ललिता’ एवं श्री ‘षोडशी’ के मन्त्रों में तीन ‘कूटों’ का समावेश है, जो क्रमशः ‘वाक्-कूट’, काम-कूट’ तथा‘शक्ति-कूट’ नामों से प्रसिद्ध हैं । यहाँ ज्ञातव्य है कि पञ्चदशी के कूट-त्रय ‘क’, ‘ह′ या ‘स’ से प्रारम्भ होते हैं । अतः विभिन्न ‘कादि’, ‘हादि’ और ‘सादि’ – विद्या नाम से जाने जाते हैं ।
भगवती षोडशी से सम्बन्धित पूजा-यन्त्र ‘श्री-चक्र’ या ‘श्री-यन्त्र’ की विशेष ख्याति है । इस तरह का जटिल पूजा-यन्त्र अन्य किसी देवता का नहीं है । वह पिण्ड और ब्रह्माण्ड के समस्त रहस्यों का बोधक है । इसी से उसे ‘यन्त्र-राज’ या ‘चक्र-राज’ भी कहते हैं ।
भगवती षोडशी के मुख्यतः तीन रुप हैं – (१) श्री बाला त्रिपुर-सुन्दरी या श्री बाला त्रिपुरा, (२) श्री षोडशी या महा-त्रिपुर सुन्दरी तथा (३) श्री ललिता त्रिपुर-सुन्दरी या श्री श्रीविद्या ।
आठ वर्षीया स्वरुप बाला त्रिपुर सुन्दरी का, षोडश-वर्षीय स्वरुप षोडशी स्वरुप तथा ललिता त्रिपुर सुन्दरी स्वरुपयुवा अवस्था को माना है ।
श्री विद्या की प्रधान देवि ललिता त्रिपुर सुन्दरी है । यह धन, ऐश्वर्य भोग एवं मोक्ष की अधिष्ठातृ देवी है । अन्य विद्यायें को मोक्ष की विशेष फलदा है, तो कोई भोग की विशेष फलदा है परन्तु श्रीविद्या की उपासना से दोनों ही करतल-गत हैं ।
इसकी उपासना तंत्रों में अति रहस्यमय व गुप्त है तथा पूर्व जन्म के विशेष संस्कारों के बलवान होने पर ही इस विद्या की दीक्षा का योग माना है । साधक को क्रम-पूर्वक दीक्षा लेनी चाहिए तभी उत्तम रहता है । कहीं-कहीं ऐसा देखा गया है कि जिन्होंने क्रम-दीक्षा के बिना ललिता त्रिपुर सुन्दरी की उपासना सीधे की है, उन्हें पहले आर्थिक कठिनाईयाँ प्राप्त हुई है एवं बाद में उसका विकास हुआ ।
‘श्री बाला’ का मुख्य मन्त्र तीन अक्षरों का है और उनका पूजा-यन्त्र ‘नव-योन्यात्मक’ है । अतः उन्हें ‘त्रिपुरा’ या‘त्र्यक्षरी’ नामों से भी अभिहित करते हैं ।
‘श्री ललिता’ या ‘श्री श्रीविद्या’ का मुख्य मन्त्र पन्द्रह अक्षरों का होने से उनका नामान्तर ‘पञ्च-दशी’ भी है । इनका पूजा-यन्त्र ‘श्री-चक्र’ या ‘श्री-यन्त्र’ नाम से प्रसिद्ध है ।
‘श्री षोडशी’ या ‘महा-त्रिपुर-सुन्दरी’ का मुख्य मन्त्र सोलह अक्षरों का है, उसी के अनुरुप उनका नाम है । पूजा यन्त्र ‘श्रीललिता’ – जैसा ही है ।
‘श्री ललिता’ एवं श्री ‘षोडशी’ के मन्त्रों में तीन ‘कूटों’ का समावेश है, जो क्रमशः ‘वाक्-कूट’, काम-कूट’ तथा‘शक्ति-कूट’ नामों से प्रसिद्ध हैं । यहाँ ज्ञातव्य है कि पञ्चदशी के कूट-त्रय ‘क’, ‘ह′ या ‘स’ से प्रारम्भ होते हैं । अतः विभिन्न ‘कादि’, ‘हादि’ और ‘सादि’ – विद्या नाम से जाने जाते हैं ।
भगवती षोडशी से सम्बन्धित पूजा-यन्त्र ‘श्री-चक्र’ या ‘श्री-यन्त्र’ की विशेष ख्याति है । इस तरह का जटिल पूजा-यन्त्र अन्य किसी देवता का नहीं है । वह पिण्ड और ब्रह्माण्ड के समस्त रहस्यों का बोधक है । इसी से उसे ‘यन्त्र-राज’ या ‘चक्र-राज’ भी कहते हैं ।
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षोडशी माहेश्वरी शक्ति की सबसे मनोहर श्रीविग्रह वाली सिद्ध देवी है । महाविद्याओं में इनका तीसरा स्थान है । सोलह अक्षरों के मन्त्र वाली इन देवी की अंग-कान्ति उदीयमान सूर्य-मण्डल की आभा की भाँति है । इनकी चार भुजाएँ एवं तीन नेत्र हैं । ये शान्त मुद्रा में लेटे हुए सदाशिव पर स्थित कमल के आसन पर आसीन हैं । इनके चारों हाथों में क्रमशः पाश, अंकुश, धनुष और बाण सुशोभित हैं । वर देने के लिए सदा-सर्वदा तत्पर भगवती का श्रीविग्रह सौम्य और हृदय दया से आपूरित है । जो इनका आश्रय ग्रहण कर लेते हैं, उनमें और ईश्वर में कोई भेद नहीं रह जाता है । वस्तुतः इनकी महिमा अवर्णनीय है । संसार के समस्त मन्त्र-तन्त्र इनकी आराधना करते हैं । वेद भी इनका वर्णन करने में असमर्थ है । भक्तों को ये प्रसन्न होकर सब कुछ दे देती हैं, अभीष्ट तो सीमित अर्थवाच्य है ।
प्रशान्त हिरण्यगर्भ ही शिव हैं और उन्हीं की शक्ति षोडशी है । तन्त्र-शास्त्रों में षोडशी देवी को पञ्च-वक्त्र अर्थात् पाँच मुखों वाली बताया गया है । चारों दिशाओं में चार और एक ऊपर की ओर मुख होने से इन्हें पञ्च-वक्त्रा कहा जाता है । देवी के पाँचों मुख तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव, अघोर और ईशान शिव के पाँचों रुपों के प्रतीक हैं । पाँचों दिशाओं के रंग क्रमशः हरित, रक्त, धूम्र, नील और पीत होने से ये मुख भी इन्हीं रंगों के हैं । देवी के दस हाथों में क्रमशः अभय, टंक, शूल, वज्र, पाश, खड्ग, अंकुश, घण्टा, नाग और अग्नि हैं । इनमें षोडश कलाएँ पूर्णरुप से विकसित हैं, अतएव ये षोडशी कहलाती हैं ।
षोडशी को श्रीविद्या भी माना गया है । इनके ललिता, राज-राजेश्वरी, महा-त्रिपुर-सुन्दरी, बाला-पञ्चदशी आदि अनेक नाम हैं । इन्हें आद्याशक्ति माना गया है । अन्य विद्याएँ भोग या मोक्ष में से एक ही देती हैं । ये अपने उपासक को भुक्ति और मुक्ति दोनों प्रदान करती हैं । इनके स्थूल, सूक्ष्म, पर तथा तुरीय चार रुप हैं ।
एक बार पराम्बा पार्वतीजी ने भगवान् शिव से पूछा – ‘भगवन् ! आपके द्वारा प्रकाशित तन्त्र-शास्त्र की साधना से जीव के आधि-व्याधि, शोक-संताप, दीनता-हीनता तो दूर हो जाएँगे, किन्तु गर्भवास और मरण के असह्य दुःख की निवृत्ति तो इससे नहीं होगी । कृपा करके इस दुःख से निवृत्ति और मोक्ष पद की प्राप्ति का कोई उपाय बताइये ।’परम कल्याणमयी पराम्बा के अनुरोध पर भगवान् शंकर ने षोडशी श्रीविद्या-साधना-प्रणाली को प्रकट किया । भगवान् शंकराचार्य ने भी श्रीवद्या के रुप में इन्हीं षोडशी देवी की उपासना की थी । इसीलिये आज भी सभी शांकरपीठों में भगवती षोडशी राजराजेश्वरी त्रिपुरसुन्दरी की श्रीयन्त्र के रुप में आराधना चली आ रही है । भगवान् शंकराचार्य ने सौन्दर्य-लहरी में षोडशी श्रीविद्या की स्तुति करते हुए कहा है कि ‘अमृत के समुद्र में एक मणि का द्वीप है, जिसमें कल्पवृक्षों की बारी है, नवरत्नों के नौ परकोटे हैं; उस वन में चिन्तामणि से निर्मित महल में ब्रह्ममय सिंहासन है, जिसमें पञ्चकृत्य के देवता ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और ईश्वर आसन के पाये हैं और सदाशिव फलक हैं । सदाशिव के नाभि से निर्गत कमल पर विराजमान भगवती षोडशी त्रिपुरसुन्दरी का जो ध्यान करते हैं, वे धन्य हैं । भगवती के प्रभाव से उन्हें भोग और मोक्ष दोनों सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं ।’ भैरवयामल तथाशक्तिलहरी में इनकी उपासना का विस्तृत परिचय मिलता है । दुर्वासा इनके परमाराधक थे । इनकी उपासनाश्रीचक्र में होती है ।
प्रशान्त हिरण्यगर्भ ही शिव हैं और उन्हीं की शक्ति षोडशी है । तन्त्र-शास्त्रों में षोडशी देवी को पञ्च-वक्त्र अर्थात् पाँच मुखों वाली बताया गया है । चारों दिशाओं में चार और एक ऊपर की ओर मुख होने से इन्हें पञ्च-वक्त्रा कहा जाता है । देवी के पाँचों मुख तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव, अघोर और ईशान शिव के पाँचों रुपों के प्रतीक हैं । पाँचों दिशाओं के रंग क्रमशः हरित, रक्त, धूम्र, नील और पीत होने से ये मुख भी इन्हीं रंगों के हैं । देवी के दस हाथों में क्रमशः अभय, टंक, शूल, वज्र, पाश, खड्ग, अंकुश, घण्टा, नाग और अग्नि हैं । इनमें षोडश कलाएँ पूर्णरुप से विकसित हैं, अतएव ये षोडशी कहलाती हैं ।
षोडशी को श्रीविद्या भी माना गया है । इनके ललिता, राज-राजेश्वरी, महा-त्रिपुर-सुन्दरी, बाला-पञ्चदशी आदि अनेक नाम हैं । इन्हें आद्याशक्ति माना गया है । अन्य विद्याएँ भोग या मोक्ष में से एक ही देती हैं । ये अपने उपासक को भुक्ति और मुक्ति दोनों प्रदान करती हैं । इनके स्थूल, सूक्ष्म, पर तथा तुरीय चार रुप हैं ।
एक बार पराम्बा पार्वतीजी ने भगवान् शिव से पूछा – ‘भगवन् ! आपके द्वारा प्रकाशित तन्त्र-शास्त्र की साधना से जीव के आधि-व्याधि, शोक-संताप, दीनता-हीनता तो दूर हो जाएँगे, किन्तु गर्भवास और मरण के असह्य दुःख की निवृत्ति तो इससे नहीं होगी । कृपा करके इस दुःख से निवृत्ति और मोक्ष पद की प्राप्ति का कोई उपाय बताइये ।’परम कल्याणमयी पराम्बा के अनुरोध पर भगवान् शंकर ने षोडशी श्रीविद्या-साधना-प्रणाली को प्रकट किया । भगवान् शंकराचार्य ने भी श्रीवद्या के रुप में इन्हीं षोडशी देवी की उपासना की थी । इसीलिये आज भी सभी शांकरपीठों में भगवती षोडशी राजराजेश्वरी त्रिपुरसुन्दरी की श्रीयन्त्र के रुप में आराधना चली आ रही है । भगवान् शंकराचार्य ने सौन्दर्य-लहरी में षोडशी श्रीविद्या की स्तुति करते हुए कहा है कि ‘अमृत के समुद्र में एक मणि का द्वीप है, जिसमें कल्पवृक्षों की बारी है, नवरत्नों के नौ परकोटे हैं; उस वन में चिन्तामणि से निर्मित महल में ब्रह्ममय सिंहासन है, जिसमें पञ्चकृत्य के देवता ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और ईश्वर आसन के पाये हैं और सदाशिव फलक हैं । सदाशिव के नाभि से निर्गत कमल पर विराजमान भगवती षोडशी त्रिपुरसुन्दरी का जो ध्यान करते हैं, वे धन्य हैं । भगवती के प्रभाव से उन्हें भोग और मोक्ष दोनों सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं ।’ भैरवयामल तथाशक्तिलहरी में इनकी उपासना का विस्तृत परिचय मिलता है । दुर्वासा इनके परमाराधक थे । इनकी उपासनाश्रीचक्र में होती है ।
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सर्वारिष्ट-विनाशक श्रीबाला-सहस्राक्षरी स्तोत्रम्
“ऐं नमः श्री बालायै । ऐं नमो बालायै, त्रिगुण-रहितायै, क्लीं शिवा-रुपिण्यै, शिवोर्ध्व-गतायै, त्रि-मात्रायै, सौः सर्व-देवाधि-देवीश्वर्यै, ऐं खं ऐं खं ऐं खं फट् । ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ क्लीं फट् । हंसः सौः हंसः हंसः सौ फट् । ह्रां ह्रीं ह्रूं ऊर्ध्वाम्नायेश्वर्यै, ख्फ्रें ह्फ्रें स्फ्रें ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्रौं फट् । त्रीं ध्रीं प्रीं फ्रीं त्रैलोक्य-विजयेश्वर्यै, महा-प्रकाशायै स्वाहा-शताक्षरी ।
ऐं ह्रीं ख्फ्रेङ हफ्रें ह्स्ख्फ्रें । ॐ ह्रूं क्लीं क्रीं रां रीं रुं सौः । ॐ-कार-रुपिण्यै, ऐंकार-संस्थितायै, हंसः सोहं परमात्मा जगन्मयो । यज्ञ-रुपिण्यै, जनानन्द-दायिन्यै, त्रि-जगताधीश्वर्यै । ह्रीं ह्रीं, फट् फट् फट् । शत्रु-नाशिन्यै, जय-प्रदायै, त्रि-विद्या-चक्रेश्वर्यै, नर-मुण्ड-माला-धारिण्यै । नर-चर्मावगुण्ठिनि, नरास्थि-हारिन्यै, महा-देवासनि, संसारार्णव-तारिणि ! मम शत्रुं भञ्जय-भञ्जय, तुरु-तुरु, मुरु-मुरु, हिरि-हिरि, मनोरथं पूरय पूरय, ममाधि-व्याधिं नाशय-नाशय, छिन्धि-छिन्धि, भिन्दि-भिन्दि । कुरु-कुल्ले ! सर्वारिष्टं विनाशय विनाशय, हेरि-हेरि, गेरि-गेरि, त्रासय-त्रासय मम् रिपून् भ्रामय-भ्रामय, खड्गेन खण्डं-खण्डं कुरु-कुरु । इषुना मर्म भेदय-भेदय, ऐं ख्रें ख्रैं ख्रों ख्रौं ख्रः । रक्त-वर्ण-शरीरे, महा-घोर-रावे, शर-वाण-हस्ते, वराभयांकित-चारु-हस्ते ! हूं हूं हूं फट् । चतुर्दश-भुवन-मालिनि, चतुर्दश-विद्याधीश्वरि, चतुर्वेदाध्यायिनि, चातुर्वर्ण्य-एकाकार-कारिणि, कान्ति-दायिनि, महा-घोर-घोर-तरे, अघोरामुखि, अघोर-मूर्ध्नि-संस्थिते, परापर-पर-ब्रह्माधि-रुढिनि ! ह्रीं ढ्रीं क्षीं फट् । ॐ ऐं ॐ क्लीं ॐ सौः । श्रीं ऐं ऐं ऐं हसैं स्हैं ॐ ह्रः फट् । पञ्च-प्रेतासने महा-मोक्ष-दात्री । ॐ हूं फट् ह्रः फट् छ्रां छ्रीं छ्रीं ॐ । जगद्-योनि-रुपे, योनि-सर्पि-विभूषिणि, योनि-सृक्-शिर-भूषिणि, योनि-मालिनि, योनि-संकोचिनि, योनि-मध्य-गते । द्रां द्रीं द्रूं क्षौं हं फट् क्षां यां रां लां वां शां हां ॐ ।
ॐ फट् ऐं हूं फट् क्लीं हूं फट् सौः हूं फट् । श्मशान-वासिनि, श्मशान-भस्म-लेपिनि, श्मशानांगार-निलये, शवारुढे, शव-मांस-भक्ष-महा-प्रिये, शव-परित-व्याप्ति-हाहा-शब्दाति-प्रिये, डामरि, भूतिनि, योगिनि, डाकिनि, राक्षसि, सह-विहारिणि, परा-प्रासाद-गरहिनि, भस्मीलेप-कार-विभूषिते ! फ्रं ख्फ्रें हस्फ्रें हस्व्फ्रें सह्ख्फ्रें गां गीं गूं सः फट्, क्म्रीं च्म्रीं ढ्म्रीं ह्म्रीं क्ष्म्रीं फट् । गिरि-निवासिनि, गिरि-पुष्प-संशोभिनि, गिरि-पुत्रि, गिरि-धारिणि, गीत-वाद्य-विमोहिनि, त्रैलोक्य-मोहिनि, देवि, दिव्यांग-वस्त्र-धारिणि, दिव्य-ज्ञान-प्रदे, दिविषद्-मातः, सिद्धि-प्रदे, सिद्धि-स्वरुपे, सिद्धि-विद्योतातीतातीते, ख-मार्ग-प्रचारिणि, खगेश्वरि, खड्ग-हस्तिनि, खं-बीज-मध्य-गते ! ॐ ऐं ॐ ह्रीं ॐ श्रीं ॐ फट् तां तीं तूं तैं तौं तः, हां हीं हूं हैं हौं हः, वां वीं वूं वैं वौं वः, च्फ्रें ह्फ्रें क्ष्प्रें अ कं चं टं तं पं यं शं । मातृका-चक्र-चक्रे, हासिनि ! ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः, श्लीं हूं फट्, अं आं ऐं, इं ईं ऐं, उं ऊं ऐं, ऋं ॠं ऐं, ऐं ऐं ऐं, ओं औं ऐं, अं अः ऐं फट् । निर्वाण-रुपे, निर्वाणातीते, निर्वाण-दात्रि, निरंकुशिनि, निराकारे, निरञ्जनावतारिणि, षट्-चक्रेश्वरि, सह-स्रात्मे, महा-सूक्ष्म-सूक्ष्मे, सूक्ष्मातीत-सूक्ष्म-नाम-रुपिणि, महा-प्रलयान्त-एक-शेषाक्षिणि, संसाराब्धि-दुःख-तारिके, सृष्टि-स्थित्यन्त-कारिके, क्मांलांवुंयूं, ग्मांलांवुंयूं स्मौंलांवुंयूं क्ष्मांलांवुंयूं, ह्रीं धं छिन्धि, सु-बुद्धि दद दद, मोक्ष-मार्ग दर्शय-दर्शय, तवानुचरं कुरु कुरु, हिरि हिरि, धिमि-धिमि-धिमि, । महा-डमरु-वादन-महा-प्रिये ! आं हूं हूं हूं हूं फट् । मम हृदये तिष्ठ-तिष्ठ, सु-फलं देहि-देहि । सर्व-तीर्थ-फलं प्रदापय-प्रदापय, सर्व-दान-फलं प्रापय-प्रापय । ज्योति-स्वरुपिणि ! सर्व-योग-फलं कुर-कुरु, स्फ्रों क्रों ह्रीम ऐं क्लीं सौः स्वाहा । श्रीमद्-बालायै स्वाहा ।”
“ऐं नमः श्री बालायै । ऐं नमो बालायै, त्रिगुण-रहितायै, क्लीं शिवा-रुपिण्यै, शिवोर्ध्व-गतायै, त्रि-मात्रायै, सौः सर्व-देवाधि-देवीश्वर्यै, ऐं खं ऐं खं ऐं खं फट् । ॐ क्लीं ॐ क्लीं ॐ क्लीं फट् । हंसः सौः हंसः हंसः सौ फट् । ह्रां ह्रीं ह्रूं ऊर्ध्वाम्नायेश्वर्यै, ख्फ्रें ह्फ्रें स्फ्रें ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्रौं फट् । त्रीं ध्रीं प्रीं फ्रीं त्रैलोक्य-विजयेश्वर्यै, महा-प्रकाशायै स्वाहा-शताक्षरी ।
ऐं ह्रीं ख्फ्रेङ हफ्रें ह्स्ख्फ्रें । ॐ ह्रूं क्लीं क्रीं रां रीं रुं सौः । ॐ-कार-रुपिण्यै, ऐंकार-संस्थितायै, हंसः सोहं परमात्मा जगन्मयो । यज्ञ-रुपिण्यै, जनानन्द-दायिन्यै, त्रि-जगताधीश्वर्यै । ह्रीं ह्रीं, फट् फट् फट् । शत्रु-नाशिन्यै, जय-प्रदायै, त्रि-विद्या-चक्रेश्वर्यै, नर-मुण्ड-माला-धारिण्यै । नर-चर्मावगुण्ठिनि, नरास्थि-हारिन्यै, महा-देवासनि, संसारार्णव-तारिणि ! मम शत्रुं भञ्जय-भञ्जय, तुरु-तुरु, मुरु-मुरु, हिरि-हिरि, मनोरथं पूरय पूरय, ममाधि-व्याधिं नाशय-नाशय, छिन्धि-छिन्धि, भिन्दि-भिन्दि । कुरु-कुल्ले ! सर्वारिष्टं विनाशय विनाशय, हेरि-हेरि, गेरि-गेरि, त्रासय-त्रासय मम् रिपून् भ्रामय-भ्रामय, खड्गेन खण्डं-खण्डं कुरु-कुरु । इषुना मर्म भेदय-भेदय, ऐं ख्रें ख्रैं ख्रों ख्रौं ख्रः । रक्त-वर्ण-शरीरे, महा-घोर-रावे, शर-वाण-हस्ते, वराभयांकित-चारु-हस्ते ! हूं हूं हूं फट् । चतुर्दश-भुवन-मालिनि, चतुर्दश-विद्याधीश्वरि, चतुर्वेदाध्यायिनि, चातुर्वर्ण्य-एकाकार-कारिणि, कान्ति-दायिनि, महा-घोर-घोर-तरे, अघोरामुखि, अघोर-मूर्ध्नि-संस्थिते, परापर-पर-ब्रह्माधि-रुढिनि ! ह्रीं ढ्रीं क्षीं फट् । ॐ ऐं ॐ क्लीं ॐ सौः । श्रीं ऐं ऐं ऐं हसैं स्हैं ॐ ह्रः फट् । पञ्च-प्रेतासने महा-मोक्ष-दात्री । ॐ हूं फट् ह्रः फट् छ्रां छ्रीं छ्रीं ॐ । जगद्-योनि-रुपे, योनि-सर्पि-विभूषिणि, योनि-सृक्-शिर-भूषिणि, योनि-मालिनि, योनि-संकोचिनि, योनि-मध्य-गते । द्रां द्रीं द्रूं क्षौं हं फट् क्षां यां रां लां वां शां हां ॐ ।
ॐ फट् ऐं हूं फट् क्लीं हूं फट् सौः हूं फट् । श्मशान-वासिनि, श्मशान-भस्म-लेपिनि, श्मशानांगार-निलये, शवारुढे, शव-मांस-भक्ष-महा-प्रिये, शव-परित-व्याप्ति-हाहा-शब्दाति-प्रिये, डामरि, भूतिनि, योगिनि, डाकिनि, राक्षसि, सह-विहारिणि, परा-प्रासाद-गरहिनि, भस्मीलेप-कार-विभूषिते ! फ्रं ख्फ्रें हस्फ्रें हस्व्फ्रें सह्ख्फ्रें गां गीं गूं सः फट्, क्म्रीं च्म्रीं ढ्म्रीं ह्म्रीं क्ष्म्रीं फट् । गिरि-निवासिनि, गिरि-पुष्प-संशोभिनि, गिरि-पुत्रि, गिरि-धारिणि, गीत-वाद्य-विमोहिनि, त्रैलोक्य-मोहिनि, देवि, दिव्यांग-वस्त्र-धारिणि, दिव्य-ज्ञान-प्रदे, दिविषद्-मातः, सिद्धि-प्रदे, सिद्धि-स्वरुपे, सिद्धि-विद्योतातीतातीते, ख-मार्ग-प्रचारिणि, खगेश्वरि, खड्ग-हस्तिनि, खं-बीज-मध्य-गते ! ॐ ऐं ॐ ह्रीं ॐ श्रीं ॐ फट् तां तीं तूं तैं तौं तः, हां हीं हूं हैं हौं हः, वां वीं वूं वैं वौं वः, च्फ्रें ह्फ्रें क्ष्प्रें अ कं चं टं तं पं यं शं । मातृका-चक्र-चक्रे, हासिनि ! ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः, श्लीं हूं फट्, अं आं ऐं, इं ईं ऐं, उं ऊं ऐं, ऋं ॠं ऐं, ऐं ऐं ऐं, ओं औं ऐं, अं अः ऐं फट् । निर्वाण-रुपे, निर्वाणातीते, निर्वाण-दात्रि, निरंकुशिनि, निराकारे, निरञ्जनावतारिणि, षट्-चक्रेश्वरि, सह-स्रात्मे, महा-सूक्ष्म-सूक्ष्मे, सूक्ष्मातीत-सूक्ष्म-नाम-रुपिणि, महा-प्रलयान्त-एक-शेषाक्षिणि, संसाराब्धि-दुःख-तारिके, सृष्टि-स्थित्यन्त-कारिके, क्मांलांवुंयूं, ग्मांलांवुंयूं स्मौंलांवुंयूं क्ष्मांलांवुंयूं, ह्रीं धं छिन्धि, सु-बुद्धि दद दद, मोक्ष-मार्ग दर्शय-दर्शय, तवानुचरं कुरु कुरु, हिरि हिरि, धिमि-धिमि-धिमि, । महा-डमरु-वादन-महा-प्रिये ! आं हूं हूं हूं हूं फट् । मम हृदये तिष्ठ-तिष्ठ, सु-फलं देहि-देहि । सर्व-तीर्थ-फलं प्रदापय-प्रदापय, सर्व-दान-फलं प्रापय-प्रापय । ज्योति-स्वरुपिणि ! सर्व-योग-फलं कुर-कुरु, स्फ्रों क्रों ह्रीम ऐं क्लीं सौः स्वाहा । श्रीमद्-बालायै स्वाहा ।”
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श्रीबगला अष्टोत्तर-शत-नाम स्तोत्रम्
इस शतनाम स्तोत्र से देवकृपा प्राप्त होती है तथा अंगरक्षक के समान कार्य करता है ।
ब्रह्मास्त्ररुपिणी देवी माता श्रीबगलामुखी ।
चिच्छिक्तिर्ज्ञान-रुपा च ब्रह्मानन्द-प्रदायिनी ।। १ ।।
महाविद्या महालक्ष्मी श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरी ।
भुवनेशी जगन्माता पार्वती सर्वमंगला ।। २ ।।
ललिता भैरवी शान्ता अन्नपूर्णा कुलेश्वरी ।
वाराही छीन्नमस्ता च तारा काली सरस्वती ।। ३ ।।
जगत्पूज्या महामाया कामेशी भगमालिनी ।
दक्षपुत्री शिवांकस्था शिवरुपा शिवप्रिया ।। ४ ।।
सर्व-सम्पत्करी देवी सर्वलोक वशंकरी ।
विदविद्या महापूज्या भक्ताद्वेषी भयंकरी ।। ५ ।।
स्तम्भ-रुपा स्तम्भिनी च दुष्टस्तम्भनकारिणी ।
भक्तप्रिया महाभोगा श्रीविद्या ललिताम्बिका ।। ६ ।।
मैनापुत्री शिवानन्दा मातंगी भुवनेश्वरी ।
नारसिंही नरेन्द्रा च नृपाराध्या नरोत्तमा ।। ७ ।।
नागिनी नागपुत्री च नगराजसुता उमा ।
पीताम्बा पीतपुष्पा च पीतवस्त्रप्रिया शुभा ।। ८ ।।
पीतगन्धप्रिया रामा पीतरत्नार्चिता शिवा ।
अर्द्धचन्द्रधरी देवी गदामुद्गरधारिणी ।। ९ ।।
सावित्री त्रिपदा शुद्धा सद्योराग विवर्धिनी ।
विष्णुरुपा जगन्मोहा ब्रह्मरुपा हरिप्रिया ।। १० ।।
रुद्ररुपा रुद्रशक्तिश्चिन्मयी भक्तवत्सला ।
लोकमाता शिवा सन्ध्या शिवपूजनतत्परा ।। ११ ।।
धनाध्यक्षा धनेशी च नर्मदा धनदा धना ।
चण्डदर्पहरी देवी शुम्भासुरनिबर्हिणी ।। १२ ।।
राजराजेश्वरी देवी महिषासुरमर्दिनी ।
मधूकैटभहन्त्री देवी रक्तबीजविनाशिनी ।। १३ ।।
धूम्राक्षदैत्यहन्त्री च भण्डासुर विनाशिनी ।
रेणुपुत्री महामाया भ्रामरी भ्रमराम्बिका ।। १४ ।।
ज्वालामुखी भद्रकाली बगला शत्रुनाशिनी ।
इन्द्राणी इन्द्रपूज्या च गुहमाता गुणेश्वरी ।। १५ ।।
वज्रपाशधरा देवी ज्ह्वामुद्गरधारिणी ।
भक्तानन्दकरी देवी बगला परमेश्वरी ।। १६ ।।
अष्टोत्तरशतं नाम्नां बगलायास्तु यः पठेत् ।
रिपुबाधाविनिर्मुक्तः लक्ष्मीस्थैर्यमवाप्नुयात् ।। १७ ।।
भूतप्रेतपिशाचाश्च ग्रहपीड़ानिवारणम् ।
राजानो वशमायांति सर्वैश्वर्यं च विन्दति ।। १८ ।।
नानाविद्यां च लभते राज्यं प्राप्नोति निश्चितम् ।
भुक्तिमुक्तिमवाप्नोति साक्षात् शिवसमो भवेत् ।। १९ ।।
चिच्छिक्तिर्ज्ञान-रुपा च ब्रह्मानन्द-प्रदायिनी ।। १ ।।
महाविद्या महालक्ष्मी श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरी ।
भुवनेशी जगन्माता पार्वती सर्वमंगला ।। २ ।।
ललिता भैरवी शान्ता अन्नपूर्णा कुलेश्वरी ।
वाराही छीन्नमस्ता च तारा काली सरस्वती ।। ३ ।।
जगत्पूज्या महामाया कामेशी भगमालिनी ।
दक्षपुत्री शिवांकस्था शिवरुपा शिवप्रिया ।। ४ ।।
सर्व-सम्पत्करी देवी सर्वलोक वशंकरी ।
विदविद्या महापूज्या भक्ताद्वेषी भयंकरी ।। ५ ।।
स्तम्भ-रुपा स्तम्भिनी च दुष्टस्तम्भनकारिणी ।
भक्तप्रिया महाभोगा श्रीविद्या ललिताम्बिका ।। ६ ।।
मैनापुत्री शिवानन्दा मातंगी भुवनेश्वरी ।
नारसिंही नरेन्द्रा च नृपाराध्या नरोत्तमा ।। ७ ।।
नागिनी नागपुत्री च नगराजसुता उमा ।
पीताम्बा पीतपुष्पा च पीतवस्त्रप्रिया शुभा ।। ८ ।।
पीतगन्धप्रिया रामा पीतरत्नार्चिता शिवा ।
अर्द्धचन्द्रधरी देवी गदामुद्गरधारिणी ।। ९ ।।
सावित्री त्रिपदा शुद्धा सद्योराग विवर्धिनी ।
विष्णुरुपा जगन्मोहा ब्रह्मरुपा हरिप्रिया ।। १० ।।
रुद्ररुपा रुद्रशक्तिश्चिन्मयी भक्तवत्सला ।
लोकमाता शिवा सन्ध्या शिवपूजनतत्परा ।। ११ ।।
धनाध्यक्षा धनेशी च नर्मदा धनदा धना ।
चण्डदर्पहरी देवी शुम्भासुरनिबर्हिणी ।। १२ ।।
राजराजेश्वरी देवी महिषासुरमर्दिनी ।
मधूकैटभहन्त्री देवी रक्तबीजविनाशिनी ।। १३ ।।
धूम्राक्षदैत्यहन्त्री च भण्डासुर विनाशिनी ।
रेणुपुत्री महामाया भ्रामरी भ्रमराम्बिका ।। १४ ।।
ज्वालामुखी भद्रकाली बगला शत्रुनाशिनी ।
इन्द्राणी इन्द्रपूज्या च गुहमाता गुणेश्वरी ।। १५ ।।
वज्रपाशधरा देवी ज्ह्वामुद्गरधारिणी ।
भक्तानन्दकरी देवी बगला परमेश्वरी ।। १६ ।।
अष्टोत्तरशतं नाम्नां बगलायास्तु यः पठेत् ।
रिपुबाधाविनिर्मुक्तः लक्ष्मीस्थैर्यमवाप्नुयात् ।। १७ ।।
भूतप्रेतपिशाचाश्च ग्रहपीड़ानिवारणम् ।
राजानो वशमायांति सर्वैश्वर्यं च विन्दति ।। १८ ।।
नानाविद्यां च लभते राज्यं प्राप्नोति निश्चितम् ।
भुक्तिमुक्तिमवाप्नोति साक्षात् शिवसमो भवेत् ।। १९ ।।
।। श्री रुद्रयामले सर्व-सिद्धि-प्रद बगलाऽष्टोत्तर-शतनाम-स्तोत्र ।।
श्री बगला प्रत्यंगिरा कवचम्
।। श्री शिव उवाच ।।
अधुनाऽहं प्रवक्ष्यामि बगलायाः सुदुर्लभम् ।
यस्य पठन मात्रेण पवनोपि स्थिरायते ।।
प्रत्यंगिरां तां देवेशि श्रृणुष्व कमलानने ।
यस्य स्मरण मात्रेण शत्रवो विलयं गताः ।।
।। श्री देव्युवाच ।।
स्नेहोऽस्ति यदि मे नाथ संसारार्णव तारक ।
तथा कथय मां शम्भो बगलाप्रत्यंगिरा मम ।।
।। श्री भैरव उवाच ।।
यं यं प्रार्थयते मन्त्री हठात्तंतमवाप्नुयात् ।
विद्वेषणाकर्षणे च स्तम्भनं वैरिणां विभो ।।
उच्चाटनं मारणं च येन कर्तुं क्षमो भवेत् ।
तत्सर्वं ब्रूहि मे देव यदि मां दयसे हर ।।
।। श्री सदाशिव उवाच ।।
अधुना हि महादेवि परानिष्ठा मतिर्भवेत् ।
अतएव महेशानि किंचिन्न वक्तुतुमर्हसि ।।
।। श्री पार्वत्युवाच ।।
जिघान्सन्तं तेन ब्रह्महा भवेत् ।
श्रृतिरेषाहि गिरिश कथं मां त्वं निनिन्दसि ।।
।। श्री शिव उवाच ।।
साधु साधु प्रवक्ष्यामि श्रृणुष्वावहितानघे ।
प्रत्यंगिरां बगलायाः सर्वशत्रुनिवारिणीम् ।।
नाशिनीं सर्व-दुष्टानां सर्व-पापौघ-हारिणिम् ।
सर्व-प्राणि-हितां देवीं सर्व दुःख विनाशिनीम् ।।
भोगदां मोक्षदां चैव राज्य सौभाग्य दायिनीम् ।
मन्त्र-दोष-प्रमोचनीं ग्रह-दोष निवारिणीम् ।।
अधुनाऽहं प्रवक्ष्यामि बगलायाः सुदुर्लभम् ।
यस्य पठन मात्रेण पवनोपि स्थिरायते ।।
प्रत्यंगिरां तां देवेशि श्रृणुष्व कमलानने ।
यस्य स्मरण मात्रेण शत्रवो विलयं गताः ।।
।। श्री देव्युवाच ।।
स्नेहोऽस्ति यदि मे नाथ संसारार्णव तारक ।
तथा कथय मां शम्भो बगलाप्रत्यंगिरा मम ।।
।। श्री भैरव उवाच ।।
यं यं प्रार्थयते मन्त्री हठात्तंतमवाप्नुयात् ।
विद्वेषणाकर्षणे च स्तम्भनं वैरिणां विभो ।।
उच्चाटनं मारणं च येन कर्तुं क्षमो भवेत् ।
तत्सर्वं ब्रूहि मे देव यदि मां दयसे हर ।।
।। श्री सदाशिव उवाच ।।
अधुना हि महादेवि परानिष्ठा मतिर्भवेत् ।
अतएव महेशानि किंचिन्न वक्तुतुमर्हसि ।।
।। श्री पार्वत्युवाच ।।
जिघान्सन्तं तेन ब्रह्महा भवेत् ।
श्रृतिरेषाहि गिरिश कथं मां त्वं निनिन्दसि ।।
।। श्री शिव उवाच ।।
साधु साधु प्रवक्ष्यामि श्रृणुष्वावहितानघे ।
प्रत्यंगिरां बगलायाः सर्वशत्रुनिवारिणीम् ।।
नाशिनीं सर्व-दुष्टानां सर्व-पापौघ-हारिणिम् ।
सर्व-प्राणि-हितां देवीं सर्व दुःख विनाशिनीम् ।।
भोगदां मोक्षदां चैव राज्य सौभाग्य दायिनीम् ।
मन्त्र-दोष-प्रमोचनीं ग्रह-दोष निवारिणीम् ।।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीबगला प्रत्यंगिरा मन्त्रस्य नारद ऋषिस्त्रिष्टुप् छन्दः, प्रत्यंगिरा देवता, ह्लीं बीजं, हुं शक्तिः, ह्रीं कीलकं, ह्लीं ह्लीं ह्लीं ह्लीं प्रत्यंगिरा मम शत्रु विनाशे विनियोगः ।
ॐ प्रत्यंगिरायै नमः । प्रत्यंगिरे सकल कामान् साधय मम रक्षां कुरु-कुरु सर्वान् शत्रून् खादय खादय मारय मारय घातय घातय ॐ ह्रीं फट् स्वाहा ।
ॐ भ्रामरी स्तम्भिनी देवी क्षोभिणी-मोहिनी तथा ।
संहारिणी द्राविणी च जृम्भिणी रौद्र-रुपिणी ।।
इत्यष्टौ शक्तयो देवि शत्रु पक्षे नियोजिताः ।
धारयेत् कणऽठदेशे च सर्वशत्रु विनाशिनी ।।
ॐ ह्रीं भ्रामरि सर्व-शत्रून् भ्रामय-भ्रामय ॐ ह्रीं स्वाहा । ॐ ह्रीं स्तम्भिनी मम शत्रून् स्तम्भय-स्तम्भय ॐ ह्रीं स्वाहा । ॐ ह्रीं क्षोभिणी मम शत्रून् क्षोभय-क्षोभय ॐ ह्रीं स्वाहा । ॐ ह्रीं मोहिनी मम शत्रून्मोहय मोहय ॐ ह्रीं स्वाहा । ॐ ह्रीं संहारिणि मम शत्रून् संहारय संहारय ॐ ह्रीं स्वाहा । ॐ ह्रीं द्राविणि मम शत्रून् द्रावय द्रावय ॐ ह्रीं स्वाहा । ॐ ह्रीं जृम्भिणि मम शत्रून् जृम्भय जृम्भय ॐ ह्रीं स्वाहा । ॐ ह्रीं रौद्रि मम शत्रून् सन्तापय सन्तापय ॐ ह्रीं स्वाहा ।इयं विद्या महा-विद्या सर्व-शत्रु-निवारिणी ।
धारिता साधकेन्द्रेण सर्वान् दुष्टान् विनाशयेत् ।।
त्रि-सन्ध्यमेक-सन्धऽयं वा यः पठेत्स्थिरमानसः ।
न तस्य दुर्लभं लोके कल्पवृक्ष इव स्थितः ।।
यं य स्पृशति हस्तेन यं यं पश्यति चक्षुषा ।
स एव दासतां याति सारात्सारामिमं मनुम् ।।
।। श्री रुद्रयामले शिव-पार्वति सम्वादे बगला प्रत्यंगिरा कवचम् ।।
ॐ प्रत्यंगिरायै नमः । प्रत्यंगिरे सकल कामान् साधय मम रक्षां कुरु-कुरु सर्वान् शत्रून् खादय खादय मारय मारय घातय घातय ॐ ह्रीं फट् स्वाहा ।
ॐ भ्रामरी स्तम्भिनी देवी क्षोभिणी-मोहिनी तथा ।
संहारिणी द्राविणी च जृम्भिणी रौद्र-रुपिणी ।।
इत्यष्टौ शक्तयो देवि शत्रु पक्षे नियोजिताः ।
धारयेत् कणऽठदेशे च सर्वशत्रु विनाशिनी ।।
ॐ ह्रीं भ्रामरि सर्व-शत्रून् भ्रामय-भ्रामय ॐ ह्रीं स्वाहा । ॐ ह्रीं स्तम्भिनी मम शत्रून् स्तम्भय-स्तम्भय ॐ ह्रीं स्वाहा । ॐ ह्रीं क्षोभिणी मम शत्रून् क्षोभय-क्षोभय ॐ ह्रीं स्वाहा । ॐ ह्रीं मोहिनी मम शत्रून्मोहय मोहय ॐ ह्रीं स्वाहा । ॐ ह्रीं संहारिणि मम शत्रून् संहारय संहारय ॐ ह्रीं स्वाहा । ॐ ह्रीं द्राविणि मम शत्रून् द्रावय द्रावय ॐ ह्रीं स्वाहा । ॐ ह्रीं जृम्भिणि मम शत्रून् जृम्भय जृम्भय ॐ ह्रीं स्वाहा । ॐ ह्रीं रौद्रि मम शत्रून् सन्तापय सन्तापय ॐ ह्रीं स्वाहा ।इयं विद्या महा-विद्या सर्व-शत्रु-निवारिणी ।
धारिता साधकेन्द्रेण सर्वान् दुष्टान् विनाशयेत् ।।
त्रि-सन्ध्यमेक-सन्धऽयं वा यः पठेत्स्थिरमानसः ।
न तस्य दुर्लभं लोके कल्पवृक्ष इव स्थितः ।।
यं य स्पृशति हस्तेन यं यं पश्यति चक्षुषा ।
स एव दासतां याति सारात्सारामिमं मनुम् ।।
।। श्री रुद्रयामले शिव-पार्वति सम्वादे बगला प्रत्यंगिरा कवचम् ।।
श्री बगला प्राकट्य
शिव के सम्मुख पार्वती, धर कर बोली माथ ।
बगला की उत्पत्ति की, कथा सुनाओ नाथ ! ।।।। शिव उवाच ।।
कृत-युग के पहिले भुतल पर, वात-क्षोभ-हिन्दोल उठा ।
ध्रुव तारा हिल गया अचानक, जड़-चेतन भू डोल उठा ।।
प्रकृति पुरातन की शाखा के, नखत नीड़-सम टूट गए ।
सूरज-चन्दा की किस्मत को, तम-चर आकर लूट गए ।।
शिव के सम्मुख पार्वती, धर कर बोली माथ ।
बगला की उत्पत्ति की, कथा सुनाओ नाथ ! ।।।। शिव उवाच ।।
कृत-युग के पहिले भुतल पर, वात-क्षोभ-हिन्दोल उठा ।
ध्रुव तारा हिल गया अचानक, जड़-चेतन भू डोल उठा ।।
प्रकृति पुरातन की शाखा के, नखत नीड़-सम टूट गए ।
सूरज-चन्दा की किस्मत को, तम-चर आकर लूट गए ।।
प्रलय-काल का दृश्य चतुर्दिक, दीख पड़ा जगती-तल में ।
डूब गए हिम-गिरि-सम पर्वत, महा-सागरों के जल में ।।
महाऽऽकाश के महा-उदर में, तत्त्व सभी लय होते थे ।
इन्द्रादिक सुर काँप-काँप कर, भय-विह्वल हो रोते थे ।।
डूब गए हिम-गिरि-सम पर्वत, महा-सागरों के जल में ।।
महाऽऽकाश के महा-उदर में, तत्त्व सभी लय होते थे ।
इन्द्रादिक सुर काँप-काँप कर, भय-विह्वल हो रोते थे ।।
करुणा से भर गए विष्णु भी, चिन्तन में लव-लीन हुए ।
तप करते वर्षों तक, नारायण अति क्षीण हुए ।।
सौराष्ट्र देश में निकट सरोवर, त्रिपुर-सुन्दरी प्रकट हुईं ।
मातृ-शक्ति को देख विष्णु की, आँखें श्रद्धा-विनत हुईं ।।
तप करते वर्षों तक, नारायण अति क्षीण हुए ।।
सौराष्ट्र देश में निकट सरोवर, त्रिपुर-सुन्दरी प्रकट हुईं ।
मातृ-शक्ति को देख विष्णु की, आँखें श्रद्धा-विनत हुईं ।।
‘मा भैः’ कहकर त्रिपुरा ने, बगला का तब अवतार लिया ।
करुणा – पूरित नयना ने, जड़ – चेतन का उद्धार किया ।।
पीताम्बर-धारिणी माया की, यह विख्यात कहानी है ।
स्तम्भन-शक्ति-स्वरुपा बगला माता, स्वयं भवानी है ।।
करुणा – पूरित नयना ने, जड़ – चेतन का उद्धार किया ।।
पीताम्बर-धारिणी माया की, यह विख्यात कहानी है ।
स्तम्भन-शक्ति-स्वरुपा बगला माता, स्वयं भवानी है ।।
मंगलवार चतुर्दशी, ‘वीर-रात्रि’ विख्यात ।
कुल-नक्षत्र मकार में, प्रकटीं बगला मात ।।
कुल-नक्षत्र मकार में, प्रकटीं बगला मात ।।
श्री बगला दिग्बंधन रक्षा स्तोत्रम्
ब्रह्मास्त्र प्रवक्ष्यामि बगलां नारदसेविताम् ।
देवगन्धर्वयक्षादि सेवितपादपंकजाम् ।।
त्रैलोक्य-स्तम्भिनी विद्या सर्व-शत्रु-वशंकरी आकर्षणकरी उच्चाटनकरी विद्वेषणकरी जारणकरी मारणकरी जृम्भणकरी स्तम्भनकरी ब्रह्मास्त्रेण सर्व-वश्यं कुरु कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्लां द्राविणि-द्राविणि भ्रामिणि एहि एहि सर्वभूतान् उच्चाटय-उच्चाटय सर्व-दुष्टान निवारय-निवारय भूत प्रेत पिशाच डाकिनी शाकिनीः छिन्धि-छिन्धि खड्गेन भिन्धि-भिन्धि मुद्गरेण संमारय संमारय, दुष्टान् भक्षय-भक्षय, ससैन्यं भुपर्ति कीलय कीलय मुखस्तम्भनं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
आत्मा रक्षा ब्रह्म रक्षा विष्णु रक्षा रुद्र रक्षा इन्द्र रक्षा अग्नि रक्षा यम रक्षा नैऋत रक्षा वरुण रक्षा वायु रक्षा कुबेर रक्षा ईशान रक्षा सर्व रक्षा भुत-प्रेत-पिशाच-डाकिनी-शाकिनी रक्षा अग्नि-वैताल रक्षा गण गन्धर्व रक्षा तस्मात् सर्व-रक्षा कुरु-कुरु, व्याघ्र-गज-सिंह रक्षा रणतस्कर रक्षा तस्मात् सर्व बन्धयामि ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्लीं भो बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्लीं ॐ स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं बगलामुखि एहि-एहि पूर्वदिशायां बन्धय बन्धय इन्द्रस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय इन्द्रशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं पीताम्बरे एहि-एहि अग्निदिशायां बन्धय बन्धय अग्निमुखं स्तम्भय स्तम्भय अग्निशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं अग्निस्तम्भं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं महिषमर्दिनि एहि-एहि दक्षिणदिशायां बन्धय बन्धय यमस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय यमशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं हृज्जृम्भणं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं चण्डिके एहि-एहि नैऋत्यदिशायां बन्धय बन्धय नैऋत्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय नैऋत्यशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं करालनयने एहि-एहि पश्चिमदिशायां बन्धय बन्धय वरुण मुखं स्तम्भय स्तम्भय वरुणशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं कालिके एहि-एहि वायव्यदिशायां बन्धय बन्धय वायु मुखं स्तम्भय स्तम्भय वायुशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं महा-त्रिपुर-सुन्दरि एहि-एहि उत्तरदिशायां बन्धय बन्धय कुबेर मुखं स्तम्भय स्तम्भय कुबेरशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं महा-भैरवि एहि-एहि ईशानदिशायां बन्धय बन्धय ईशान मुखं स्तम्भय स्तम्भय ईशानशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं गांगेश्वरि एहि-एहि ऊर्ध्वदिशायां बन्धय बन्धय ब्रह्माणं चतुर्मुखं मुखं स्तम्भय स्तम्भय ब्रह्मशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ललितादेवि एहि-एहि अन्तरिक्ष दिशायां बन्धय बन्धय विष्णु मुखं स्तम्भय स्तम्भय विष्णुशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं चक्रधारिणि एहि-एहि अधो दिशायां बन्धय बन्धय वासुकि मुखं स्तम्भय स्तम्भय वासुकिशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
दुष्टमन्त्रं दुष्टयन्त्रं दुष्टपुरुषं बन्धयामि शिखां बन्ध ललाटं बन्ध भ्रुवौ बन्ध नेत्रे बन्ध कर्णौ बन्ध नसौ बन्ध ओष्ठौ बन्ध अधरौ बन्ध जिह्वा बन्ध रसनां बन्ध बुद्धिं बन्ध कण्ठं बन्ध हृदयं बन्ध कुक्षिं बन्ध हस्तौ बन्ध नाभिं बन्ध लिंगं बन्ध गुह्यं बन्ध ऊरू बन्ध जानू बन्ध हंघे बन्ध गुल्फौ बन्ध पादौ बन्ध स्वर्ग मृत्यु पातालं बन्ध बन्ध रक्ष रक्ष ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि इन्द्राय सुराधिपतये ऐरावतवाहनाय स्वेतवर्णाय वज्रहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् निरासय निरासय विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि अग्नये तेजोधिपतये छागवाहनाय रक्तवर्णाय शक्तिहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि यमाय प्रेताधिपतये महिषवाहनाय कृष्णवर्णाय दण्डहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि वरूणाय जलाधिपतये मकरवाहनाय श्वेतवर्णाय पाशहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि वायव्याय मृगवाहनाय धूम्रवर्णाय ध्वजाहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि ईशानाय भूताधिपतये वृषवाहनाय कर्पूरवर्णाय त्रिशूलहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि ब्रह्मणे ऊर्ध्वदिग्लोकपालाधिपतये हंसवाहनाय श्वेतवर्णाय कमण्डलुहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि वैष्णवीसहिताय नागाधिपतये गरुडवाहनाय श्यामवर्णाय चक्रहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि रविमण्डलमध्याद् अवतर अवतर सान्निध्यं कुरु-कुरु । ॐ ऐं परमेश्वरीम् आवाहयामि नमः । मम सान्निध्यं कुरु कुरु । ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः बगले चतुर्भुजे मुद्गरशरसंयुक्ते दक्षिणे जिह्वावज्रसंयुक्ते वामे श्रीमहाविद्ये पीतवस्त्रे पञ्चमहाप्रेताधिरुढे सिद्धविद्याधरवन्दिते ब्रह्म-विष्णु-रुद्र-पूजिते आनन्द-सवरुपे विश्व-सृष्टि-स्वरुपे महा-भैरव-रुप धारिणि स्वर्ग-मृत्यु-पाताल-स्तम्भिनी वाममार्गाश्रिते श्रीबगले ब्रह्म-विष्णु-रुद्र-रुप-निर्मिते षोडश-कला-परिपूरिते दानव-रुप सहस्रादित्य-शोभिते त्रिवर्णे एहि एहि मम हृदयं प्रवेशय प्रवेशय शत्रुमुखं स्तम्भय स्तम्भय अन्य-भूत-पिशाचान् खादय-खादय अरि-सैन्यं विदारय-विदारय पर-विद्यां पर-चक्रं छेदय-छेदय वीरचक्रं धनुषां संभारय-संभारय त्रिशूलेन् छिन्ध-छिन्धि पाशेन् बन्धय-बन्धय भूपतिं वश्यं कुरु-कुरु सम्मोहय-सम्मोहय विना जाप्येन सिद्धय-सिद्धय विना मन्त्रेण सिद्धि कुरु-कुरु सकलदुष्टान् घातय-घातय मम त्रैलोक्यं वश्यं कुरु-कुरु सकल-कुल-राक्षसान् दह-दह पच-पच मथ-मथ हन-हन मर्दय-मर्दय मारय-मारय भक्षय-भक्षय मां रक्ष-रक्ष विस्फोटकादीन् नाशय-नाशय ॐ ह्लीं विष-ज्वरं नाशय-नाशय विषं निर्विषं कुरु-कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ क्लीं क्लीं ह्लीं बगलामुखि सर्व-दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय स्तम्भय जिह्वां कीलय कीलय बुद्धिं विनाशय विनाशय क्लीं क्लीं ह्लीं स्वाहा ।
ॐ बगलामुखि स्वाहा । ॐ पीताम्बरे स्वाहा । ॐ त्रिपुरभैरवि स्वाहा । ॐ विजयायै स्वाहा । ॐ जयायै स्वाहा । ॐ शारदायै स्वाहा । ॐ सुरेश्वर्यै स्वाहा । ॐ रुद्राण्यै स्वाहा । ॐ विन्ध्यवासिन्यै स्वाहा । ॐ त्रिपुरसुन्दर्यै स्वाहा । ॐ दुर्गायै स्वाहा । ॐ भवान्यै स्वाहा । ॐ भुवनेश्वर्यै स्वाहा । ॐ महा-मायायै स्वाहा । ॐ कमल-लोचनायै स्वाहा । ॐ तारायै स्वाहा । ॐ योगिन्यै स्वाहा । ॐ कौमार्यै स्वाहा । ॐ शिवायै स्वाहा । ॐ इन्द्राण्यै स्वाहा । ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्लीं शिव-तत्त्व-व्यापिनि बगलामुखि स्वाहा । ॐ ह्लीं माया-तत्त्व-व्यापिनि बगलामुखि हृदयाय स्वाहा । ॐ ह्लीं विद्या-तत्त्व-व्यापिनि बगलामुखि शिरसे स्वाहा । ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः शिरो रक्षतु बगलामुखि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः भालं रक्षतु पीताम्बरे रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः नेत्रे रक्षतु महा-भैरवि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः कर्णौ रक्षतु विजये रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः नसौ रक्षतु जये रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः वदनं रक्षतु शारदे विन्ध्यवासिनि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः बाहू त्रिपुर-सुन्दरि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः करौ रक्षतु दुर्गे रक्ष रक्ष स्वाहा ।
ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः हृदयं रक्षतु भवानी रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः उदरं रक्षतु भुवनेश्वरि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः नाभिं रक्षतु महामाये रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः कटिं रक्षतु कमललोचने रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः उदरं रक्षतु तारे रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः सर्वांगं रक्षतु महातारे रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः अग्रे रक्षतु योगिनि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः पृष्ठे रक्षतु कौमारि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः दक्षिणपार्श्वे रक्षतु शिवे रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः वामपार्श्वे रक्षतु इन्द्राणि रक्ष रक्ष स्वाहा ।
ॐ गं गां गूं गैं गौं गः गणपतये सर्वजनमुखस्तम्भनाय आगच्छ आगच्छ मम विघ्नान् नाशय नाशय दुष्टं खादय खादय दुष्टस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय अकालमृत्युं हन हन भो गणाधिपते ॐ ह्लीम वश्यं कुरु कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
अष्टौ ब्राह्मणान् ग्राहयित्वा सिद्धिर्भवति नान्यथा ।
भ्रूयुग्मं तु पठेत नात्र कार्यं संख्याविचारणम् ।।
यन्त्रिणां बगला राज्ञी सुराणां बगलामुखि ।
शूराणां बगलेश्वरी ज्ञानिनां मोक्षदायिनी ।।
एतत् स्तोत्रं पठेन् नित्यं त्रिसन्ध्यं बगलामुखि ।
विना जाप्येन सिद्धयेत साधकस्य न संशयः ।।
निशायां पायसतिलाज्यहोमं नित्यं तु कारयेत् ।
सिद्धयन्ति सर्वकार्याणि देवी तुष्टा सदा भवेत् ।।
मासमेकं पठेत् नित्यं त्रैलोक्ये चातिदुर्लभम् ।
सर्व-सिद्धिमवाप्नोति देव्या लोकं स गच्छति ।।
।। श्री बगलामुखिकल्पे वीरतन्त्रे बगलासिद्धिप्रयोगः ।।
देवगन्धर्वयक्षादि सेवितपादपंकजाम् ।।
त्रैलोक्य-स्तम्भिनी विद्या सर्व-शत्रु-वशंकरी आकर्षणकरी उच्चाटनकरी विद्वेषणकरी जारणकरी मारणकरी जृम्भणकरी स्तम्भनकरी ब्रह्मास्त्रेण सर्व-वश्यं कुरु कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्लां द्राविणि-द्राविणि भ्रामिणि एहि एहि सर्वभूतान् उच्चाटय-उच्चाटय सर्व-दुष्टान निवारय-निवारय भूत प्रेत पिशाच डाकिनी शाकिनीः छिन्धि-छिन्धि खड्गेन भिन्धि-भिन्धि मुद्गरेण संमारय संमारय, दुष्टान् भक्षय-भक्षय, ससैन्यं भुपर्ति कीलय कीलय मुखस्तम्भनं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
आत्मा रक्षा ब्रह्म रक्षा विष्णु रक्षा रुद्र रक्षा इन्द्र रक्षा अग्नि रक्षा यम रक्षा नैऋत रक्षा वरुण रक्षा वायु रक्षा कुबेर रक्षा ईशान रक्षा सर्व रक्षा भुत-प्रेत-पिशाच-डाकिनी-शाकिनी रक्षा अग्नि-वैताल रक्षा गण गन्धर्व रक्षा तस्मात् सर्व-रक्षा कुरु-कुरु, व्याघ्र-गज-सिंह रक्षा रणतस्कर रक्षा तस्मात् सर्व बन्धयामि ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्लीं भो बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्लीं ॐ स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं बगलामुखि एहि-एहि पूर्वदिशायां बन्धय बन्धय इन्द्रस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय इन्द्रशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं पीताम्बरे एहि-एहि अग्निदिशायां बन्धय बन्धय अग्निमुखं स्तम्भय स्तम्भय अग्निशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं अग्निस्तम्भं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं महिषमर्दिनि एहि-एहि दक्षिणदिशायां बन्धय बन्धय यमस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय यमशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं हृज्जृम्भणं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं चण्डिके एहि-एहि नैऋत्यदिशायां बन्धय बन्धय नैऋत्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय नैऋत्यशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं करालनयने एहि-एहि पश्चिमदिशायां बन्धय बन्धय वरुण मुखं स्तम्भय स्तम्भय वरुणशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं कालिके एहि-एहि वायव्यदिशायां बन्धय बन्धय वायु मुखं स्तम्भय स्तम्भय वायुशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं महा-त्रिपुर-सुन्दरि एहि-एहि उत्तरदिशायां बन्धय बन्धय कुबेर मुखं स्तम्भय स्तम्भय कुबेरशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं महा-भैरवि एहि-एहि ईशानदिशायां बन्धय बन्धय ईशान मुखं स्तम्भय स्तम्भय ईशानशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं गांगेश्वरि एहि-एहि ऊर्ध्वदिशायां बन्धय बन्धय ब्रह्माणं चतुर्मुखं मुखं स्तम्भय स्तम्भय ब्रह्मशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ललितादेवि एहि-एहि अन्तरिक्ष दिशायां बन्धय बन्धय विष्णु मुखं स्तम्भय स्तम्भय विष्णुशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं चक्रधारिणि एहि-एहि अधो दिशायां बन्धय बन्धय वासुकि मुखं स्तम्भय स्तम्भय वासुकिशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
दुष्टमन्त्रं दुष्टयन्त्रं दुष्टपुरुषं बन्धयामि शिखां बन्ध ललाटं बन्ध भ्रुवौ बन्ध नेत्रे बन्ध कर्णौ बन्ध नसौ बन्ध ओष्ठौ बन्ध अधरौ बन्ध जिह्वा बन्ध रसनां बन्ध बुद्धिं बन्ध कण्ठं बन्ध हृदयं बन्ध कुक्षिं बन्ध हस्तौ बन्ध नाभिं बन्ध लिंगं बन्ध गुह्यं बन्ध ऊरू बन्ध जानू बन्ध हंघे बन्ध गुल्फौ बन्ध पादौ बन्ध स्वर्ग मृत्यु पातालं बन्ध बन्ध रक्ष रक्ष ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि इन्द्राय सुराधिपतये ऐरावतवाहनाय स्वेतवर्णाय वज्रहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् निरासय निरासय विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि अग्नये तेजोधिपतये छागवाहनाय रक्तवर्णाय शक्तिहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि यमाय प्रेताधिपतये महिषवाहनाय कृष्णवर्णाय दण्डहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि वरूणाय जलाधिपतये मकरवाहनाय श्वेतवर्णाय पाशहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि वायव्याय मृगवाहनाय धूम्रवर्णाय ध्वजाहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि ईशानाय भूताधिपतये वृषवाहनाय कर्पूरवर्णाय त्रिशूलहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि ब्रह्मणे ऊर्ध्वदिग्लोकपालाधिपतये हंसवाहनाय श्वेतवर्णाय कमण्डलुहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि वैष्णवीसहिताय नागाधिपतये गरुडवाहनाय श्यामवर्णाय चक्रहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि रविमण्डलमध्याद् अवतर अवतर सान्निध्यं कुरु-कुरु । ॐ ऐं परमेश्वरीम् आवाहयामि नमः । मम सान्निध्यं कुरु कुरु । ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः बगले चतुर्भुजे मुद्गरशरसंयुक्ते दक्षिणे जिह्वावज्रसंयुक्ते वामे श्रीमहाविद्ये पीतवस्त्रे पञ्चमहाप्रेताधिरुढे सिद्धविद्याधरवन्दिते ब्रह्म-विष्णु-रुद्र-पूजिते आनन्द-सवरुपे विश्व-सृष्टि-स्वरुपे महा-भैरव-रुप धारिणि स्वर्ग-मृत्यु-पाताल-स्तम्भिनी वाममार्गाश्रिते श्रीबगले ब्रह्म-विष्णु-रुद्र-रुप-निर्मिते षोडश-कला-परिपूरिते दानव-रुप सहस्रादित्य-शोभिते त्रिवर्णे एहि एहि मम हृदयं प्रवेशय प्रवेशय शत्रुमुखं स्तम्भय स्तम्भय अन्य-भूत-पिशाचान् खादय-खादय अरि-सैन्यं विदारय-विदारय पर-विद्यां पर-चक्रं छेदय-छेदय वीरचक्रं धनुषां संभारय-संभारय त्रिशूलेन् छिन्ध-छिन्धि पाशेन् बन्धय-बन्धय भूपतिं वश्यं कुरु-कुरु सम्मोहय-सम्मोहय विना जाप्येन सिद्धय-सिद्धय विना मन्त्रेण सिद्धि कुरु-कुरु सकलदुष्टान् घातय-घातय मम त्रैलोक्यं वश्यं कुरु-कुरु सकल-कुल-राक्षसान् दह-दह पच-पच मथ-मथ हन-हन मर्दय-मर्दय मारय-मारय भक्षय-भक्षय मां रक्ष-रक्ष विस्फोटकादीन् नाशय-नाशय ॐ ह्लीं विष-ज्वरं नाशय-नाशय विषं निर्विषं कुरु-कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ क्लीं क्लीं ह्लीं बगलामुखि सर्व-दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय स्तम्भय जिह्वां कीलय कीलय बुद्धिं विनाशय विनाशय क्लीं क्लीं ह्लीं स्वाहा ।
ॐ बगलामुखि स्वाहा । ॐ पीताम्बरे स्वाहा । ॐ त्रिपुरभैरवि स्वाहा । ॐ विजयायै स्वाहा । ॐ जयायै स्वाहा । ॐ शारदायै स्वाहा । ॐ सुरेश्वर्यै स्वाहा । ॐ रुद्राण्यै स्वाहा । ॐ विन्ध्यवासिन्यै स्वाहा । ॐ त्रिपुरसुन्दर्यै स्वाहा । ॐ दुर्गायै स्वाहा । ॐ भवान्यै स्वाहा । ॐ भुवनेश्वर्यै स्वाहा । ॐ महा-मायायै स्वाहा । ॐ कमल-लोचनायै स्वाहा । ॐ तारायै स्वाहा । ॐ योगिन्यै स्वाहा । ॐ कौमार्यै स्वाहा । ॐ शिवायै स्वाहा । ॐ इन्द्राण्यै स्वाहा । ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्लीं शिव-तत्त्व-व्यापिनि बगलामुखि स्वाहा । ॐ ह्लीं माया-तत्त्व-व्यापिनि बगलामुखि हृदयाय स्वाहा । ॐ ह्लीं विद्या-तत्त्व-व्यापिनि बगलामुखि शिरसे स्वाहा । ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः शिरो रक्षतु बगलामुखि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः भालं रक्षतु पीताम्बरे रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः नेत्रे रक्षतु महा-भैरवि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः कर्णौ रक्षतु विजये रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः नसौ रक्षतु जये रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः वदनं रक्षतु शारदे विन्ध्यवासिनि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः बाहू त्रिपुर-सुन्दरि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः करौ रक्षतु दुर्गे रक्ष रक्ष स्वाहा ।
ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः हृदयं रक्षतु भवानी रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः उदरं रक्षतु भुवनेश्वरि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः नाभिं रक्षतु महामाये रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः कटिं रक्षतु कमललोचने रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः उदरं रक्षतु तारे रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः सर्वांगं रक्षतु महातारे रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः अग्रे रक्षतु योगिनि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः पृष्ठे रक्षतु कौमारि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः दक्षिणपार्श्वे रक्षतु शिवे रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः वामपार्श्वे रक्षतु इन्द्राणि रक्ष रक्ष स्वाहा ।
ॐ गं गां गूं गैं गौं गः गणपतये सर्वजनमुखस्तम्भनाय आगच्छ आगच्छ मम विघ्नान् नाशय नाशय दुष्टं खादय खादय दुष्टस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय अकालमृत्युं हन हन भो गणाधिपते ॐ ह्लीम वश्यं कुरु कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
अष्टौ ब्राह्मणान् ग्राहयित्वा सिद्धिर्भवति नान्यथा ।
भ्रूयुग्मं तु पठेत नात्र कार्यं संख्याविचारणम् ।।
यन्त्रिणां बगला राज्ञी सुराणां बगलामुखि ।
शूराणां बगलेश्वरी ज्ञानिनां मोक्षदायिनी ।।
एतत् स्तोत्रं पठेन् नित्यं त्रिसन्ध्यं बगलामुखि ।
विना जाप्येन सिद्धयेत साधकस्य न संशयः ।।
निशायां पायसतिलाज्यहोमं नित्यं तु कारयेत् ।
सिद्धयन्ति सर्वकार्याणि देवी तुष्टा सदा भवेत् ।।
मासमेकं पठेत् नित्यं त्रैलोक्ये चातिदुर्लभम् ।
सर्व-सिद्धिमवाप्नोति देव्या लोकं स गच्छति ।।
।। श्री बगलामुखिकल्पे वीरतन्त्रे बगलासिद्धिप्रयोगः ।।
ब्रह्मास्त्र महा-विद्या श्रीबगला स्तोत्र
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीब्रह्मास्त्र-महा-विद्या-श्रीबगला-मुखी स्तोत्रस्य श्रीनारद ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः, श्री बगला-मुखी देवता, मम सन्निहिता-नामसन्निहितानां विरोधिनां दुष्टानां वाङ्मुख-बुद्धिनां स्तम्भनार्थं श्रीमहा-माया-बगला मुखी-वर-प्रसाद सिद्धयर्थं जपे (पाठे) विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- श्रीनारद ऋषये नमः शिरसि, त्रिष्टुप छन्दसे नमः मुखे, श्री बगला-मुखी देवतायै नमः हृदि, मम सन्निहिता-नामसन्निहितानां विरोधिनां दुष्टानां वाङ्मुख-बुद्धिनां स्तम्भनार्थं श्रीमहा-माया-बगला मुखी-वर-प्रसाद सिद्धयर्थं जपे (पाठे) विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
ऋष्यादि-न्यासः- श्रीनारद ऋषये नमः शिरसि, त्रिष्टुप छन्दसे नमः मुखे, श्री बगला-मुखी देवतायै नमः हृदि, मम सन्निहिता-नामसन्निहितानां विरोधिनां दुष्टानां वाङ्मुख-बुद्धिनां स्तम्भनार्थं श्रीमहा-माया-बगला मुखी-वर-प्रसाद सिद्धयर्थं जपे (पाठे) विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास | कर-न्यास | अंग-न्यास |
ॐ ह्लीं | अंगुष्ठाभ्यां नमः | हृदयाय नमः |
ॐ बगलामुखि | तर्जनीभ्यां नमः | शिरसे स्वाहा |
ॐ सर्व-दुष्टानां | मध्यमाभ्यां नमः | शिखायै वषट् |
ॐ वाचं मुखं पदं स्तम्भय | अनामिकाभ्यां नमः | कवचाय हुं |
ॐ जिह्वां कीलय | कनिष्ठिकाभ्यां नमः | नेत्र-त्रयाय वौषट् |
ॐ बुद्धिं विनाशय ह्लीं ॐ स्वाहा | करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः | अस्त्राय फट् |
ध्यानः- हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे -
सौवर्णासन संस्थिता त्रिनयनां पीतांशुकोल्लासिनीम्,
हेमाभांगरुचिं शशांक मुकुटां सच्चम्पक स्रग्युताम् ।
हस्तैर्मुद्गर पाश वज्र रसनाः संबिभ्रतीं भूषणैर्व्याप्तांगीं,
बगलामुखीं त्रिजगतां संस्तम्भिनीं चिन्तयेत् ।।
जप मन्त्रः-
|| ॐ ह्ल्रीं (ह्लीं) बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्ल्रीं (ह्लीं) ॐ स्वाहा ||
।। स्तोत्रम ।।
मध्ये सुधाब्धि-मणि-मण्डप-रत्न-वेद्यां, सिंहासनो-परि-गतां परिपीत-वर्णाम् ।
पीताम्बराभरण-माल्य-विभूषितांगीं, देवीं स्मरामि धृत-मुद्-गर-वैरि-जिह्वाम् ।। १ ।।
जिह्वाग्रमादाय करेण देवीं, वामेन शत्रून् परि-पीडयन्तीम् ।
गदाभिघातेन च दक्षिणेन, पीताम्बराढ्यां द्विभुजां नमामि ।। २ ।।
त्रिशूल-धारिणीमम्बां सर्वसौभाग्यदायिनीम् ।
सर्वश्रृंगारवेशाढ्यां देवीं ध्यात्वा प्रपूजयेत् ।। ३ ।।
पीतवस्त्रां त्रिनेत्रां च द्विभुजां हाटकोज्ज्वलाम् ।
शिलापर्वतहस्तां च स्मरेत् तां बगलामुखीम् ।। ४ ।।
रिपुजिह्वां देवीं पीतपुष्पविभूषिताम् ।
वैरिनिर्दलनार्थाय स्मरेत् तां बगलामुखीम् ।। ५ ।।
गम्भीरा च मदोन्मत्तां स्वर्ण-कान्ति-समप्रभाम् ।
चतुर्भुजां त्रिनेत्रां च कमलासन-संस्थिताम् ।। ६ ।।
मुद्गरं दक्षिणे पाशं वामे जिह्वां च वज्रकम् ।
पीताम्बरधरां सान्द्र-दृढ़-पीन-पयोधराम् ।। ७ ।।
हेम-कुण्डल-भूषां च पीत चन्द्रार्द्ध-शेखरां ।
पीत-भूषण-पीतांगीं स्वर्ण-सिंहासने स्थिताम् ।। ८ ।।
एवं ध्यात्वा जपेत् स्तोत्रमेकाग्रकृतमानसः ।
सर्व-सिद्धिमवाप्नोति मन्त्र-ध्यानपुरः सरम् ।। ९ ।।
आराध्या जगदम्ब दिव्यकविभिः सामाजिकैः स्तोतृभिः ।
माल्यैश्चन्दन-कुंकुमैः परिमलैरभ्यर्चिता सादरात् ।।
सम्यङ्न्यासिसमस्तभूतनिवहे सौभाग्यशोभाप्रदे ।
श्रीमुग्धे बगले प्रसीद विमले दुःखापहे पाहि माम् ।। १० ।।
आनन्दकारिणी देवी रिपुस्तम्भनकारिणी ।
मदनोन्मादिनी चैव प्रीतिस्तम्भनकारिणी ।। ११ ।।
महाविद्या महामाया साधकस्य फलप्रदा ।
यस्याः स्मरणमात्रेण त्रैलोक्यं स्तम्भयेत् क्षणात् ।। १२ ।।
वामे पाशांकुशौ शक्तिं तस्याधस्ताद् वरं शुभम् ।
दक्षिणे क्रमतो वज्रं गदा-जिह्वाऽँयानि च ।। १३ ।।
विभ्रतीं संसमरेन्नित्यं पीतमाल्यानुलेपनाम् ।
पीताम्बरधरां देवीं ब्रह्मादिसुरवन्दिताम् ।। १४ ।।
केयूरांगदकुण्डलभूषां बालार्कद्युतिरञ्जितवेषाम् ।
तरुणादित्यसमानप्रतिमां कौशेययांशुकबद्धनितम्बाम् ।। १५ ।।
कल्पद्रुमतलनिहितशिलायां प्रमुदितचित्तौल्लासदलकान्ताम् ।
पञ्चप्रेतनिकेतनबद्धां भक्तजनेभ्यो वितरणशीलाम् ।। १६ ।।
एवं विधां तां बगलां ध्यात्वा मनसि साधकः ।
सर्व-सम्पत् समृद्धयर्थं स्तोत्रमेतदुदीरयेत् ।। १७ ।।
चलत्-कनक-कुण्डलोल्लसित-चारु-गण्ड-स्थलाम् ।
लसत्-कनक-चम्पक-द्युतिमदिन्दु-बिम्बाननाम् ।।
गदा-हत-विपक्षकां कलित-लोल-जिह्वां चलाम् ।
स्मरामि बगला-मुखीं विमुख-वाङ्-मनस-स्तम्भिनीम् ।। १८ ।।
पीयूषोदधि-मध्य-चारु-विलसद्-रत्नोज्जवले मण्डपे ।
तत्-सिंहासन-मूल-पातित-रिपुं प्रेतासनाध्यासिनीम् ।।
स्वर्णाभां कर-पीडितारि-रसनां भ्राम्यद् गदां विभ्रमाम् ।
यस्त्वां ध्यायति यान्ति तस्य विलयं सद्योऽथ सर्वापदः ।। १९ ।।
देवि ! त्वच्चरणाम्बुजार्चन-कृते यः पीत-पुष्पाञ्जलिम्,
मुद्रां वाम-करे निधाय च पुनर्मन्त्री मनोज्ञाक्षरम् ।।
पीता-ध्यान-परोऽथ कुम्भक-वशाद् बीजं स्मरेत् पार्थिवम् ।
तस्यामित्र-मुखस्य वाचि हृदये जाड्यं भवेत् तत्क्षणात् ।। २० ।।
मन्त्रस्तावदलं विपक्ष-दलने स्तोत्रं पवित्रं च ते ।
यन्त्रं वादि-नियन्त्रणं त्रि-जगतां जैत्रं च चित्रं च तत् ।।
मातः ! श्रीबगलेति नाम ललितं यस्यास्ति जन्तोर्मुखे ।
त्वन्नाम-स्मरणेन संसदि मुख-स्तम्भो भवेद् वादिनाम् ।। २१ ।।
वादी मूकति रंकति क्षिति-पतिर्वैश्वानरः शीतति ।
क्रोधी शाम्यति दुर्जनः सुजनति क्षिप्रानुगः खञ्जति ।।
गर्वी खर्बति सर्व-विच्च जडति त्वद् यन्त्रणा यन्त्रितः ।
श्री-नित्ये, बगला-मुखि ! प्रतिदिनं कल्याणि ! तुभ्यं नमः ।। २२ ।।
दुष्ट-स्तम्भनमुग्र-विघ्न-शमनं दारिद्र्य-विद्रावणम् ।
भूभृत्-सन्दमनं च यन्मृग-दृशां चेतः समाकर्षणम् ।।
सौभाग्यैक-निकेतनं सम-दृशां कारुण्य-पूर्णेक्षणे ।
शत्रोर्मारणमाविरस्तु पुरतो मातस्त्वदीयं वपुः ।। २३ ।।
मातर्भञ्जय मद्-विपक्ष-वदनं जिह्वां च संकीलय ।
ब्राह्मीं यन्त्रय मुद्रयाशु-धिषणामुग्रां गतिं स्तम्भय ।।
शत्रूश्चूर्णय चूर्णयाशु गदया गौरांगि, पीताम्बरे !
विघ्नौघं बगले ! हर प्रणमतां कारुण्य-पूर्णेक्षणे ! ।। २४ ।।
मातर्भैरवि ! भद्र-कालि विजये ! वाराहि ! विश्वाश्रये !
श्रीविद्ये ! समये ! महेशि ! बगले ! कामेशि ! वामे रमे !
मातंगि ! त्रिपुरे ! परात्पर-तरे ! स्वर्गापवर्ग-प्रदे !
दासोऽहं शरणागतोऽस्मि कृपया विश्ववेश्वरि ! त्राहि माम् ।। २५ ।।
त्वं विद्या परमा त्रिलोक-जननी विघ्नौघ-संच्छेदिनी ।
योषाकर्षण-कारिणि त्रिजगतामानन्द-सम्वर्द्धिनी ।।
दुष्टोच्चाटन-कारिणी पशु-मनः-सम्मोह-सन्दायिनी ।
जिह्वा-कीलय वैरिणां विजयसे ब्रह्मास्त्र-विद्या परा ।। २६ ।।
मातर्यस्तु मनोरमं स्तवमिमं देव्याः पठेत् सादरम्
धृत्वा यन्त्रमिदं तथैव समरे बाह्वोः करे वा गले ।।
राजानो वरयोषितोऽथ करिणः सर्पामृगेन्द्राः खलास्ते वै यान्ति
विमोहिता रिपुगणा लक्ष्मीः स्थिरा सर्वदा ।। २७ ।।
अनुदिनमभिरामं साधको यस्त्रि-कालम्,
पठति स भुवनेऽसौ पूज्यते देव-वर्गैः ।।
सकलममल-कृत्यं तत्त्व-द्रष्टा च लोके,
भवति परम-सिद्धा लोक-माता पराम्बा ।। २८ ।।
पीत-वस्त्र-वसनामरि-देह-प्रेतजासन-निवेशित-देहाम् ।
फुल्ल-पुष्प-रवि-लोचन-रम्यां दैत्य-जाल-दहनोज्जवल-भूषां ।।
पर्यंकोपरि-लसद्-द्विभुजां कम्बु-हेम-नत-कुण्डल-लोलाम् ।
वैरि-निर्दलन-कारण-रोषां चिन्तयामि बगलां हृदयाब्जे ।। २९ ।।
चिन्तयामि सुभुजां श्रृणिहस्तां सद्-भुजांचसुर-वन्दित चरणाम् ।
षष्ठिसप्ततिशतैधृतशस्त्रैर्बाहुभिः परिवृतां बगलाम्बाम् ।। ३१ ।।
चौराणां संकटे च प्रहरणसमये बन्धने वारिमध्ये ।
वह्नौ वादे विवादे प्रकुपितनृपतौ दिव्यकाले निशायाम् ।।
वश्ये वा स्तम्भने वा रिपुवधसमये प्राणबाधे रणे वा ।
गच्छंस्तिष्ठस्त्रिकालं स्तवपठनमिदं कारयेदाशु धीरः ।। ३२ ।।
विद्यालक्ष्मीः सर्वसौभाग्यमायुः पुत्राः सम्पद् राज्यमिष्टं च सिद्धिः ।
मातः श्रेयः सर्ववश्यत्वसिद्धिः प्राप्तं सर्वं भूतले त्वत्परेण ।। ३३ ।।
गेहं नाकति गर्वितः प्रणमति स्त्रीसंगमो मोक्षति द्वेषी
मित्रति पातकं सुकृतति क्ष्मावल्लभो दासति ।।
मृत्युर्वैद्यति दूषणं गुणति वै यत्पादसंसेवनात्
तां वन्दे भवभीतिभञ्जनकरीं गौरीं गिरीशप्रियाम् ।। ३४ ।।
यत्-कृतं जप-सन्ध्यानं चिन्तनं परमेश्वरि !
श्रत्रुणां स्तम्भनार्थाय, तद् गृहाण नमोऽस्तु ते ।। ३५ ।।
ब्रह्मास्त्रमेतद् विख्यातं, त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ।
गुरु-भक्ताय दातव्यं, न देयं यस्य कस्यचित् ।। ३६ ।।
पीताम्बरां च द्वि-भुजां , त्रि-नेत्रां गात्र-कोज्ज्वलाम् ।
शिला-मुद्-गर-हस्तां च, स्मरेत् तां बगला-मुखीम् ।। ३७ ।।
सिद्धिं सध्येऽवगन्तुं गुरु-वर-वचनेष्वार्ह-विश्वास-भाजाम् ।
स्वान्तः पद्मासनस्थां वर-रुचिं-बगलां ध्यायतां तार-तारम् ।।
गायत्री-पूत-वाचां हरि-हर-मनने तत्पराणां नराणाम्,
प्रातर्मध्याह्न-काले स्तव-पठनमिदं कार्य-सिद्धि-प्रदं स्यात् ।। ३८ ।।
सौवर्णासन संस्थिता त्रिनयनां पीतांशुकोल्लासिनीम्,
हेमाभांगरुचिं शशांक मुकुटां सच्चम्पक स्रग्युताम् ।
हस्तैर्मुद्गर पाश वज्र रसनाः संबिभ्रतीं भूषणैर्व्याप्तांगीं,
बगलामुखीं त्रिजगतां संस्तम्भिनीं चिन्तयेत् ।।
जप मन्त्रः-
|| ॐ ह्ल्रीं (ह्लीं) बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्ल्रीं (ह्लीं) ॐ स्वाहा ||
।। स्तोत्रम ।।
मध्ये सुधाब्धि-मणि-मण्डप-रत्न-वेद्यां, सिंहासनो-परि-गतां परिपीत-वर्णाम् ।
पीताम्बराभरण-माल्य-विभूषितांगीं, देवीं स्मरामि धृत-मुद्-गर-वैरि-जिह्वाम् ।। १ ।।
जिह्वाग्रमादाय करेण देवीं, वामेन शत्रून् परि-पीडयन्तीम् ।
गदाभिघातेन च दक्षिणेन, पीताम्बराढ्यां द्विभुजां नमामि ।। २ ।।
त्रिशूल-धारिणीमम्बां सर्वसौभाग्यदायिनीम् ।
सर्वश्रृंगारवेशाढ्यां देवीं ध्यात्वा प्रपूजयेत् ।। ३ ।।
पीतवस्त्रां त्रिनेत्रां च द्विभुजां हाटकोज्ज्वलाम् ।
शिलापर्वतहस्तां च स्मरेत् तां बगलामुखीम् ।। ४ ।।
रिपुजिह्वां देवीं पीतपुष्पविभूषिताम् ।
वैरिनिर्दलनार्थाय स्मरेत् तां बगलामुखीम् ।। ५ ।।
गम्भीरा च मदोन्मत्तां स्वर्ण-कान्ति-समप्रभाम् ।
चतुर्भुजां त्रिनेत्रां च कमलासन-संस्थिताम् ।। ६ ।।
मुद्गरं दक्षिणे पाशं वामे जिह्वां च वज्रकम् ।
पीताम्बरधरां सान्द्र-दृढ़-पीन-पयोधराम् ।। ७ ।।
हेम-कुण्डल-भूषां च पीत चन्द्रार्द्ध-शेखरां ।
पीत-भूषण-पीतांगीं स्वर्ण-सिंहासने स्थिताम् ।। ८ ।।
एवं ध्यात्वा जपेत् स्तोत्रमेकाग्रकृतमानसः ।
सर्व-सिद्धिमवाप्नोति मन्त्र-ध्यानपुरः सरम् ।। ९ ।।
आराध्या जगदम्ब दिव्यकविभिः सामाजिकैः स्तोतृभिः ।
माल्यैश्चन्दन-कुंकुमैः परिमलैरभ्यर्चिता सादरात् ।।
सम्यङ्न्यासिसमस्तभूतनिवहे सौभाग्यशोभाप्रदे ।
श्रीमुग्धे बगले प्रसीद विमले दुःखापहे पाहि माम् ।। १० ।।
आनन्दकारिणी देवी रिपुस्तम्भनकारिणी ।
मदनोन्मादिनी चैव प्रीतिस्तम्भनकारिणी ।। ११ ।।
महाविद्या महामाया साधकस्य फलप्रदा ।
यस्याः स्मरणमात्रेण त्रैलोक्यं स्तम्भयेत् क्षणात् ।। १२ ।।
वामे पाशांकुशौ शक्तिं तस्याधस्ताद् वरं शुभम् ।
दक्षिणे क्रमतो वज्रं गदा-जिह्वाऽँयानि च ।। १३ ।।
विभ्रतीं संसमरेन्नित्यं पीतमाल्यानुलेपनाम् ।
पीताम्बरधरां देवीं ब्रह्मादिसुरवन्दिताम् ।। १४ ।।
केयूरांगदकुण्डलभूषां बालार्कद्युतिरञ्जितवेषाम् ।
तरुणादित्यसमानप्रतिमां कौशेययांशुकबद्धनितम्बाम् ।। १५ ।।
कल्पद्रुमतलनिहितशिलायां प्रमुदितचित्तौल्लासदलकान्ताम् ।
पञ्चप्रेतनिकेतनबद्धां भक्तजनेभ्यो वितरणशीलाम् ।। १६ ।।
एवं विधां तां बगलां ध्यात्वा मनसि साधकः ।
सर्व-सम्पत् समृद्धयर्थं स्तोत्रमेतदुदीरयेत् ।। १७ ।।
चलत्-कनक-कुण्डलोल्लसित-चारु-गण्ड-स्थलाम् ।
लसत्-कनक-चम्पक-द्युतिमदिन्दु-बिम्बाननाम् ।।
गदा-हत-विपक्षकां कलित-लोल-जिह्वां चलाम् ।
स्मरामि बगला-मुखीं विमुख-वाङ्-मनस-स्तम्भिनीम् ।। १८ ।।
पीयूषोदधि-मध्य-चारु-विलसद्-रत्नोज्जवले मण्डपे ।
तत्-सिंहासन-मूल-पातित-रिपुं प्रेतासनाध्यासिनीम् ।।
स्वर्णाभां कर-पीडितारि-रसनां भ्राम्यद् गदां विभ्रमाम् ।
यस्त्वां ध्यायति यान्ति तस्य विलयं सद्योऽथ सर्वापदः ।। १९ ।।
देवि ! त्वच्चरणाम्बुजार्चन-कृते यः पीत-पुष्पाञ्जलिम्,
मुद्रां वाम-करे निधाय च पुनर्मन्त्री मनोज्ञाक्षरम् ।।
पीता-ध्यान-परोऽथ कुम्भक-वशाद् बीजं स्मरेत् पार्थिवम् ।
तस्यामित्र-मुखस्य वाचि हृदये जाड्यं भवेत् तत्क्षणात् ।। २० ।।
मन्त्रस्तावदलं विपक्ष-दलने स्तोत्रं पवित्रं च ते ।
यन्त्रं वादि-नियन्त्रणं त्रि-जगतां जैत्रं च चित्रं च तत् ।।
मातः ! श्रीबगलेति नाम ललितं यस्यास्ति जन्तोर्मुखे ।
त्वन्नाम-स्मरणेन संसदि मुख-स्तम्भो भवेद् वादिनाम् ।। २१ ।।
वादी मूकति रंकति क्षिति-पतिर्वैश्वानरः शीतति ।
क्रोधी शाम्यति दुर्जनः सुजनति क्षिप्रानुगः खञ्जति ।।
गर्वी खर्बति सर्व-विच्च जडति त्वद् यन्त्रणा यन्त्रितः ।
श्री-नित्ये, बगला-मुखि ! प्रतिदिनं कल्याणि ! तुभ्यं नमः ।। २२ ।।
दुष्ट-स्तम्भनमुग्र-विघ्न-शमनं दारिद्र्य-विद्रावणम् ।
भूभृत्-सन्दमनं च यन्मृग-दृशां चेतः समाकर्षणम् ।।
सौभाग्यैक-निकेतनं सम-दृशां कारुण्य-पूर्णेक्षणे ।
शत्रोर्मारणमाविरस्तु पुरतो मातस्त्वदीयं वपुः ।। २३ ।।
मातर्भञ्जय मद्-विपक्ष-वदनं जिह्वां च संकीलय ।
ब्राह्मीं यन्त्रय मुद्रयाशु-धिषणामुग्रां गतिं स्तम्भय ।।
शत्रूश्चूर्णय चूर्णयाशु गदया गौरांगि, पीताम्बरे !
विघ्नौघं बगले ! हर प्रणमतां कारुण्य-पूर्णेक्षणे ! ।। २४ ।।
मातर्भैरवि ! भद्र-कालि विजये ! वाराहि ! विश्वाश्रये !
श्रीविद्ये ! समये ! महेशि ! बगले ! कामेशि ! वामे रमे !
मातंगि ! त्रिपुरे ! परात्पर-तरे ! स्वर्गापवर्ग-प्रदे !
दासोऽहं शरणागतोऽस्मि कृपया विश्ववेश्वरि ! त्राहि माम् ।। २५ ।।
त्वं विद्या परमा त्रिलोक-जननी विघ्नौघ-संच्छेदिनी ।
योषाकर्षण-कारिणि त्रिजगतामानन्द-सम्वर्द्धिनी ।।
दुष्टोच्चाटन-कारिणी पशु-मनः-सम्मोह-सन्दायिनी ।
जिह्वा-कीलय वैरिणां विजयसे ब्रह्मास्त्र-विद्या परा ।। २६ ।।
मातर्यस्तु मनोरमं स्तवमिमं देव्याः पठेत् सादरम्
धृत्वा यन्त्रमिदं तथैव समरे बाह्वोः करे वा गले ।।
राजानो वरयोषितोऽथ करिणः सर्पामृगेन्द्राः खलास्ते वै यान्ति
विमोहिता रिपुगणा लक्ष्मीः स्थिरा सर्वदा ।। २७ ।।
अनुदिनमभिरामं साधको यस्त्रि-कालम्,
पठति स भुवनेऽसौ पूज्यते देव-वर्गैः ।।
सकलममल-कृत्यं तत्त्व-द्रष्टा च लोके,
भवति परम-सिद्धा लोक-माता पराम्बा ।। २८ ।।
पीत-वस्त्र-वसनामरि-देह-प्रेतजासन-निवेशित-देहाम् ।
फुल्ल-पुष्प-रवि-लोचन-रम्यां दैत्य-जाल-दहनोज्जवल-भूषां ।।
पर्यंकोपरि-लसद्-द्विभुजां कम्बु-हेम-नत-कुण्डल-लोलाम् ।
वैरि-निर्दलन-कारण-रोषां चिन्तयामि बगलां हृदयाब्जे ।। २९ ।।
चिन्तयामि सुभुजां श्रृणिहस्तां सद्-भुजांचसुर-वन्दित चरणाम् ।
षष्ठिसप्ततिशतैधृतशस्त्रैर्बाहुभिः परिवृतां बगलाम्बाम् ।। ३१ ।।
चौराणां संकटे च प्रहरणसमये बन्धने वारिमध्ये ।
वह्नौ वादे विवादे प्रकुपितनृपतौ दिव्यकाले निशायाम् ।।
वश्ये वा स्तम्भने वा रिपुवधसमये प्राणबाधे रणे वा ।
गच्छंस्तिष्ठस्त्रिकालं स्तवपठनमिदं कारयेदाशु धीरः ।। ३२ ।।
विद्यालक्ष्मीः सर्वसौभाग्यमायुः पुत्राः सम्पद् राज्यमिष्टं च सिद्धिः ।
मातः श्रेयः सर्ववश्यत्वसिद्धिः प्राप्तं सर्वं भूतले त्वत्परेण ।। ३३ ।।
गेहं नाकति गर्वितः प्रणमति स्त्रीसंगमो मोक्षति द्वेषी
मित्रति पातकं सुकृतति क्ष्मावल्लभो दासति ।।
मृत्युर्वैद्यति दूषणं गुणति वै यत्पादसंसेवनात्
तां वन्दे भवभीतिभञ्जनकरीं गौरीं गिरीशप्रियाम् ।। ३४ ।।
यत्-कृतं जप-सन्ध्यानं चिन्तनं परमेश्वरि !
श्रत्रुणां स्तम्भनार्थाय, तद् गृहाण नमोऽस्तु ते ।। ३५ ।।
ब्रह्मास्त्रमेतद् विख्यातं, त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ।
गुरु-भक्ताय दातव्यं, न देयं यस्य कस्यचित् ।। ३६ ।।
पीताम्बरां च द्वि-भुजां , त्रि-नेत्रां गात्र-कोज्ज्वलाम् ।
शिला-मुद्-गर-हस्तां च, स्मरेत् तां बगला-मुखीम् ।। ३७ ।।
सिद्धिं सध्येऽवगन्तुं गुरु-वर-वचनेष्वार्ह-विश्वास-भाजाम् ।
स्वान्तः पद्मासनस्थां वर-रुचिं-बगलां ध्यायतां तार-तारम् ।।
गायत्री-पूत-वाचां हरि-हर-मनने तत्पराणां नराणाम्,
प्रातर्मध्याह्न-काले स्तव-पठनमिदं कार्य-सिद्धि-प्रदं स्यात् ।। ३८ ।।
।। श्रीरुद्र-यामले उत्तर-खण्डे श्रीब्रह्मास्त्र-महा-विद्या श्रीबगला-मुखी स्तोत्रम् ।।
श्री बगला यंत्रराज रक्षा स्तोत्रम्
इस स्तोत्र में बगला मंत्र ऋषि नारद, छंद पंक्ति, देवता पीताम्बरा, ह्लीं बीजं, स्वाहा शक्ति, सं कीलक, शत्रु-विनाशक विनियोग कहा गया है तथा इस स्तोत्र के पाठ से यंत्रार्चन का फल प्राप्त होता है ।
वन्दे सकलसन्देह दावपावकमीश्वरम् ।
करुणावरुणावासं भक्तकल्परुं गुरुम् ।। १ ।।
उल्लसत्पीतविद्योति विद्योतिततनुत्रयम् ।
निगमागम सर्वस्वमीडेऽहं तन्महन्महः ।। २ ।।
ॐ पूर्वे स्थिरमायां च बगलामुखि सर्वतः ।
दुष्टानां वाचमुच्चार्य मुखं पदं तथोद्धरेत् ।। ३ ।।
स्तम्भयेति ततो जिह्वां कीलयेति समुद्धरेत् ।
बुद्धिं विनाशयेति पदं स्थिरमायामनुस्मरेत् ।। ४ ।।
प्रणवं वह्निजायां चेत्येष पैताम्बरो मनुः ।
पातु मां सर्वदा सर्व-निग्रहानुग्रहक्षमः ।। ५ ।।
कण्ठं नारद ऋषिः पातु पङ्क्तिश्छन्दोऽवतान्मुखम् ।
पीताम्बरा देवता तु हृन्मध्यमवतान्मम् ।। ६ ।।
ह्लीं बीजं स्तनयोर्मेऽव्यात् स्वाहा शक्तिश्च दन्तयोः ।
सं कीलकं तथा गुह्ये विनियोगोगोऽवताद् वपुः ।। ७ ।।
षड्दीर्घभाजा बीजेन न्यासोऽव्यान्मे करादिकम् ।
द्विपञ्चपञ्चनन्देषुदशभिर्मन्त्र वर्णकैः ।। ८ ।।
षडंगकल्पना पातु षडंगानि ह्यनुक्रमात् ।
ऐं विद्यातत्त्वं क्लीम मायातत्त्वं सौश्च शिवात्मकम् ।। ९ ।।
तत्त्वत्रयं सं बीजं च मूलं हृत्कण्ठमध्यगः ।
सुधाब्धौ हेमभूरुढचम्पकोद्यानमध्यतः ।। १० ।।
गारुडोत्पलनिर्व्यूढ स्वर्णसिंहासनोपरि ।
स्वर्णपंकजसंविष्टां त्रिनेत्रां शशिशेखराम् ।। ११ ।।
पीतालंकारवसनां मल्लीचन्दनशोभिताम् ।
सव्याभ्यां पञ्चशाखाभ्यां वज्रं जिह्वां च विभ्रतीम् ।। १२ ।।
मुद्गरं नागपाशं च दक्षिणाभ्यां मदालसाम् ।
भक्तारिविग्रहोद्योग प्रगल्भां बगलामुखीम् ।। १३ ।।
ध्यायमानस्य मे पातु शात्रवोद्द्वेषणे भृशम् ।
भूकलादलदिक्-पत्रषट्कोणं त्र्यस्रबैगैन्दुकम् ।। १४ ।।
यन्त्रं पृताम्बरं पायाद् पायात् सा माम् अविग्रहा ।
आधारशक्तिमारभ्य ज्ञानात्मान्तास्तु शक्तयः ।। १५ ।।
पीठाद्याः पान्तु पीठेऽत्र प्रथमं मां च रक्षतु ।
शान्तिशंखविशेषात्मशक्ति भूतानि पान्तु माम् ।। १६ ।।
आवाहनाद्याः पञ्चापि मुद्राश्च सुमनोजलैः ।
त्रिकोणमध्यमारभ्य पूजिता बगलामुखी ।। १७ ।।
क्रोधिनी स्तम्भिनी चापि धारिण्यश्चापि मध्यगाः ।
ओजः पूषादिपीठानि कोणाग्रेषु स्थितानि वै ।। १८ ।।
त्रिकोणबाह्यतः सिद्धनाथाद्या गुरवस्तथा ।
सिद्धनाथः सिद्धनन्दनाथः सिद्धपरेष्ठि हि ।। १९ ।।
नाथः सिद्धः श्रीकण्ठश्च नाथः सिद्धचतुष्टयम् ।
पातु मामथ षट्कोणे सुभगा भग-रुपिणी ।। २० ।।
भगोदया च भगनिपातिनी भगमालिनी ।
भगावह च मां पातु षट्कोणाग्रेषु च क्रमात् ।। २१ ।।
त्वगामा शोणितात्म च मांसात्मा मेदसात्मकः ।
रुपात्मा परमात्मा च पातु मां स्थिरविग्रहा ।। २२ ।।
अष्टपत्रेषु मूलेषु ब्राह्मी माहेश्वरी तथा ।
कौमारी वैष्णवी वाराहीन्द्राणी च तथा पुनः ।। २३ ।।
चामुण्डा च महालक्ष्मीस्तत्र मध्ये पुनर्जया ।
विजया च जयाम्बा च राजिता जृम्भिणी तथा ।। २४ ।।
स्तम्भिनी मोहिनी वश्याऽकर्षिणि अथ तदग्रके ।
असितांगी रुरुश्चण्डः क्रोधोन्मत्तकपालिनः ।
भीषणश्चापि संहार एते रक्ज़न्तु मां सदा ।। २५ ।।
ततः षोडशपत्रेषु मंगला स्तम्भिनी तथा ।
जृम्भिणी मोहिनी वश्या ज्वालासिंही वलाहका ।। २६ ।।
भूधरा कल्मषा धात्री कन्यका कालकर्षिणी ।
भान्तिका मन्दगमना भोगस्था भाविकेति च ।। २७ ।।
पातु मामथ भूसद्म दशदिक्षु दिगीश्वराः ।
इन्द्रोऽनलो यमो रक्षो वरुणो मारुतः शशी ।।
ईशाऽनन्तः स्वयम्भूश्च दशैते पान्तम मे वपुः ।। २८ ।।
वज्र शक्तिर्दण्डखङ्गौ पाशांकुशगदाः क्रमात् ।
शूलं चक्रं सरोजं च तत्तच्छस्त्राणि पान्तु माम् ।। २९ ।।
अथ च पूर्वादिचतुद्वरिषु परतः क्रमात् ।
पातु विघ्नेशवटुकौ योगिनी क्षेत्रपालकः ।। ३० ।।
गुरुत्रयं त्रिरेखासु पातु मे वपुञ्जसा ।
पुनः पीताम्बरा पातु उपचारैः प्रपूजिता ।। ३१ ।।
सांगावरणशक्तिश्च जयश्रीः पातु सर्वदा ।
वलयं वटुकादिभ्यो रक्षां कुर्वन्तु मे सदा ।। ३२ ।।
शक्तयः साधका वीराः पान्तु मे देवता इमाः ।
इत्यर्चाक्रमतः प्रोक्तं स्तोत्रं पैताम्बरं परम् ।। ३३ ।।
यः पठेत् सकृदप्येतत् सोऽर्चाफलमाप्नुयात् ।
सर्वथा कारयेत् क्षिप्रं प्रपद्यन्ते गदातुरान् ।। ३४ ।।
राजानो राजपल्याश्च पौर जानपदास्तथा ।
वशगास्तस्य जायन्ते सततं सेवका इव ।। ३५ ।।
गुरुकल्पाश्च विबुधा मूकता यान्ति तेऽग्रतः ।
स्थिरीभवति तद्-गेहे चपलानि हरिप्रिया ।। ३६ ।।
पीताम्बरांगवसनो यदि लक्षसंख्यं ,
पैताम्बरं मनुममुं प्रजपेत् नरो यः ।
हैमीं सकृन्नियमवान् विधीना जरिद्रामालां,
दधत् भवति तदवशगा त्रिलोकी ।। ३७ ।।
भवानि बगलामुखि त्रिदशकल्पवल्लि,
प्रभो कृपाजलनिधे तव चरणधूतबाधाखिलः ।
सुरासुरनरादिक सकलभक्तभाग्यप्रदे,
त्वदंघ्रिसरसीरुहद्वयमहं तु ध्याये सदा ।। ३८ ।।
त्वमम्ब जगतां जनिस्थितिविनाशबीं,
निज प्रकाशबहुलद्युति भक्तहृन्मध्यगा ।
त्रयीमनुसुपुजिता हरिहरादिवृन्दारकै,
रनुक्षणमनुक्षणं मयि शिवे क्षणं वीक्ष्यताम् ।। ३९ ।।
शिवे तव तनूमहं हरिहराद्यगम्यां पराम्,
निखिलतापप्रत्यूह हृद्दयाभावयुक्तां स्मरे ।
विदारय विचूर्णय ग्लपय शोषय स्तम्भय,
प्रणोदय विरोधय प्रविलय प्रबद्धारीणाम् ।। ४० ।।
क्व पार्वती कूपालसन् मयि कटाक्षपातं मनाग् ।
अनाकुलतया क्षणं क्ज़िप विपक्ष-संक्षोभिणि ।
यदीक्षणपथं गतः सकृदपि प्रभुः,
कश्चन् स्फुटं मय वशंवदा भवतु तेन पीताम्बरे ।। ४१ ।।
करुणावरुणावासं भक्तकल्परुं गुरुम् ।। १ ।।
उल्लसत्पीतविद्योति विद्योतिततनुत्रयम् ।
निगमागम सर्वस्वमीडेऽहं तन्महन्महः ।। २ ।।
ॐ पूर्वे स्थिरमायां च बगलामुखि सर्वतः ।
दुष्टानां वाचमुच्चार्य मुखं पदं तथोद्धरेत् ।। ३ ।।
स्तम्भयेति ततो जिह्वां कीलयेति समुद्धरेत् ।
बुद्धिं विनाशयेति पदं स्थिरमायामनुस्मरेत् ।। ४ ।।
प्रणवं वह्निजायां चेत्येष पैताम्बरो मनुः ।
पातु मां सर्वदा सर्व-निग्रहानुग्रहक्षमः ।। ५ ।।
कण्ठं नारद ऋषिः पातु पङ्क्तिश्छन्दोऽवतान्मुखम् ।
पीताम्बरा देवता तु हृन्मध्यमवतान्मम् ।। ६ ।।
ह्लीं बीजं स्तनयोर्मेऽव्यात् स्वाहा शक्तिश्च दन्तयोः ।
सं कीलकं तथा गुह्ये विनियोगोगोऽवताद् वपुः ।। ७ ।।
षड्दीर्घभाजा बीजेन न्यासोऽव्यान्मे करादिकम् ।
द्विपञ्चपञ्चनन्देषुदशभिर्मन्त्र वर्णकैः ।। ८ ।।
षडंगकल्पना पातु षडंगानि ह्यनुक्रमात् ।
ऐं विद्यातत्त्वं क्लीम मायातत्त्वं सौश्च शिवात्मकम् ।। ९ ।।
तत्त्वत्रयं सं बीजं च मूलं हृत्कण्ठमध्यगः ।
सुधाब्धौ हेमभूरुढचम्पकोद्यानमध्यतः ।। १० ।।
गारुडोत्पलनिर्व्यूढ स्वर्णसिंहासनोपरि ।
स्वर्णपंकजसंविष्टां त्रिनेत्रां शशिशेखराम् ।। ११ ।।
पीतालंकारवसनां मल्लीचन्दनशोभिताम् ।
सव्याभ्यां पञ्चशाखाभ्यां वज्रं जिह्वां च विभ्रतीम् ।। १२ ।।
मुद्गरं नागपाशं च दक्षिणाभ्यां मदालसाम् ।
भक्तारिविग्रहोद्योग प्रगल्भां बगलामुखीम् ।। १३ ।।
ध्यायमानस्य मे पातु शात्रवोद्द्वेषणे भृशम् ।
भूकलादलदिक्-पत्रषट्कोणं त्र्यस्रबैगैन्दुकम् ।। १४ ।।
यन्त्रं पृताम्बरं पायाद् पायात् सा माम् अविग्रहा ।
आधारशक्तिमारभ्य ज्ञानात्मान्तास्तु शक्तयः ।। १५ ।।
पीठाद्याः पान्तु पीठेऽत्र प्रथमं मां च रक्षतु ।
शान्तिशंखविशेषात्मशक्ति भूतानि पान्तु माम् ।। १६ ।।
आवाहनाद्याः पञ्चापि मुद्राश्च सुमनोजलैः ।
त्रिकोणमध्यमारभ्य पूजिता बगलामुखी ।। १७ ।।
क्रोधिनी स्तम्भिनी चापि धारिण्यश्चापि मध्यगाः ।
ओजः पूषादिपीठानि कोणाग्रेषु स्थितानि वै ।। १८ ।।
त्रिकोणबाह्यतः सिद्धनाथाद्या गुरवस्तथा ।
सिद्धनाथः सिद्धनन्दनाथः सिद्धपरेष्ठि हि ।। १९ ।।
नाथः सिद्धः श्रीकण्ठश्च नाथः सिद्धचतुष्टयम् ।
पातु मामथ षट्कोणे सुभगा भग-रुपिणी ।। २० ।।
भगोदया च भगनिपातिनी भगमालिनी ।
भगावह च मां पातु षट्कोणाग्रेषु च क्रमात् ।। २१ ।।
त्वगामा शोणितात्म च मांसात्मा मेदसात्मकः ।
रुपात्मा परमात्मा च पातु मां स्थिरविग्रहा ।। २२ ।।
अष्टपत्रेषु मूलेषु ब्राह्मी माहेश्वरी तथा ।
कौमारी वैष्णवी वाराहीन्द्राणी च तथा पुनः ।। २३ ।।
चामुण्डा च महालक्ष्मीस्तत्र मध्ये पुनर्जया ।
विजया च जयाम्बा च राजिता जृम्भिणी तथा ।। २४ ।।
स्तम्भिनी मोहिनी वश्याऽकर्षिणि अथ तदग्रके ।
असितांगी रुरुश्चण्डः क्रोधोन्मत्तकपालिनः ।
भीषणश्चापि संहार एते रक्ज़न्तु मां सदा ।। २५ ।।
ततः षोडशपत्रेषु मंगला स्तम्भिनी तथा ।
जृम्भिणी मोहिनी वश्या ज्वालासिंही वलाहका ।। २६ ।।
भूधरा कल्मषा धात्री कन्यका कालकर्षिणी ।
भान्तिका मन्दगमना भोगस्था भाविकेति च ।। २७ ।।
पातु मामथ भूसद्म दशदिक्षु दिगीश्वराः ।
इन्द्रोऽनलो यमो रक्षो वरुणो मारुतः शशी ।।
ईशाऽनन्तः स्वयम्भूश्च दशैते पान्तम मे वपुः ।। २८ ।।
वज्र शक्तिर्दण्डखङ्गौ पाशांकुशगदाः क्रमात् ।
शूलं चक्रं सरोजं च तत्तच्छस्त्राणि पान्तु माम् ।। २९ ।।
अथ च पूर्वादिचतुद्वरिषु परतः क्रमात् ।
पातु विघ्नेशवटुकौ योगिनी क्षेत्रपालकः ।। ३० ।।
गुरुत्रयं त्रिरेखासु पातु मे वपुञ्जसा ।
पुनः पीताम्बरा पातु उपचारैः प्रपूजिता ।। ३१ ।।
सांगावरणशक्तिश्च जयश्रीः पातु सर्वदा ।
वलयं वटुकादिभ्यो रक्षां कुर्वन्तु मे सदा ।। ३२ ।।
शक्तयः साधका वीराः पान्तु मे देवता इमाः ।
इत्यर्चाक्रमतः प्रोक्तं स्तोत्रं पैताम्बरं परम् ।। ३३ ।।
यः पठेत् सकृदप्येतत् सोऽर्चाफलमाप्नुयात् ।
सर्वथा कारयेत् क्षिप्रं प्रपद्यन्ते गदातुरान् ।। ३४ ।।
राजानो राजपल्याश्च पौर जानपदास्तथा ।
वशगास्तस्य जायन्ते सततं सेवका इव ।। ३५ ।।
गुरुकल्पाश्च विबुधा मूकता यान्ति तेऽग्रतः ।
स्थिरीभवति तद्-गेहे चपलानि हरिप्रिया ।। ३६ ।।
पीताम्बरांगवसनो यदि लक्षसंख्यं ,
पैताम्बरं मनुममुं प्रजपेत् नरो यः ।
हैमीं सकृन्नियमवान् विधीना जरिद्रामालां,
दधत् भवति तदवशगा त्रिलोकी ।। ३७ ।।
भवानि बगलामुखि त्रिदशकल्पवल्लि,
प्रभो कृपाजलनिधे तव चरणधूतबाधाखिलः ।
सुरासुरनरादिक सकलभक्तभाग्यप्रदे,
त्वदंघ्रिसरसीरुहद्वयमहं तु ध्याये सदा ।। ३८ ।।
त्वमम्ब जगतां जनिस्थितिविनाशबीं,
निज प्रकाशबहुलद्युति भक्तहृन्मध्यगा ।
त्रयीमनुसुपुजिता हरिहरादिवृन्दारकै,
रनुक्षणमनुक्षणं मयि शिवे क्षणं वीक्ष्यताम् ।। ३९ ।।
शिवे तव तनूमहं हरिहराद्यगम्यां पराम्,
निखिलतापप्रत्यूह हृद्दयाभावयुक्तां स्मरे ।
विदारय विचूर्णय ग्लपय शोषय स्तम्भय,
प्रणोदय विरोधय प्रविलय प्रबद्धारीणाम् ।। ४० ।।
क्व पार्वती कूपालसन् मयि कटाक्षपातं मनाग् ।
अनाकुलतया क्षणं क्ज़िप विपक्ष-संक्षोभिणि ।
यदीक्षणपथं गतः सकृदपि प्रभुः,
कश्चन् स्फुटं मय वशंवदा भवतु तेन पीताम्बरे ।। ४१ ।।
ॐ नमो भगवते महारुद्राय हुं फट् स्वाहा । इति भैरव मन्त्र । इति अथर्वणरहस्ये बगलामुख्या अर्चाक्रमस्तोत्रम् ।।
।। श्रीदेवानन्दशिष्यरामचन्द्रनाथ विरचितायां मन्त्रसंग्रह दीपिकायां श्रीबगलास्तवराजः ।।
श्रीबगलामुखी हृदय स्तोत्रम्
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीबगला-मुखी हृदयमालामन्त्रस्य श्रीनारद ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्री बगला-मुखी देवता, ‘ह्लीं’ बीजं, ‘क्लीं’ शक्तिः, ‘ऐं’ कीलकं, श्रीबगला-मुखी-वर-प्रसाद सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- श्रीनारद ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे, श्री बगला-मुखी देवतायै नमः हृदि, ‘ह्लीं’ बीजाय नमः गुह्ये, ‘क्लीं’ शक्त्यै नमः नाभौ, ‘ऐं’ कीलकाय नमः पादयोः, श्रीबगला-मुखी-वर-प्रसाद सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
ऋष्यादि-न्यासः- श्रीनारद ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे, श्री बगला-मुखी देवतायै नमः हृदि, ‘ह्लीं’ बीजाय नमः गुह्ये, ‘क्लीं’ शक्त्यै नमः नाभौ, ‘ऐं’ कीलकाय नमः पादयोः, श्रीबगला-मुखी-वर-प्रसाद सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास | कर-न्यास | अंग-न्यास |
ॐ ह्लीं | अंगुष्ठाभ्यां नमः | हृदयाय नमः |
ॐ क्लीं | तर्जनीभ्यां नमः | शिरसे स्वाहा |
ॐ ऐं | मध्यमाभ्यां नमः | शिखायै वषट् |
ॐ ह्लीं | अनामिकाभ्यां नमः | कवचाय हुं |
ॐ क्लीं | कनिष्ठिकाभ्यां नमः | नेत्र-त्रयाय वौषट् |
ॐ ऐं | करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः | अस्त्राय फट् |
ध्यानः- हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे -
पीताम्बरां पीतमाल्यां पीताभरणभूषिताम् ।
पीतकञ्जपदद्वन्द्वां बगलां चिन्तयेऽनिशम् ।।
अब निम्न श्लोक से प्रार्थना करें -
पीतशंखगदाहस्ते पीतचन्दनचर्चिते ।
बगले मे वरं देहि शत्रुसंघविदारिणी ।।
तत्पश्चात् निम्न मन्त्र का जप करें -
“ॐ ह्लीं क्लीं ऐं बगलामुख्यै गदाधारिण्यै प्रेतासनाघ्यासिन्यै स्वाहा ।”
तत्पश्चात् स्तोत्र का पाठ करें । यथा -
।। स्तोत्रम् ।।
वन्देऽहं देवीं पीतभूषणभूषिताम् ।
तेजोरुपमयीं देवीं पीततेजः स्वरुपिणीम् ।। १ ।।
गदाभ्रमणभिन्नाभ्रां भ्रकुटीभीषणाननाम् ।
भीषयन्तीं भीमशत्रून् भजे भव्यस्य भक्तिदाम् ।। २ ।।
पूर्ण-चन्द्रसमानास्यां पीतगन्धानुलेपनाम् ।
पीताम्बरपरीधानां पवित्रामाश्रयाम्यहम् ।। ३ ।।
पालयन्तीमनुपलं प्रसमीक्ष्याऽवनीतले ।
पीताचाररतां भक्तां स्ताम्भवानीं भजाम्यहम् ।। ४ ।।
पीतपद्मपदद्वन्द्वां चम्पकारण्य रुपिणीम् ।
पीतावतंसां परमां वन्दे पद्मजवन्दिताम् ।। ५ ।।
लसञ्चारुसिञ्जत्सुमञ्जीरपादां चलत्स्वर्णकर्णावतंसाञ्चितास्याम् ।
वलत्पीतचन्द्राननां चन्द्रवन्द्यां भजे पद्मजादीड्यसत्पादपद्माम् ।। ६ ।।
सुपीताभयामालया पूतमन्त्रं परं ते जपन्तो जयं संलभन्ते ।
रणे रागरोषाप्लुतानां रिपूणां विवादे बलाद्वैरकृद्-घातमातः ।। ७ ।।
भरत्पीतभास्वत्प्रभाहस्कराभां गदागञ्जितामित्रगर्वां गरिष्ठाम् ।
गरीयोगुणागारगात्रां गुणाढ्यां गणेशादिगम्यां श्रये निर्गुणाड्याम् ।। ८ ।।
जना ये जपन्त्युग्रबीजं जगत्सु परं प्रत्यहं ते स्मरन्तः स्वरुपम् ।
भवेद् वादिनां वाङ्मुखस्तम्भ आद्ये जयो जायते जल्पतामाशु तेषाम् ।। ९ ।।
तव ध्याननिष्ठाप्रतिष्ठात्मप्रज्ञावतां पादपद्मार्चने प्रेमयुक्ताः ।
प्रसन्ना नृपाः प्राकृताः पण्डिता वा पुराणादिगा दासतुल्या भवन्ति ।। १० ।।
नमामस्ते मातः कनक-कमनीयाङ्घ्रीजलजम् ।
बलद्विद्युद्वर्णं घन-मितिर-विध्वंस-करणम् ।।
भवाब्धौ मग्नात्मोत्तरणकरणं सर्वशरणम् ।
प्रपन्नानां मातर्जगति बगले दुःखदमनम् ।। ११ ।।
ज्वलज्ज्योत्स्ना रत्नाकरमणिविभुषिक्तांक भवनम् ।
स्मरामस्ते धाम स्मरहरहरीन्द्रेन्दुप्रमुखैः ।।
अहोरात्रं प्रातः प्रणयनवनीयं सुविशदम् ।
परं पीताकारं परिचितमणिद्वीपवसनम् ।। १२ ।।
वदामस्ते मातः श्रुतिसुखकरं नाम ललितम् ।
लसन्मात्रावर्णं जगति बगलेति प्रचरितम् ।
चलन्तस्तिष्ठन्तो वयमुपविशन्तोऽपि शयने ।
भजामोयच्छ्रेयो दिवि दूरवलभ्यं दिविषदाम् ।। १३ ।।
पदार्चायां प्रीतिः प्रतिदिनमपूर्वा प्रभवतु ।
यथा ते प्रासन्न्यं प्रतिपलमपरक्ष्यं प्रणमताम् ।।
अनल्पं तन्मातर्भवति भृतभक्तया भवतु नो ।
दिशातः सद्-भक्तिं भुवि भगवतां भूरि भवदाम् ।। १४ ।।
मम सकलरिपूणां वाङ्मुखे स्तम्भयाशु ।
भगवति रिपुजिह्वां कीलय प्रस्थतुल्याम् ।।
व्यवसितखलबुद्धिं नाशयाऽऽशु प्रगल्भाम् ।
मम कुरु बहुकार्यं सत्कृपेऽम्ब प्रसीद ।। १५ ।।
व्रजतु मम रिपुणां सद्यनि प्रेतसंस्था ।
करधृतगदया तान् घातयित्वाऽऽशु रोषात् ।।
सधनवसनधान्यं सद्म तेषां प्रदह्य ।
पुनरपि बगला स्वस्थानमायातु शीघ्रम् ।। १६ ।।
करघृतुरिपुजिह्वा पीडनव्यग्रहस्तां ।
पुनरपि गदया तांस्ताडयन्तीं सुतन्त्राम् ।।
प्रणतसुरगणानां पालिकां पीतवस्त्रां ।
बहुबलबगलान्तां पीतवस्त्रां नमामः ।। १७ ।।
हृदयवचनकायः कुर्वतां भक्तिपुञ्जं ।
प्रकटति करुणार्द्रा प्रीणती जल्पतीति ।।
धनमथ बहुधान्यं पुत्रपौत्रादिवृद्धिः ।
सकलमपि किमेभ्यो देयमेवं त्ववश्यम् ।। १८ ।।
तव चरणसरोजं सर्वदा सेव्यमानं ।
द्रुहिणहरिहराद्यैर्देववृन्दैः शरण्यम् ।।
मृदुलमपि शरं ते शर्म्मदं सूरिसेव्यं ।
वयमिह करवामो मातरेतद् विधेयम् ।। १९ ।।
।। फल-श्रुति ।।
बगलाहृदयस्तोत्रमिदं भक्तिसमन्वितः ।
पठेद् यो बगला तस्य प्रसन्ना पाठतो भवेत् ।। २० ।।
पीता ध्यान परो भक्तो यः श्रृणोत्यविकल्पत ।
निष्कल्मषो भवेन् मर्त्यो मृतो मोक्षमवाप्नुयात् ।। २१ ।।
आश्विनस्य सिते पक्षे महाष्टम्यां दिवानिशम् ।
यस्त्विदं पठते प्रेम्णा बगलाप्रीतिमेति सः ।। २२ ।।
देव्यालये पठन् मर्त्यो बगलां ध्यायतीश्वरीम् ।
पीतवस्त्रावृतो यस्तु तस्य नश्यन्ति शत्रवः ।। २३ ।।
पीताचाररतो नित्यं पीतभूषां विचिन्तयन् ।
बगलां यः पठेन् नित्यं हृदयस्तोत्रमुत्तमम् ।। २४ ।।
न किञ्चिद्दुर्लभं तस्यदृश्यते जगतीतले ।
शत्रवो ग्लानिर्मायान्ति तस्य दर्शनमात्रतः ।। २५ ।।
पीताम्बरां पीतमाल्यां पीताभरणभूषिताम् ।
पीतकञ्जपदद्वन्द्वां बगलां चिन्तयेऽनिशम् ।।
अब निम्न श्लोक से प्रार्थना करें -
पीतशंखगदाहस्ते पीतचन्दनचर्चिते ।
बगले मे वरं देहि शत्रुसंघविदारिणी ।।
तत्पश्चात् निम्न मन्त्र का जप करें -
“ॐ ह्लीं क्लीं ऐं बगलामुख्यै गदाधारिण्यै प्रेतासनाघ्यासिन्यै स्वाहा ।”
तत्पश्चात् स्तोत्र का पाठ करें । यथा -
।। स्तोत्रम् ।।
वन्देऽहं देवीं पीतभूषणभूषिताम् ।
तेजोरुपमयीं देवीं पीततेजः स्वरुपिणीम् ।। १ ।।
गदाभ्रमणभिन्नाभ्रां भ्रकुटीभीषणाननाम् ।
भीषयन्तीं भीमशत्रून् भजे भव्यस्य भक्तिदाम् ।। २ ।।
पूर्ण-चन्द्रसमानास्यां पीतगन्धानुलेपनाम् ।
पीताम्बरपरीधानां पवित्रामाश्रयाम्यहम् ।। ३ ।।
पालयन्तीमनुपलं प्रसमीक्ष्याऽवनीतले ।
पीताचाररतां भक्तां स्ताम्भवानीं भजाम्यहम् ।। ४ ।।
पीतपद्मपदद्वन्द्वां चम्पकारण्य रुपिणीम् ।
पीतावतंसां परमां वन्दे पद्मजवन्दिताम् ।। ५ ।।
लसञ्चारुसिञ्जत्सुमञ्जीरपादां चलत्स्वर्णकर्णावतंसाञ्चितास्याम् ।
वलत्पीतचन्द्राननां चन्द्रवन्द्यां भजे पद्मजादीड्यसत्पादपद्माम् ।। ६ ।।
सुपीताभयामालया पूतमन्त्रं परं ते जपन्तो जयं संलभन्ते ।
रणे रागरोषाप्लुतानां रिपूणां विवादे बलाद्वैरकृद्-घातमातः ।। ७ ।।
भरत्पीतभास्वत्प्रभाहस्कराभां गदागञ्जितामित्रगर्वां गरिष्ठाम् ।
गरीयोगुणागारगात्रां गुणाढ्यां गणेशादिगम्यां श्रये निर्गुणाड्याम् ।। ८ ।।
जना ये जपन्त्युग्रबीजं जगत्सु परं प्रत्यहं ते स्मरन्तः स्वरुपम् ।
भवेद् वादिनां वाङ्मुखस्तम्भ आद्ये जयो जायते जल्पतामाशु तेषाम् ।। ९ ।।
तव ध्याननिष्ठाप्रतिष्ठात्मप्रज्ञावतां पादपद्मार्चने प्रेमयुक्ताः ।
प्रसन्ना नृपाः प्राकृताः पण्डिता वा पुराणादिगा दासतुल्या भवन्ति ।। १० ।।
नमामस्ते मातः कनक-कमनीयाङ्घ्रीजलजम् ।
बलद्विद्युद्वर्णं घन-मितिर-विध्वंस-करणम् ।।
भवाब्धौ मग्नात्मोत्तरणकरणं सर्वशरणम् ।
प्रपन्नानां मातर्जगति बगले दुःखदमनम् ।। ११ ।।
ज्वलज्ज्योत्स्ना रत्नाकरमणिविभुषिक्तांक भवनम् ।
स्मरामस्ते धाम स्मरहरहरीन्द्रेन्दुप्रमुखैः ।।
अहोरात्रं प्रातः प्रणयनवनीयं सुविशदम् ।
परं पीताकारं परिचितमणिद्वीपवसनम् ।। १२ ।।
वदामस्ते मातः श्रुतिसुखकरं नाम ललितम् ।
लसन्मात्रावर्णं जगति बगलेति प्रचरितम् ।
चलन्तस्तिष्ठन्तो वयमुपविशन्तोऽपि शयने ।
भजामोयच्छ्रेयो दिवि दूरवलभ्यं दिविषदाम् ।। १३ ।।
पदार्चायां प्रीतिः प्रतिदिनमपूर्वा प्रभवतु ।
यथा ते प्रासन्न्यं प्रतिपलमपरक्ष्यं प्रणमताम् ।।
अनल्पं तन्मातर्भवति भृतभक्तया भवतु नो ।
दिशातः सद्-भक्तिं भुवि भगवतां भूरि भवदाम् ।। १४ ।।
मम सकलरिपूणां वाङ्मुखे स्तम्भयाशु ।
भगवति रिपुजिह्वां कीलय प्रस्थतुल्याम् ।।
व्यवसितखलबुद्धिं नाशयाऽऽशु प्रगल्भाम् ।
मम कुरु बहुकार्यं सत्कृपेऽम्ब प्रसीद ।। १५ ।।
व्रजतु मम रिपुणां सद्यनि प्रेतसंस्था ।
करधृतगदया तान् घातयित्वाऽऽशु रोषात् ।।
सधनवसनधान्यं सद्म तेषां प्रदह्य ।
पुनरपि बगला स्वस्थानमायातु शीघ्रम् ।। १६ ।।
करघृतुरिपुजिह्वा पीडनव्यग्रहस्तां ।
पुनरपि गदया तांस्ताडयन्तीं सुतन्त्राम् ।।
प्रणतसुरगणानां पालिकां पीतवस्त्रां ।
बहुबलबगलान्तां पीतवस्त्रां नमामः ।। १७ ।।
हृदयवचनकायः कुर्वतां भक्तिपुञ्जं ।
प्रकटति करुणार्द्रा प्रीणती जल्पतीति ।।
धनमथ बहुधान्यं पुत्रपौत्रादिवृद्धिः ।
सकलमपि किमेभ्यो देयमेवं त्ववश्यम् ।। १८ ।।
तव चरणसरोजं सर्वदा सेव्यमानं ।
द्रुहिणहरिहराद्यैर्देववृन्दैः शरण्यम् ।।
मृदुलमपि शरं ते शर्म्मदं सूरिसेव्यं ।
वयमिह करवामो मातरेतद् विधेयम् ।। १९ ।।
।। फल-श्रुति ।।
बगलाहृदयस्तोत्रमिदं भक्तिसमन्वितः ।
पठेद् यो बगला तस्य प्रसन्ना पाठतो भवेत् ।। २० ।।
पीता ध्यान परो भक्तो यः श्रृणोत्यविकल्पत ।
निष्कल्मषो भवेन् मर्त्यो मृतो मोक्षमवाप्नुयात् ।। २१ ।।
आश्विनस्य सिते पक्षे महाष्टम्यां दिवानिशम् ।
यस्त्विदं पठते प्रेम्णा बगलाप्रीतिमेति सः ।। २२ ।।
देव्यालये पठन् मर्त्यो बगलां ध्यायतीश्वरीम् ।
पीतवस्त्रावृतो यस्तु तस्य नश्यन्ति शत्रवः ।। २३ ।।
पीताचाररतो नित्यं पीतभूषां विचिन्तयन् ।
बगलां यः पठेन् नित्यं हृदयस्तोत्रमुत्तमम् ।। २४ ।।
न किञ्चिद्दुर्लभं तस्यदृश्यते जगतीतले ।
शत्रवो ग्लानिर्मायान्ति तस्य दर्शनमात्रतः ।। २५ ।।
।। श्रीरुद्र-यामले उत्तर-खण्डे बगला-पटले श्रीबगलाहृदयम् ।।
बगला पञ्जर न्यास स्तोत्र
(दिग्-रक्षण प्रयोग)
बगला पूर्वतो रक्षेद् आग्नेय्यां च गदाधरी ।
पीताम्बरा दक्षिणे च स्तम्भिनी चैव नैऋते ।। १ ।।
जिह्वाकीलिन्यतो रक्षेत् पश्चिमे सर्वदा हि माम् ।
वायव्ये च मदोन्मत्ता कौवेर्यां च त्रिशूलिनी ।। २ ।।
ब्रह्मास्त्रदेवता पातु ऐशान्यां सततं मम ।
संरक्षेन् मां तु सततं पाताले स्तब्धमातृका ।। ३ ।।
ऊर्ध्वं रक्षेन् महादेवी जिह्वा-स्तम्भन-कारिणी ।
एवं दश दिशो रक्षेद् बगला सर्व-सिद्धिदा ।। ४ ।।
एवं न्यास-विधिं कृत्वा यत् किञ्चिज्जपमाचरेत् ।
तस्याः संस्मरेणादेव शत्रूणां स्तम्भनं भवेत् ।। ५ ।।
।। श्री बगला-पञ्जर-न्यास-स्तोत्रम् ।।
बगला पूर्वतो रक्षेद् आग्नेय्यां च गदाधरी ।
पीताम्बरा दक्षिणे च स्तम्भिनी चैव नैऋते ।। १ ।।
जिह्वाकीलिन्यतो रक्षेत् पश्चिमे सर्वदा हि माम् ।
वायव्ये च मदोन्मत्ता कौवेर्यां च त्रिशूलिनी ।। २ ।।
ब्रह्मास्त्रदेवता पातु ऐशान्यां सततं मम ।
संरक्षेन् मां तु सततं पाताले स्तब्धमातृका ।। ३ ।।
ऊर्ध्वं रक्षेन् महादेवी जिह्वा-स्तम्भन-कारिणी ।
एवं दश दिशो रक्षेद् बगला सर्व-सिद्धिदा ।। ४ ।।
एवं न्यास-विधिं कृत्वा यत् किञ्चिज्जपमाचरेत् ।
तस्याः संस्मरेणादेव शत्रूणां स्तम्भनं भवेत् ।। ५ ।।
।। श्री बगला-पञ्जर-न्यास-स्तोत्रम् ।।
बगलामुखी कवचम् (रुद्रयामले)
।। श्री भैरवी उवाच ।।
श्रुत्वा च बगलापूजां स्तोत्रं चापि महेश्वर ।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि कवचं वद मे प्रभो ।। १ ।।
वैरिनाशकरं दिव्यं सर्वाऽशुभविनाशनम् ।
शुभदं स्मरणात् पुण्यं त्राहि मां दुःखनाशन ।। २ ।।
।। श्रीभैरव उवाच ।।
कवचं श्रृणु वक्ष्यामि भैरवि प्राणवल्लभे ।
पठित्वा धारयित्वा तु त्रैलोक्ये विजयी भवेत् ।। ३ ।।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीबगलामुखी कवचस्य नारद ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीबगलामुखी देवता, लं बीजं, ईं शक्तिं, ऐं कीलकम्, पुरुषार्थ-चतुष्टये जपे विनियोगः ।
।। मूल-पाठ ।।
शिरो मे बगला पातु हृदयमेकाक्षरी परा ।
ॐ ह्रीं ॐ मे ललाटे च बगला वैरिनाशिनी ।। ४ ।।
गदा-हस्ता सदा पातु मुखं मे मोक्षदायिनी ।
वैरिजिह्वा धरा पातु कण्ठं मे बगलामुखी ।। ५ ।।
उदरं नाभिदेशं च पातु नित्यं परात् परा ।
परात् परतरा पातु मम गुह्यं सुरेश्वरी ।। ६ ।।
हस्तौ चैव तथा पातु पार्वती परिपातु मे ।
विवादे विषमे घोरे संग्रामेरिपु-संकटे ।। ७ ।।
पीताम्बरधरा पातु सर्वांगं शिव-नर्तकी ।
श्री-विद्या समयं पातु मातंगी पूरिता शिवा ।। ८ ।।
पातु पुत्रं सुतां चैव कलत्रं कालिका मम ।
पातु नित्यं भ्रातरं मे पितरं शूलिनी सदा ।। ९ ।।
रन्ध्रे हि बगलादेव्याः कवचं मन्मुखोदितम् ।
न वै देयममुख्याय सर्व-सिद्धि-प्रदायकम् ।। १० ।।
पठनाद् धारणादस्य पूजनाद् वाञ्छितं लभेत् ।
इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेद् बगलामुखीम् ।। ११ ।।
पिवन्ति शोणितं तस्य योगिन्यः प्राप्य सादराः ।
वश्ये चाकर्षणे चैव मारणे मोहने तथा ।। १२ ।।
महाभये विपत्तौ च पठेद् वा पाठयेत् तु यः ।
तस्य सर्वार्थसिद्धिः स्याद् भक्तियुक्तस्य पार्वति ।। १३ ।।
श्रुत्वा च बगलापूजां स्तोत्रं चापि महेश्वर ।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि कवचं वद मे प्रभो ।। १ ।।
वैरिनाशकरं दिव्यं सर्वाऽशुभविनाशनम् ।
शुभदं स्मरणात् पुण्यं त्राहि मां दुःखनाशन ।। २ ।।
।। श्रीभैरव उवाच ।।
कवचं श्रृणु वक्ष्यामि भैरवि प्राणवल्लभे ।
पठित्वा धारयित्वा तु त्रैलोक्ये विजयी भवेत् ।। ३ ।।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीबगलामुखी कवचस्य नारद ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीबगलामुखी देवता, लं बीजं, ईं शक्तिं, ऐं कीलकम्, पुरुषार्थ-चतुष्टये जपे विनियोगः ।
।। मूल-पाठ ।।
शिरो मे बगला पातु हृदयमेकाक्षरी परा ।
ॐ ह्रीं ॐ मे ललाटे च बगला वैरिनाशिनी ।। ४ ।।
गदा-हस्ता सदा पातु मुखं मे मोक्षदायिनी ।
वैरिजिह्वा धरा पातु कण्ठं मे बगलामुखी ।। ५ ।।
उदरं नाभिदेशं च पातु नित्यं परात् परा ।
परात् परतरा पातु मम गुह्यं सुरेश्वरी ।। ६ ।।
हस्तौ चैव तथा पातु पार्वती परिपातु मे ।
विवादे विषमे घोरे संग्रामेरिपु-संकटे ।। ७ ।।
पीताम्बरधरा पातु सर्वांगं शिव-नर्तकी ।
श्री-विद्या समयं पातु मातंगी पूरिता शिवा ।। ८ ।।
पातु पुत्रं सुतां चैव कलत्रं कालिका मम ।
पातु नित्यं भ्रातरं मे पितरं शूलिनी सदा ।। ९ ।।
रन्ध्रे हि बगलादेव्याः कवचं मन्मुखोदितम् ।
न वै देयममुख्याय सर्व-सिद्धि-प्रदायकम् ।। १० ।।
पठनाद् धारणादस्य पूजनाद् वाञ्छितं लभेत् ।
इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेद् बगलामुखीम् ।। ११ ।।
पिवन्ति शोणितं तस्य योगिन्यः प्राप्य सादराः ।
वश्ये चाकर्षणे चैव मारणे मोहने तथा ।। १२ ।।
महाभये विपत्तौ च पठेद् वा पाठयेत् तु यः ।
तस्य सर्वार्थसिद्धिः स्याद् भक्तियुक्तस्य पार्वति ।। १३ ।।
।। श्रीरुद्रयामले श्रीबगलामुखी कवचम् ।।
श्रीबगला त्रैलोक्य-विजय कवचम्
।। श्री भैरव उवाचः ।।
श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि स्व-रहस्यं च कामदम् ।
श्रुत्वा गोप्यं गुप्ततमं कुरु गुप्तं सुरेश्वरि ।। १ ।।
कवचं बगलामुख्याः सकलेष्टप्रदं कलौ ।
तत्सर्वस्वं परं गुह्यं गुप्तं च शरजन्मना ।। २ ।।
त्रैलोक्य-विजयं नाम कवचेशं मनोरमम् ।
मन्त्र-गर्भं ब्रह्ममयं सर्व-विद्या विनायकम् ।। ३ ।।
रहस्यं परमं ज्ञेयं साक्षाद्-मृतरुपकम् ।
ब्रह्मविद्यामयं वर्म सर्व-विद्या विनायकम् ।। ४ ।।
पूर्णमेकोनपञ्चाशद् वर्णैरुक्त महेश्वरि ।
त्वद्भक्त्या वच्मि देवेशि गोपनीयं स्वयोनिवत् ।। ५ ।।
।। श्री देव्युवाच ।।
भगवन् करुणासार विश्वनाथ सुरेश्वर ।
कर्मणा मनसा वाचा न वदामि कदाचन् ।। १ ।।
।। श्री भैरव उवाच ।।
त्रैलोक्य विजयाख्यस्य कवचास्यास्य पार्वति ।
मनुगर्भस्य गुप्तस्य ऋषिर्देवोऽस्य भैरवः ।। १ ।।
उष्णिक्-छन्दः समाख्यातं देवी श्रीबगलामुखी ।
बीजं ह्लीं ॐ शक्तिः स्यात् स्वाहा कीलकमुच्यते ।। २ ।।
विनियोगः समाख्यातः त्रिवर्ग-फल-प्राप्तये ।
देवि त्वं पठ वर्मैतन्मन्त्र-गर्भं सुरेश्वरि ।। ३ ।।
बिनाध्यानं कुतः सिद्धि सत्यमेतच्च पार्वति ।
चन्द्रोद्भासितमूर्धजां रिपुरसां मुण्डाक्षमालाकराम् ।। ४ ।।
बालांसत्स्रकचञ्चलां मधुमदां रक्तां जटाजूटिनीम् ।
शत्रु-स्तम्भन-कारिणीं शशिमुखीं पीताम्बरोद्भासिनीम् ।। ५ ।।
प्रेतस्थां बगलामुखीं भगवतीं कारुण्यरुपां भजे ।
ॐ ह्लीं मम शिरः पातु देवी श्रीबगलामुखी ।। ६ ।।
ॐ ऐं क्लीं पातु मे भालं देवी स्तम्भनकारिणी ।
ॐ अं इं हं भ्रुवौ पातु क्लेशहारिणी ।। ७ ।।
ॐ हं पातु मे नेत्रे नारसिंही शुभंकरी ।
ॐ ह्लीं श्रीं पातु मे गण्डौ अं आं इं भुवनेश्वरी ।। ८ ।।
ॐ ऐं क्लीं सौः श्रुतौ पातु इं ईं ऊं च परेश्वरी ।
ॐ ह्लीं ह्लूं ह्लीं सदाव्यान्मे नासां ह्लीं सरस्वती ।। ९ ।।
ॐ ह्रां ह्रीं मे मुखं पातु लीं इं ईं छिन्नमस्तिका ।
ॐ श्री वं मेऽधरौ पातु ओं औं दक्षिणकालिका ।। १० ।।
ॐ क्लीं श्रीं शिरसः पातु कं खं गं घं च सारिका ।
ॐ ह्रीं ह्रूं भैरवी पातु ङं अं अः त्रिपुरेश्वरी ।। ११ ।।
ॐ ऐं सौः मे हनुं पातु चं छं जं च मनोन्मनी ।
ॐ श्रीं श्रीं मे गलं पातु झं ञं टं ठं गणेश्वरी ।। १२ ।।
ॐ स्कन्धौ मेऽव्याद् डं ढं णं हूं हूं चैव तु तोतला ।
ॐ ह्रीं श्रीं मे भुजौ पातु तं थं दं वर-वर्णिनी ।। १३ ।।
ऐं क्लीं सौः स्तनौ पातु धं नं पं परमेश्वरी ।
क्रों क्रों मे रक्षयेद् वक्षः फं बं भं भगवासिनी ।। १४ ।।
ॐ ह्रीं रां पातु कक्षि मे मं यं रं वह्नि-वल्लभा ।
ॐ श्रीं ह्रूं पातु मे पार्श्वौ लं बं लम्बोदर प्रसूः ।। १५ ।।
ॐ श्रीं ह्रीं ह्रूं पातु मे नाभि शं षं षण्मुख-पालिनी ।
ॐ ऐं सौः पातु मे पृष्ठं सं हं हाटक-रुपिणी ।। १६ ।।
ॐ क्लीं ऐं कटि पातु पञ्चाशद्-वर्ण-मालिका ।
ॐ ऐं क्लीं पातु मे गुह्यं अं आं कं गुह्यकेश्वरी ।। १७ ।।
ॐ श्रीं ऊं ऋं सदाव्यान्मे इं ईं खं खां स्वरुपिणी ।
ॐ जूं सः पातु मे जंघे रुं रुं धं अघहारिनी ।। १८ ।।
श्रीं ह्रीं पातु मे जानू उं ऊं णं गण-वल्लभा ।
ॐ श्रीं सः पातु मे गुल्फौ लिं लीं ऊं चं च चण्डिका ।। १९ ।।
ॐ ऐं ह्रीं पातु मे वाणी एं ऐं छं जं जगत्प्रिया ।
ॐ श्रीं क्लीं पातु पादौ मे झं ञं टं ठं भगोदरी ।। २० ।।
ॐ ह्रीं सर्वं वपुः पातु अं अः त्रिपुर-मालिनी ।
ॐ ह्रीं पूर्वे सदाव्यान्मे झं झां डं ढं शिखामुखी ।। २१ ।।
ॐ सौः याम्यं सदाव्यान्मे इं ईं णं तं च तारिणी ।
ॐ वारुण्यां च वाराही ऊं थं दं धं च कम्पिला ।। २२ ।।
ॐ श्रीं मां पातु चैशान्यां पातु ॐ नं जनेश्वरी ।
ॐ श्रीं मां चाग्नेयां ऋं भं मं धं च यौगिनी ।। २३ ।।
ॐ ऐं मां नैऋत्यां लूं लां राजेश्वरी तथा ।
ॐ श्रीं पातु वायव्यां लृं लं वीतकेशिनी ।
ॐ प्रभाते च मो पातु लीं लं वागीश्वरी सदा ।। २४ ।।
ॐ मध्याह्ने च मां पातु ऐं क्षं शंकर-वल्लभा ।
श्रीं ह्रीं क्लीं पातु सायं ऐ आं शाकम्भरी सदा ।। २५ ।।
ॐ ह्रीं निशादौ मां पातु ॐ सं सागरवासिनी ।
क्लीं निशीथे च मां पातु ॐ हं हरिहरेश्वरी ।। २६ ।।
क्लीं ब्राह्मे मुहूर्तेऽव्याद लं लां त्रिपुर-सुन्दरी ।
विसर्गा तु यत्स्थानं वर्जित कवचेन तु ।। २७ ।।
क्लीं तन्मे सकलं पातु अं क्षं ह्लीं बगलामुखी ।
इतीदं कवचं दिव्यं मन्त्राक्षरमय परम् ।। २८ ।।
त्रैलोक्यविजयं नाम सर्व-वर्ण-मयं स्मृतम् ।
अप्रकाश्यं सदा देवि श्रोतव्यं च वाचिकम् ।। २९ ।।
दुर्जनायाकुलीनाय दीक्षाहीनाय पार्वति ।
न दातव्यं न दातव्यमित्याज्ञा परमेश्वरी ।। ३० ।।
दीक्षाकार्य विहीनाय शक्ति-भक्ति विरोधिने ।
कवचस्यास्य पठनात् साधको दीक्षितो भवेत् ।। ३१ ।।
कवचेशमिदं गोप्यं सिद्ध-विद्या-मयं परम् ।
ब्रह्मविद्यामयं गोप्यं यथेष्टफलदं शिवे ।। ३२ ।।
न कस्य कथितं चैतद् त्रैलोक्य विजयेश्वरम् ।
अस्य स्मरण-मात्रेण देवी सद्योवशी भवेत् ।। ३३ ।।
पठनाद् धारणादस्य कवचेशस्य साधकः ।
कलौ विचरते वीरो यथा श्रीबगलामुखी ।। ३४ ।।
इदं वर्म स्मरन् मन्त्री संग्रामे प्रविशेद् यदा ।
युयुत्सुः पठन् कवचं साधको विजयी भवेत् ।। ३५ ।।
शत्रुं काल-समानं तु जित्वा स्वगृहमेति सः ।
मूर्घ्नि धृत्वा यः कवचं मन्त्र-गर्भं सुसाधकः ।। ३६ ।।
ब्रह्माद्यमरान् सर्वान् सहसा वशमानयेत् ।
धृत्वा गले तु कवचं साधकस्य महेश्वरि ।। ३७ ।।
वशमायान्ति सहसा रम्भाद्यप्सरसां गणाः ।
उत्पातेषु घोरेषु भयेषु विवधेषु च ।। ३८ ।।
रोगेषु च कवचेशं मन्त्रगर्भं पठेन्नरः ।
कर्मणा मनसा वाचा तद्भयं शान्तिमेष्यति ।। ३९ ।।
श्रीदेव्या बगलामुख्याः कवचेशं मयोदितम् ।
त्रैलोक्य-विजयं नाम पुत्रपौत्र धनप्रदम् ।। ४० ।।
ऋणं च हस्ते सम्यक् लक्ष्मीर्भोगविवर्धिनी ।
बन्ध्या जनयते कुक्षौ पुत्र-रत्नं न चान्यथा ।। ४१ ।।
मृतवत्सा च विभृयात् कवचं च गले सदा ।
दीर्घायुर्व्याधिहीनश्च तत्पुत्रो वर्धतेऽनिशम् ।। ४२ ।।
इतीदं बगलामुख्याः कवचेशं सुदुर्लभम् ।
त्रैलोक्य-विजयं नाम न देयं यस्यकस्यचित् ।। ४३ ।।
अकुलीनाय मूढाय भक्तिहीनायदम्भिने ।
लोभयुक्ताय देवेशि न दातव्यं कदाचन् ।। ४४ ।।
लोभ-दम्भ-विहीनाय कवचेशं प्रदीयताम् ।
अभक्तेभ्यो अपुत्रेभ्यो दत्वा कुष्ठी भवेन्नरः ।। ४५ ।।
रवौ रात्रौ च सुस्नातः पूजागृहगतः सुधीः ।
दीपमुज्ज्वाल्य मूलेन पठेद्वर्मेदमुत्तमम् ।। ४६ ।।
प्राप्तौ सत्यां त्रिरात्रौ हि राजा तद्-गृहमेष्यति ।
मण्डलेशो महेशानि देवि सत्यं न संशय ।। ४७ ।।
इदं तु कवचेशं तु मया प्रोक्त नगात्मजे ।
गोप्यं गुह्यतरं देवि गोपनीयं स्वयोनिवत् ।। ४८ ।।
श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि स्व-रहस्यं च कामदम् ।
श्रुत्वा गोप्यं गुप्ततमं कुरु गुप्तं सुरेश्वरि ।। १ ।।
कवचं बगलामुख्याः सकलेष्टप्रदं कलौ ।
तत्सर्वस्वं परं गुह्यं गुप्तं च शरजन्मना ।। २ ।।
त्रैलोक्य-विजयं नाम कवचेशं मनोरमम् ।
मन्त्र-गर्भं ब्रह्ममयं सर्व-विद्या विनायकम् ।। ३ ।।
रहस्यं परमं ज्ञेयं साक्षाद्-मृतरुपकम् ।
ब्रह्मविद्यामयं वर्म सर्व-विद्या विनायकम् ।। ४ ।।
पूर्णमेकोनपञ्चाशद् वर्णैरुक्त महेश्वरि ।
त्वद्भक्त्या वच्मि देवेशि गोपनीयं स्वयोनिवत् ।। ५ ।।
।। श्री देव्युवाच ।।
भगवन् करुणासार विश्वनाथ सुरेश्वर ।
कर्मणा मनसा वाचा न वदामि कदाचन् ।। १ ।।
।। श्री भैरव उवाच ।।
त्रैलोक्य विजयाख्यस्य कवचास्यास्य पार्वति ।
मनुगर्भस्य गुप्तस्य ऋषिर्देवोऽस्य भैरवः ।। १ ।।
उष्णिक्-छन्दः समाख्यातं देवी श्रीबगलामुखी ।
बीजं ह्लीं ॐ शक्तिः स्यात् स्वाहा कीलकमुच्यते ।। २ ।।
विनियोगः समाख्यातः त्रिवर्ग-फल-प्राप्तये ।
देवि त्वं पठ वर्मैतन्मन्त्र-गर्भं सुरेश्वरि ।। ३ ।।
बिनाध्यानं कुतः सिद्धि सत्यमेतच्च पार्वति ।
चन्द्रोद्भासितमूर्धजां रिपुरसां मुण्डाक्षमालाकराम् ।। ४ ।।
बालांसत्स्रकचञ्चलां मधुमदां रक्तां जटाजूटिनीम् ।
शत्रु-स्तम्भन-कारिणीं शशिमुखीं पीताम्बरोद्भासिनीम् ।। ५ ।।
प्रेतस्थां बगलामुखीं भगवतीं कारुण्यरुपां भजे ।
ॐ ह्लीं मम शिरः पातु देवी श्रीबगलामुखी ।। ६ ।।
ॐ ऐं क्लीं पातु मे भालं देवी स्तम्भनकारिणी ।
ॐ अं इं हं भ्रुवौ पातु क्लेशहारिणी ।। ७ ।।
ॐ हं पातु मे नेत्रे नारसिंही शुभंकरी ।
ॐ ह्लीं श्रीं पातु मे गण्डौ अं आं इं भुवनेश्वरी ।। ८ ।।
ॐ ऐं क्लीं सौः श्रुतौ पातु इं ईं ऊं च परेश्वरी ।
ॐ ह्लीं ह्लूं ह्लीं सदाव्यान्मे नासां ह्लीं सरस्वती ।। ९ ।।
ॐ ह्रां ह्रीं मे मुखं पातु लीं इं ईं छिन्नमस्तिका ।
ॐ श्री वं मेऽधरौ पातु ओं औं दक्षिणकालिका ।। १० ।।
ॐ क्लीं श्रीं शिरसः पातु कं खं गं घं च सारिका ।
ॐ ह्रीं ह्रूं भैरवी पातु ङं अं अः त्रिपुरेश्वरी ।। ११ ।।
ॐ ऐं सौः मे हनुं पातु चं छं जं च मनोन्मनी ।
ॐ श्रीं श्रीं मे गलं पातु झं ञं टं ठं गणेश्वरी ।। १२ ।।
ॐ स्कन्धौ मेऽव्याद् डं ढं णं हूं हूं चैव तु तोतला ।
ॐ ह्रीं श्रीं मे भुजौ पातु तं थं दं वर-वर्णिनी ।। १३ ।।
ऐं क्लीं सौः स्तनौ पातु धं नं पं परमेश्वरी ।
क्रों क्रों मे रक्षयेद् वक्षः फं बं भं भगवासिनी ।। १४ ।।
ॐ ह्रीं रां पातु कक्षि मे मं यं रं वह्नि-वल्लभा ।
ॐ श्रीं ह्रूं पातु मे पार्श्वौ लं बं लम्बोदर प्रसूः ।। १५ ।।
ॐ श्रीं ह्रीं ह्रूं पातु मे नाभि शं षं षण्मुख-पालिनी ।
ॐ ऐं सौः पातु मे पृष्ठं सं हं हाटक-रुपिणी ।। १६ ।।
ॐ क्लीं ऐं कटि पातु पञ्चाशद्-वर्ण-मालिका ।
ॐ ऐं क्लीं पातु मे गुह्यं अं आं कं गुह्यकेश्वरी ।। १७ ।।
ॐ श्रीं ऊं ऋं सदाव्यान्मे इं ईं खं खां स्वरुपिणी ।
ॐ जूं सः पातु मे जंघे रुं रुं धं अघहारिनी ।। १८ ।।
श्रीं ह्रीं पातु मे जानू उं ऊं णं गण-वल्लभा ।
ॐ श्रीं सः पातु मे गुल्फौ लिं लीं ऊं चं च चण्डिका ।। १९ ।।
ॐ ऐं ह्रीं पातु मे वाणी एं ऐं छं जं जगत्प्रिया ।
ॐ श्रीं क्लीं पातु पादौ मे झं ञं टं ठं भगोदरी ।। २० ।।
ॐ ह्रीं सर्वं वपुः पातु अं अः त्रिपुर-मालिनी ।
ॐ ह्रीं पूर्वे सदाव्यान्मे झं झां डं ढं शिखामुखी ।। २१ ।।
ॐ सौः याम्यं सदाव्यान्मे इं ईं णं तं च तारिणी ।
ॐ वारुण्यां च वाराही ऊं थं दं धं च कम्पिला ।। २२ ।।
ॐ श्रीं मां पातु चैशान्यां पातु ॐ नं जनेश्वरी ।
ॐ श्रीं मां चाग्नेयां ऋं भं मं धं च यौगिनी ।। २३ ।।
ॐ ऐं मां नैऋत्यां लूं लां राजेश्वरी तथा ।
ॐ श्रीं पातु वायव्यां लृं लं वीतकेशिनी ।
ॐ प्रभाते च मो पातु लीं लं वागीश्वरी सदा ।। २४ ।।
ॐ मध्याह्ने च मां पातु ऐं क्षं शंकर-वल्लभा ।
श्रीं ह्रीं क्लीं पातु सायं ऐ आं शाकम्भरी सदा ।। २५ ।।
ॐ ह्रीं निशादौ मां पातु ॐ सं सागरवासिनी ।
क्लीं निशीथे च मां पातु ॐ हं हरिहरेश्वरी ।। २६ ।।
क्लीं ब्राह्मे मुहूर्तेऽव्याद लं लां त्रिपुर-सुन्दरी ।
विसर्गा तु यत्स्थानं वर्जित कवचेन तु ।। २७ ।।
क्लीं तन्मे सकलं पातु अं क्षं ह्लीं बगलामुखी ।
इतीदं कवचं दिव्यं मन्त्राक्षरमय परम् ।। २८ ।।
त्रैलोक्यविजयं नाम सर्व-वर्ण-मयं स्मृतम् ।
अप्रकाश्यं सदा देवि श्रोतव्यं च वाचिकम् ।। २९ ।।
दुर्जनायाकुलीनाय दीक्षाहीनाय पार्वति ।
न दातव्यं न दातव्यमित्याज्ञा परमेश्वरी ।। ३० ।।
दीक्षाकार्य विहीनाय शक्ति-भक्ति विरोधिने ।
कवचस्यास्य पठनात् साधको दीक्षितो भवेत् ।। ३१ ।।
कवचेशमिदं गोप्यं सिद्ध-विद्या-मयं परम् ।
ब्रह्मविद्यामयं गोप्यं यथेष्टफलदं शिवे ।। ३२ ।।
न कस्य कथितं चैतद् त्रैलोक्य विजयेश्वरम् ।
अस्य स्मरण-मात्रेण देवी सद्योवशी भवेत् ।। ३३ ।।
पठनाद् धारणादस्य कवचेशस्य साधकः ।
कलौ विचरते वीरो यथा श्रीबगलामुखी ।। ३४ ।।
इदं वर्म स्मरन् मन्त्री संग्रामे प्रविशेद् यदा ।
युयुत्सुः पठन् कवचं साधको विजयी भवेत् ।। ३५ ।।
शत्रुं काल-समानं तु जित्वा स्वगृहमेति सः ।
मूर्घ्नि धृत्वा यः कवचं मन्त्र-गर्भं सुसाधकः ।। ३६ ।।
ब्रह्माद्यमरान् सर्वान् सहसा वशमानयेत् ।
धृत्वा गले तु कवचं साधकस्य महेश्वरि ।। ३७ ।।
वशमायान्ति सहसा रम्भाद्यप्सरसां गणाः ।
उत्पातेषु घोरेषु भयेषु विवधेषु च ।। ३८ ।।
रोगेषु च कवचेशं मन्त्रगर्भं पठेन्नरः ।
कर्मणा मनसा वाचा तद्भयं शान्तिमेष्यति ।। ३९ ।।
श्रीदेव्या बगलामुख्याः कवचेशं मयोदितम् ।
त्रैलोक्य-विजयं नाम पुत्रपौत्र धनप्रदम् ।। ४० ।।
ऋणं च हस्ते सम्यक् लक्ष्मीर्भोगविवर्धिनी ।
बन्ध्या जनयते कुक्षौ पुत्र-रत्नं न चान्यथा ।। ४१ ।।
मृतवत्सा च विभृयात् कवचं च गले सदा ।
दीर्घायुर्व्याधिहीनश्च तत्पुत्रो वर्धतेऽनिशम् ।। ४२ ।।
इतीदं बगलामुख्याः कवचेशं सुदुर्लभम् ।
त्रैलोक्य-विजयं नाम न देयं यस्यकस्यचित् ।। ४३ ।।
अकुलीनाय मूढाय भक्तिहीनायदम्भिने ।
लोभयुक्ताय देवेशि न दातव्यं कदाचन् ।। ४४ ।।
लोभ-दम्भ-विहीनाय कवचेशं प्रदीयताम् ।
अभक्तेभ्यो अपुत्रेभ्यो दत्वा कुष्ठी भवेन्नरः ।। ४५ ।।
रवौ रात्रौ च सुस्नातः पूजागृहगतः सुधीः ।
दीपमुज्ज्वाल्य मूलेन पठेद्वर्मेदमुत्तमम् ।। ४६ ।।
प्राप्तौ सत्यां त्रिरात्रौ हि राजा तद्-गृहमेष्यति ।
मण्डलेशो महेशानि देवि सत्यं न संशय ।। ४७ ।।
इदं तु कवचेशं तु मया प्रोक्त नगात्मजे ।
गोप्यं गुह्यतरं देवि गोपनीयं स्वयोनिवत् ।। ४८ ।।
।। श्री विश्वयामले बगलामुख्यास्त्रैलोक्यविजयं कवचम् ।।
सिद्धि प्राप्ति हेतु काली के कुल्लुकादि मन्त्र
इष्ट सिद्धि हेतु इष्टदेवता के ‘कुल्लुकादि मंत्रों’ का जप अत्यन्त आवश्यक हैं ।
अज्ञात्वा कुल्लुकामेतां जपते योऽधमः प्रिये ।
पञ्चत्वमाशु लभते सिद्धिहानिश्च जायते ।।
दश महाविद्याओं के कुल्लिकादि अलग-अलग हैं । काली के कुल्लुकादि इस प्रकार हैं -
कुल्लुका मंत्र -
क्रीं, हूं, स्त्रीं, ह्रीं, फट् यह पञ्चाक्षरी मंत्र हैं । मूलमंत्र से षडङ्ग-न्यास करके शिर में १२ बार कुल्लुका मंत्र का जप करें ।
सेतुः-
“ॐ” इस मंत्र को १२ बार हृदय में जपें । ब्राह्मण एवं क्षत्रियों का सेतु मंत्र “ॐ” हैं । वैश्यों के लिये “फट्” तथा शूद्रों के लिये “ह्रीं” सेतु मंत्र हैं । इसका १२ बार हृदय में जप करें ।
महासेतुः-
“क्रीं” इस महासेतु मंत्र को कण्ठ-स्थान में १२ बार जप करें ।
निर्वाण जपः-
मणिपूर-चक्र (नाभि) में - ॐ अं पश्चात् मूलमंत्र के बाद ऐं अं आं इं ईं ऋं ॠं लृं ॡं एं ऐं ओं औं अं अः कं खं गं घं ङ चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं ळं क्षं ॐ का जप करें । पश्चात् “क्लीं” बीज को स्वाधिष्ठान चक्र में १२ बार जप करें । इसके बाद “ॐ ऐं ह्रीं शऽरीं क्रीं रां रीं रुं रैं रौं रं रः रमल वरयूं राकिनी मां रक्ष रक्ष मम सर्वधातून् रक्ष रक्ष सर्वसत्व वशंकरि देवि ! आगच्छागच्छ इमां पूजां गृह्ण गृह्ण ऐं घोरे देवि ! ह्रीं सः परम घोरे घोर स्वरुपे एहि एहि नमश्चामुण्डे डरलकसहै श्री दक्षिण-कालिके देवि वरदे विद्ये ! इस मन्त्र का शिर में द्वादश बार जप करें । इसके बाद ‘महाकुण्डलिनी’ का ध्यान कर इष्टमंत्र का जप करना चाहिए । मंत्र सिद्धि के लिये मंत्र के दश संस्कार भी आवश्यक हैं ।
जननं जीवनं पश्चात् ताडनं बोधनं तथा ।
अथाभिषेको विमलीकरणाप्यायनं पुनः ।
तर्पणं दीपनं गुप्तिर्दशैताः मंत्र संस्क्रियाः ।।
अज्ञात्वा कुल्लुकामेतां जपते योऽधमः प्रिये ।
पञ्चत्वमाशु लभते सिद्धिहानिश्च जायते ।।
दश महाविद्याओं के कुल्लिकादि अलग-अलग हैं । काली के कुल्लुकादि इस प्रकार हैं -
कुल्लुका मंत्र -
क्रीं, हूं, स्त्रीं, ह्रीं, फट् यह पञ्चाक्षरी मंत्र हैं । मूलमंत्र से षडङ्ग-न्यास करके शिर में १२ बार कुल्लुका मंत्र का जप करें ।
सेतुः-
“ॐ” इस मंत्र को १२ बार हृदय में जपें । ब्राह्मण एवं क्षत्रियों का सेतु मंत्र “ॐ” हैं । वैश्यों के लिये “फट्” तथा शूद्रों के लिये “ह्रीं” सेतु मंत्र हैं । इसका १२ बार हृदय में जप करें ।
महासेतुः-
“क्रीं” इस महासेतु मंत्र को कण्ठ-स्थान में १२ बार जप करें ।
निर्वाण जपः-
मणिपूर-चक्र (नाभि) में - ॐ अं पश्चात् मूलमंत्र के बाद ऐं अं आं इं ईं ऋं ॠं लृं ॡं एं ऐं ओं औं अं अः कं खं गं घं ङ चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं ळं क्षं ॐ का जप करें । पश्चात् “क्लीं” बीज को स्वाधिष्ठान चक्र में १२ बार जप करें । इसके बाद “ॐ ऐं ह्रीं शऽरीं क्रीं रां रीं रुं रैं रौं रं रः रमल वरयूं राकिनी मां रक्ष रक्ष मम सर्वधातून् रक्ष रक्ष सर्वसत्व वशंकरि देवि ! आगच्छागच्छ इमां पूजां गृह्ण गृह्ण ऐं घोरे देवि ! ह्रीं सः परम घोरे घोर स्वरुपे एहि एहि नमश्चामुण्डे डरलकसहै श्री दक्षिण-कालिके देवि वरदे विद्ये ! इस मन्त्र का शिर में द्वादश बार जप करें । इसके बाद ‘महाकुण्डलिनी’ का ध्यान कर इष्टमंत्र का जप करना चाहिए । मंत्र सिद्धि के लिये मंत्र के दश संस्कार भी आवश्यक हैं ।
जननं जीवनं पश्चात् ताडनं बोधनं तथा ।
अथाभिषेको विमलीकरणाप्यायनं पुनः ।
तर्पणं दीपनं गुप्तिर्दशैताः मंत्र संस्क्रियाः ।।
काली के विभिन्न भेद
काली के अलद-अलग तंत्रों में अनेक भेद हैं । कुछ पूर्व में बतलाये गये हैं । अन्यच्च आठ भेद इस प्रकार हैं -
१॰ संहार-काली, २॰ दक्षिण-काली, ३॰ भद्र-काली, ४॰ गुह्य-काली, ५॰ महा-काली, ६॰ वीर-काली, ७॰ उग्र-काली तथा ८॰ चण्ड-काली ।
‘कालिका-पुराण’ में उल्लेख हैं कि आदि-सृष्टि में भगवती ने महिषासुर को “उग्र-चण्डी” रुप से मारा एवं द्वितीयसृष्टि में ‘उग्र-चण्डी’ ही “महा-काली” अथवा महामाया कहलाई ।
योगनिद्रा महामाया जगद्धात्री जगन्मयी । भुजैः षोडशभिर्युक्ताः इसी का नाम “भद्रकाली” भी है । भगवती कात्यायनी ‘दशभुजा’ वाली दुर्गा है, उसी को “उग्र-काली” कहा है । कालिकापुराणे – कात्यायनीमुग्रकाली दुर्गामिति तु तांविदुः । “संहार-काली” की चार भुजाएँ हैं यही ‘धूम्र-लोचन’ का वध करने वाली हैं । “वीर-काली” अष्ट-भुजा हैं, इन्होंने ही चण्ड का विनाश किया “भुजैरष्टाभिरतुलैर्व्याप्याशेषं वमौ नमः” इसी ‘वीर-काली’ विषय में दुर्गा-सप्तशती में कहा हैं । “चण्ड-काली” की बत्तीस भुजाएँ हैं एवं शुम्भ का वध किया था । यथा – चण्डकाली तु या प्रोक्ता द्वात्रिंशद् भुज शोभिता ।
समयाचार रहस्य में उपरोक्त स्वरुपों से सम्बन्धित अन्य स्वरुप भेदों का वर्णन किया है ।
संहार-काली – १॰ प्रत्यंगिरा, २॰ भवानी, ३॰ वाग्वादिनी, ४॰ शिवा, ५॰ भेदों से युक्त भैरवी, ६॰ योगिनी, ७॰ शाकिनी, ८॰ चण्डिका, ९॰ रक्तचामुण्डा से सभी संहार-कालिका के भेद स्वरुप हैं । संहार कालिका का महामंत्र १२५ वर्ण का ‘मुण्ड-माला तंत्र’ में लिखा हैं, जो प्रबल-शत्रु-नाशक हैं ।
दक्षिण-कालिका -कराली, विकराली, उमा, मुञ्जुघोषा, चन्द्र-रेखा, चित्र-रेखा, त्रिजटा, द्विजा, एकजटा, नीलपताका, बत्तीस प्रकार की यक्षिणी, तारा और छिन्नमस्ता ये सभी दक्षिण कालिका के स्वरुप हैं ।
भद्र-काली - वारुणी, वामनी, राक्षसी, रावणी, आग्नेयी, महामारी, घुर्घुरी, सिंहवक्त्रा, भुजंगी, गारुडी, आसुरी-दुर्गा ये सभी भद्र-काली के विभिन्न रुप हैं ।
श्मशान-काली – भेदों से युक्त मातंगी, सिद्धकाली, धूमावती, आर्द्रपटी चामुण्डा, नीला, नीलसरस्वती, घर्मटी, भर्कटी, उन्मुखी तथा हंसी ये सभी श्मशान-कालिका के भेद रुप हैं ।
महा-काली - महामाया, वैष्णवी, नारसिंही, वाराही, ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, इत्यादि अष्ट-शक्तियाँ, भेदों से युक्त-धारा, गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा इत्यादि सब नदियाँ महाकाली का स्वरुप हैं ।
उग्र-काली - शूलिनी, जय-दुर्गा, महिषमर्दिनी दुर्गा, शैल-पुत्री इत्यादि नव-दुर्गाएँ, भ्रामरी, शाकम्भरी, बंध-मोक्षणिका ये सब उग्रकाली के विभिन्न नाम रुप हैं ।
वीर-काली -श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, पद्मावती, अन्नपूर्णा, रक्त-दंतिका, बाला-त्रिपुर-सुंदरी, षोडशी की एवं काली की षोडश नित्यायें, कालरात्ति, वशीनी, बगलामुखी ये सभी वीरकाली ये सभी वीरकाली के नाम भेद रुप हैं ।
१॰ संहार-काली, २॰ दक्षिण-काली, ३॰ भद्र-काली, ४॰ गुह्य-काली, ५॰ महा-काली, ६॰ वीर-काली, ७॰ उग्र-काली तथा ८॰ चण्ड-काली ।
‘कालिका-पुराण’ में उल्लेख हैं कि आदि-सृष्टि में भगवती ने महिषासुर को “उग्र-चण्डी” रुप से मारा एवं द्वितीयसृष्टि में ‘उग्र-चण्डी’ ही “महा-काली” अथवा महामाया कहलाई ।
योगनिद्रा महामाया जगद्धात्री जगन्मयी । भुजैः षोडशभिर्युक्ताः इसी का नाम “भद्रकाली” भी है । भगवती कात्यायनी ‘दशभुजा’ वाली दुर्गा है, उसी को “उग्र-काली” कहा है । कालिकापुराणे – कात्यायनीमुग्रकाली दुर्गामिति तु तांविदुः । “संहार-काली” की चार भुजाएँ हैं यही ‘धूम्र-लोचन’ का वध करने वाली हैं । “वीर-काली” अष्ट-भुजा हैं, इन्होंने ही चण्ड का विनाश किया “भुजैरष्टाभिरतुलैर्व्याप्याशेषं वमौ नमः” इसी ‘वीर-काली’ विषय में दुर्गा-सप्तशती में कहा हैं । “चण्ड-काली” की बत्तीस भुजाएँ हैं एवं शुम्भ का वध किया था । यथा – चण्डकाली तु या प्रोक्ता द्वात्रिंशद् भुज शोभिता ।
समयाचार रहस्य में उपरोक्त स्वरुपों से सम्बन्धित अन्य स्वरुप भेदों का वर्णन किया है ।
संहार-काली – १॰ प्रत्यंगिरा, २॰ भवानी, ३॰ वाग्वादिनी, ४॰ शिवा, ५॰ भेदों से युक्त भैरवी, ६॰ योगिनी, ७॰ शाकिनी, ८॰ चण्डिका, ९॰ रक्तचामुण्डा से सभी संहार-कालिका के भेद स्वरुप हैं । संहार कालिका का महामंत्र १२५ वर्ण का ‘मुण्ड-माला तंत्र’ में लिखा हैं, जो प्रबल-शत्रु-नाशक हैं ।
दक्षिण-कालिका -कराली, विकराली, उमा, मुञ्जुघोषा, चन्द्र-रेखा, चित्र-रेखा, त्रिजटा, द्विजा, एकजटा, नीलपताका, बत्तीस प्रकार की यक्षिणी, तारा और छिन्नमस्ता ये सभी दक्षिण कालिका के स्वरुप हैं ।
भद्र-काली - वारुणी, वामनी, राक्षसी, रावणी, आग्नेयी, महामारी, घुर्घुरी, सिंहवक्त्रा, भुजंगी, गारुडी, आसुरी-दुर्गा ये सभी भद्र-काली के विभिन्न रुप हैं ।
श्मशान-काली – भेदों से युक्त मातंगी, सिद्धकाली, धूमावती, आर्द्रपटी चामुण्डा, नीला, नीलसरस्वती, घर्मटी, भर्कटी, उन्मुखी तथा हंसी ये सभी श्मशान-कालिका के भेद रुप हैं ।
महा-काली - महामाया, वैष्णवी, नारसिंही, वाराही, ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, इत्यादि अष्ट-शक्तियाँ, भेदों से युक्त-धारा, गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा इत्यादि सब नदियाँ महाकाली का स्वरुप हैं ।
उग्र-काली - शूलिनी, जय-दुर्गा, महिषमर्दिनी दुर्गा, शैल-पुत्री इत्यादि नव-दुर्गाएँ, भ्रामरी, शाकम्भरी, बंध-मोक्षणिका ये सब उग्रकाली के विभिन्न नाम रुप हैं ।
वीर-काली -श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, पद्मावती, अन्नपूर्णा, रक्त-दंतिका, बाला-त्रिपुर-सुंदरी, षोडशी की एवं काली की षोडश नित्यायें, कालरात्ति, वशीनी, बगलामुखी ये सभी वीरकाली ये सभी वीरकाली के नाम भेद रुप हैं ।
।। कालिका के भेद ।।
काली सम्बन्ध में तंत्र-शास्त्र के 250-300 के लगभग ग्रंथ माने गये हैं, जिनमें बहुत से ग्रथं लुप्त है, कुछ पुस्तकालयों में सुरक्षित है । अंश मात्र ग्रंथ ही अवलोकन हेतु उपलब्ध हैं । ‘काम-धेनु तन्त्र’ में लिखा है कि –“काल संकलनात् काली कालग्रासं करोत्यतः” । तंत्रों में स्थान-स्थान पर शिव ने श्यामा काली (दक्षिणा-काली) औरसिद्धिकाली (गुह्यकाली) को केवल “काली” संज्ञा से पुकारा हैं । दशमहाविद्या के मत से तथा लघुक्रम औरह्याद्याम्ताय क्रम के मत से श्यामाकाली को आद्या, नीलकाली (तारा) को द्वितीया और प्रपञ्चेश्वरी रक्तकाली(महा-त्रिपुर सुन्दरी) को तृतीया कहते हैं, परन्तु श्यामाकाली आद्या काली नहीं आद्यविद्या हैं । पीताम्बरा बगलामुखी को पीतकाली भी कहा है ।
कालिका द्विविधा प्रोक्ता कृष्णा – रक्ता प्रभेदतः ।
कृष्णा तु दक्षिणा प्रोक्ता रक्ता तु सुन्दरीमता ।।
कालिका द्विविधा प्रोक्ता कृष्णा – रक्ता प्रभेदतः ।
कृष्णा तु दक्षिणा प्रोक्ता रक्ता तु सुन्दरीमता ।।
काली के अनेक भेद हैं -
पुरश्चर्यार्णवेः- १॰ दक्षिणाकाली, २॰ भद्रकाली, ३॰ श्मशानकाली, ४॰ कामकलाकाली, ५॰ गुह्यकाली, ६॰ कामकलाकाली, ७॰ धनकाली, ८॰ सिद्धिकाली तथा ९॰ चण्डीकाली ।
जयद्रथयामलेः- १॰ डम्बरकाली, २॰ गह्नेश्वरी काली, ३॰ एकतारा, ४॰ चण्डशाबरी, ५॰ वज्रवती, ६॰ रक्षाकाली, ७॰ इन्दीवरीकाली, ८॰ धनदा, ९॰ रमण्या, १०॰ ईशानकाली तथा ११॰ मन्त्रमाता ।
सम्मोहने तंत्रेः- १॰ स्पर्शकाली, २॰ चिन्तामणि, ३॰ सिद्धकाली, ४॰ विज्ञाराज्ञी, ५॰ कामकला, ६॰ हंसकाली, ७॰ गुह्यकाली ।
तंत्रान्तरेऽपिः- १॰ चिंतामणि काली, २॰ स्पर्शकाली, ३॰ सन्तति-प्रदा-काली, ४॰ दक्षिणा काली, ६॰ कामकला काली, ७॰ हंसकाली, ८॰ गुह्यकाली ।
उक्त सभी भेदों में से दक्षिणा और भद्रकाली ‘दक्षिणाम्नाय’ के अन्तर्गत हैं तथा गुह्यकाली, कामकलाकाली, महाकाली और महा-श्मशान-काली उत्तराम्नाय से सम्बन्धित है । काली की उपासना तीन आम्नायों से होती है । तंत्रों में कहा हैं “दक्षिणोपासकः का`लः” अर्थात् दक्षिणोपासक महाकाल के समान हो जाता हैं ।उत्तराम्नायोपासाक ज्ञान योग से ज्ञानी बन जाते हैं । ऊर्ध्वाम्नायोपासक पूर्णक्रम उपलब्ध करने से निर्वाणमुक्ति को प्राप्त करते हैं । दक्षिणाम्नाय में कामकला काली को कामकलादक्षिणाकाली कहते हैं । उत्तराम्नाय के उपासक भाषाकाली में कामकला गुह्यकाली की उपासना करते हैं । विस्तृत वर्णन पुरुश्चर्यार्णव में दिया गया है ।
गुह्यकाली की उपासना नेपाल में विशेष प्रचलित हैं । इसके मुख्य उपासक ब्रह्मा, वशिष्ठ, राम, कुबेर, यम, भरत, रावण, बालि, वासव, बलि, इन्द्र आदि हुए हैं ।
पुरश्चर्यार्णवेः- १॰ दक्षिणाकाली, २॰ भद्रकाली, ३॰ श्मशानकाली, ४॰ कामकलाकाली, ५॰ गुह्यकाली, ६॰ कामकलाकाली, ७॰ धनकाली, ८॰ सिद्धिकाली तथा ९॰ चण्डीकाली ।
जयद्रथयामलेः- १॰ डम्बरकाली, २॰ गह्नेश्वरी काली, ३॰ एकतारा, ४॰ चण्डशाबरी, ५॰ वज्रवती, ६॰ रक्षाकाली, ७॰ इन्दीवरीकाली, ८॰ धनदा, ९॰ रमण्या, १०॰ ईशानकाली तथा ११॰ मन्त्रमाता ।
सम्मोहने तंत्रेः- १॰ स्पर्शकाली, २॰ चिन्तामणि, ३॰ सिद्धकाली, ४॰ विज्ञाराज्ञी, ५॰ कामकला, ६॰ हंसकाली, ७॰ गुह्यकाली ।
तंत्रान्तरेऽपिः- १॰ चिंतामणि काली, २॰ स्पर्शकाली, ३॰ सन्तति-प्रदा-काली, ४॰ दक्षिणा काली, ६॰ कामकला काली, ७॰ हंसकाली, ८॰ गुह्यकाली ।
उक्त सभी भेदों में से दक्षिणा और भद्रकाली ‘दक्षिणाम्नाय’ के अन्तर्गत हैं तथा गुह्यकाली, कामकलाकाली, महाकाली और महा-श्मशान-काली उत्तराम्नाय से सम्बन्धित है । काली की उपासना तीन आम्नायों से होती है । तंत्रों में कहा हैं “दक्षिणोपासकः का`लः” अर्थात् दक्षिणोपासक महाकाल के समान हो जाता हैं ।उत्तराम्नायोपासाक ज्ञान योग से ज्ञानी बन जाते हैं । ऊर्ध्वाम्नायोपासक पूर्णक्रम उपलब्ध करने से निर्वाणमुक्ति को प्राप्त करते हैं । दक्षिणाम्नाय में कामकला काली को कामकलादक्षिणाकाली कहते हैं । उत्तराम्नाय के उपासक भाषाकाली में कामकला गुह्यकाली की उपासना करते हैं । विस्तृत वर्णन पुरुश्चर्यार्णव में दिया गया है ।
गुह्यकाली की उपासना नेपाल में विशेष प्रचलित हैं । इसके मुख्य उपासक ब्रह्मा, वशिष्ठ, राम, कुबेर, यम, भरत, रावण, बालि, वासव, बलि, इन्द्र आदि हुए हैं ।
दीक्षा क्रम
सर्वप्रथम १॰ चिंतामणि काली के एकाक्षर मंत्र “क्रीं” की दीक्षा लेवें । “क्रीं” को काली-प्रणव भी कहते हैं । आगे क्रम इस प्रकार हैं । २॰ स्पर्शमणि काली के “हूं हूं” बीज मंत्र की दीक्षा ग्रहण करें । ३॰ संततिप्रदा-काली - “हूं क्रीं ह्रीं” मंत्र की दीक्षा लेवें । ४॰ सिद्धि-काली - “ॐ ह्रीं क्रीं मे स्वाहा” की दीक्षा लेवें । ५॰ दक्षिणा-काली की उपासना करें । पश्चात्६॰ कामकला-काली, ७॰ हंस-काली तथा ८॰ गुह्य-काली के मंत्रों की क्रमशः दीक्षा ग्रहण करें । “महाविद्या क्रम” में दक्षिणा-काली के बाद माँ “तारा” के सार्द्धपञ्चाक्षर मंत्र की दीक्षा लेवें पश्चात् महाविद्या षोडशी के षोडशाक्षरी मंत्र की दीक्षा तथा त्र्यक्षरी विद्या मंत्र ग्रहण करें । इसके बाद छिन्नमस्ता मंत्र की दीक्षा ग्रहण कर महाकाल एवं वटुकमंत्र की आराधना क्रम पूर्वक करे ।
क्रमदीक्षा विषय में ‘महाकाल-संहिता’ में कहा है क्रमदीक्षा विहीनस्य सिद्धिहानिः पदे पदे । क्रमदीक्षा के बिना“पूर्णाभिषेक दीक्षा” लेना उचित नहीं हैं ।
क्रमदीक्षा विषय में ‘महाकाल-संहिता’ में कहा है क्रमदीक्षा विहीनस्य सिद्धिहानिः पदे पदे । क्रमदीक्षा के बिना“पूर्णाभिषेक दीक्षा” लेना उचित नहीं हैं ।
भगवती भद्रकाली के ध्यान
तन्त्रों में भगवती भद्रकाली का ध्यान इस प्रकार दिया गया है -
“डिम्भं डिम्भं सुडिम्भं पच मन दुहसां झ प्रकम्पं प्रझम्पं, विल्लं त्रिल्लं
त्रि-त्रिल्लं त्रिखलमख-मखा खं खमं खं खमं खम् ।
गूहं गूहं तु गुह्यं गुडलुगड गुदा दाडिया डिम्बुदेति,
नृत्यन्ती शब्दवाद्यैः प्रलयपितृवने श्रेयसे वोऽस्तु काली ।।”
“डिम्भं डिम्भं सुडिम्भं पच मन दुहसां झ प्रकम्पं प्रझम्पं, विल्लं त्रिल्लं
त्रि-त्रिल्लं त्रिखलमख-मखा खं खमं खं खमं खम् ।
गूहं गूहं तु गुह्यं गुडलुगड गुदा दाडिया डिम्बुदेति,
नृत्यन्ती शब्दवाद्यैः प्रलयपितृवने श्रेयसे वोऽस्तु काली ।।”
भद्रकाली के भी दो भेद हैं (१) विपरित प्रत्यंगिरा भद्रकाली तथा (२) षोडश भुजा दुर्गाभद्रकाली । मार्कण्डेय पुराणान्तर्गत दुर्गासप्तशती में जो काली अम्बिका के ललाट से उत्पन्न हुई, वह कालीपुराण से भिन्न हैं । उसका ध्यान इस प्रकार है -
नीलोत्पल-दल-श्यामा चतुर्बाहु समन्विता ।
खट्वांग चन्द्रहासञ्च चिभ्रती दक्षिणकरे ।।
वामे चर्म च पाशञ्च उर्ध्वाधो-भावतः पुनः ।
दधती मुण्डमालाञ्च व्याघ्र-चर्म वराम्बरा ।।
कृशांगी दीर्घदंष्ट्रा च अतिदीर्घाऽति भीषणा ।
लोल-जिह्वा निम्न-रक्त-नयना नादभैरवा ।।
कबन्धवाहना पीनविस्तार श्रवणानना ।।
नीलोत्पल-दल-श्यामा चतुर्बाहु समन्विता ।
खट्वांग चन्द्रहासञ्च चिभ्रती दक्षिणकरे ।।
वामे चर्म च पाशञ्च उर्ध्वाधो-भावतः पुनः ।
दधती मुण्डमालाञ्च व्याघ्र-चर्म वराम्बरा ।।
कृशांगी दीर्घदंष्ट्रा च अतिदीर्घाऽति भीषणा ।
लोल-जिह्वा निम्न-रक्त-नयना नादभैरवा ।।
कबन्धवाहना पीनविस्तार श्रवणानना ।।
‘दक्षिणकाली’ मन्त्र विग्रह हृदय में “प्रलय-कालीन-ध्यान” इस प्रकार है -
क्षुच्छ्यामां कोटराक्षीं प्रलय घन-घटां घोर-रुपां प्रचण्डां,
दिग्-वस्त्रां पिङ्ग-केशीं डमरु सृणिधृतां खड़गपाशाऽभयानि ।
नागं घण्टां कपालं करसरसिरुहैः कालिकां कृष्ण-वर्णां
ध्यायामि ध्येयमानां सकल-सुखकरीं कालिकां तां नमामि ।।
क्षुच्छ्यामां कोटराक्षीं प्रलय घन-घटां घोर-रुपां प्रचण्डां,
दिग्-वस्त्रां पिङ्ग-केशीं डमरु सृणिधृतां खड़गपाशाऽभयानि ।
नागं घण्टां कपालं करसरसिरुहैः कालिकां कृष्ण-वर्णां
ध्यायामि ध्येयमानां सकल-सुखकरीं कालिकां तां नमामि ।।
‘महाकाल-संहिता’ के शकारादि विश्वसाम्राज्य श्यामासहस्रनाम में “निर्गुण-ध्यान” इस प्रकार है -
ब्रह्मा-विष्णु शिवास्थि-मुण्ड-रसनां ताम्बूल रक्ताषांबराम् ।
वर्षा-मेघ-निभां त्रिशूल-मुशले पद्माऽसि पाशांकुशाम् ।।
शंखं साहिसुगंधृतां दशभुजां प्रेतासने संस्थिताम् ।
देवीं दक्षिणाकालिकां भगवतीं रक्ताम्बरां तां स्मरे ।।
विद्याऽविद्यादियुक्तां हरविधिनमितांनिष्कलां कालहन्त्रीं,
भक्ताभीष्ट-प्रदात्रीं कनक-निधि-कलांविन्मयानन्दरुपाम् ।
दोर्दण्ड चाप चक्रे परिघमथ शरा धारयन्तीं शिवास्थाम् ।
पद्मासीनां त्रिनेत्रामरुण रुचिमयीमिन्दुचूडां भजेऽहम् ।।
ब्रह्मा-विष्णु शिवास्थि-मुण्ड-रसनां ताम्बूल रक्ताषांबराम् ।
वर्षा-मेघ-निभां त्रिशूल-मुशले पद्माऽसि पाशांकुशाम् ।।
शंखं साहिसुगंधृतां दशभुजां प्रेतासने संस्थिताम् ।
देवीं दक्षिणाकालिकां भगवतीं रक्ताम्बरां तां स्मरे ।।
विद्याऽविद्यादियुक्तां हरविधिनमितांनिष्कलां कालहन्त्रीं,
भक्ताभीष्ट-प्रदात्रीं कनक-निधि-कलांविन्मयानन्दरुपाम् ।
दोर्दण्ड चाप चक्रे परिघमथ शरा धारयन्तीं शिवास्थाम् ।
पद्मासीनां त्रिनेत्रामरुण रुचिमयीमिन्दुचूडां भजेऽहम् ।।
“काली-विलास-तंत्र” में कृष्णमाता काली का ध्यान इस प्रकार दिया है -
जटा-जूट समायुक्तां चन्द्रार्द्ध-कृत शेखराम् ।
पूर्ण-चन्द्र-मुखीं देवीं त्रिलोचन समन्विताम् ।।
दलिताञ्जन संकाशां दशबाहु समन्विताम् ।
नवयौवन सम्पन्नां दिव्याभरण भूषिताम् ।।
दिड्मण्डलोज्जवलकरीं ब्रह्मादि परिपूजिताम् ।
वामे शूलं तथा खड्गं चक्रं वाणं तथैव च ।।
शक्तिं च धारयन्तीं तां परमानन्द रुपिणीम् ।
खेटकं पूर्णचापं च पाशमङ्कुशमेव च ।।
घण्टां वा परशुं वापि दक्षहस्ते च भूषिताम् ।
उग्रां भयानकां भीमां भेरुण्डां भीमनादिनीम् ।।
कालिका-जटिलां चैव भैरवीं पुत्रवेष्टिताम् ।
आभिः शक्तिरष्टाभिश्च सहितां कालिकां पराम् ।।
सुप्रसन्नां महादेवीं कृष्णक्रीडां परात् पराम् ।
चिन्तयेत् सततं देवीं धर्मकामार्थ मोक्षदाम् ।।
जटा-जूट समायुक्तां चन्द्रार्द्ध-कृत शेखराम् ।
पूर्ण-चन्द्र-मुखीं देवीं त्रिलोचन समन्विताम् ।।
दलिताञ्जन संकाशां दशबाहु समन्विताम् ।
नवयौवन सम्पन्नां दिव्याभरण भूषिताम् ।।
दिड्मण्डलोज्जवलकरीं ब्रह्मादि परिपूजिताम् ।
वामे शूलं तथा खड्गं चक्रं वाणं तथैव च ।।
शक्तिं च धारयन्तीं तां परमानन्द रुपिणीम् ।
खेटकं पूर्णचापं च पाशमङ्कुशमेव च ।।
घण्टां वा परशुं वापि दक्षहस्ते च भूषिताम् ।
उग्रां भयानकां भीमां भेरुण्डां भीमनादिनीम् ।।
कालिका-जटिलां चैव भैरवीं पुत्रवेष्टिताम् ।
आभिः शक्तिरष्टाभिश्च सहितां कालिकां पराम् ।।
सुप्रसन्नां महादेवीं कृष्णक्रीडां परात् पराम् ।
चिन्तयेत् सततं देवीं धर्मकामार्थ मोक्षदाम् ।।
कादि, हादि, सादि इत्यादि क्रम से कालिका के कई प्रकार के ध्यान हैं । जिस मंत्र के आदि में “क” हैं, वह “कादि-विद्या”, जिस मंत्र के आदि में “ह″ है वह “हादि-विद्या”, मंत्र में वाग् बीज हो वह “वागादि-विद्या” तथा जिस मंत्र के प्रारम्भ में “हूं” बीज हो वह “क्रोधादि-विद्या” कहलाती है ।
“नादिक्रम” में आदि में “नमः” का प्रयोग होता है एवं “दादि-क्रम” में मंत्र के आदि में “द” होता है, जैसे “दक्षिणे कालिके स्वाहा” । “प्रणवादि-क्रम” में मंत्र प्रारम्भ में “ॐ” का प्रयोग होता है ।
“नादिक्रम” में आदि में “नमः” का प्रयोग होता है एवं “दादि-क्रम” में मंत्र के आदि में “द” होता है, जैसे “दक्षिणे कालिके स्वाहा” । “प्रणवादि-क्रम” में मंत्र प्रारम्भ में “ॐ” का प्रयोग होता है ।
१॰ कादिक्रमोक्त ध्यानम् -
“करालवदनां घोरां मुक्तकेशीं चतुर्भुजाम् ।
कालिकां दक्षिणां दिव्यां मुण्डमाला विभूषिताम् ।।
सद्यश्छिन्नशिरः खडगं वामोर्ध्व कराम्बुजाम् ।
अभयं वरदं चैव दक्षिणोर्ध्वाधः पाणिकाम् ।।
महामेघ-प्रभां श्यामां तथा चैव दिगम्बरीम् ।
कण्ठावसक्तमुण्डालीं गलद्-रुधिरं चर्चिताम् ।।
कृर्णावतंसतानीत शव-युग्म भयानकाम् ।
घोरदंष्ट्रां करालास्यां पीनोन्नत-पयोधराम् ।।
शवानां कर-सङ्घातैः कृत-काञ्चीं हसन्मुखीम् ।
सृक्कद्वयगलद् रक्त-धारा विस्फुरिताननाम् ।।
घोर-रावां महा-रौद्रीं श्मशानालय-वासिनीम् ।
बालार्क-मण्डलाकार-लोचन-त्रियान्विताम् ।।
दन्तुरां दक्षिण-व्यापि मुक्तालम्बि कचोच्चयाम् ।
शवरुपं महादेव हृदयोपरि संस्थिताम् ।।
शिवामिर्घोर रावाभिश्चतुर्दिक्षु समन्विताम् ।
महाकालेन च समं विपरित-रतातुराम् ।।
सुखप्रसन्न-वदनां स्मेरानन सरोरुहाम ।
एवं सञ्चिन्तयेत् कालीं सर्वकामार्थ सिद्धिदाम् ।।
“करालवदनां घोरां मुक्तकेशीं चतुर्भुजाम् ।
कालिकां दक्षिणां दिव्यां मुण्डमाला विभूषिताम् ।।
सद्यश्छिन्नशिरः खडगं वामोर्ध्व कराम्बुजाम् ।
अभयं वरदं चैव दक्षिणोर्ध्वाधः पाणिकाम् ।।
महामेघ-प्रभां श्यामां तथा चैव दिगम्बरीम् ।
कण्ठावसक्तमुण्डालीं गलद्-रुधिरं चर्चिताम् ।।
कृर्णावतंसतानीत शव-युग्म भयानकाम् ।
घोरदंष्ट्रां करालास्यां पीनोन्नत-पयोधराम् ।।
शवानां कर-सङ्घातैः कृत-काञ्चीं हसन्मुखीम् ।
सृक्कद्वयगलद् रक्त-धारा विस्फुरिताननाम् ।।
घोर-रावां महा-रौद्रीं श्मशानालय-वासिनीम् ।
बालार्क-मण्डलाकार-लोचन-त्रियान्विताम् ।।
दन्तुरां दक्षिण-व्यापि मुक्तालम्बि कचोच्चयाम् ।
शवरुपं महादेव हृदयोपरि संस्थिताम् ।।
शिवामिर्घोर रावाभिश्चतुर्दिक्षु समन्विताम् ।
महाकालेन च समं विपरित-रतातुराम् ।।
सुखप्रसन्न-वदनां स्मेरानन सरोरुहाम ।
एवं सञ्चिन्तयेत् कालीं सर्वकामार्थ सिद्धिदाम् ।।
२॰ “क्रोध-क्रम” का ध्यान इस प्रकार है -
दीपं त्रिकोण विपुलं सर्वतः सुमनोहराम् ।
कूजत् कोकिला नादाढ्यं मन्दमारुत सेवितम् ।।
भृंङ्गपुष्पलताकीर्ण मुद्यच्चन्द्र दिवाकरम् ।
स्मृत्वा सुधाब्धिमध्यस्थं तस्मिन् माणिक्य-मण्डपे ।।
रत्न-सिंहासने पद्मे त्रिकोणेज्ज्वल कर्णिके ।
पीठे सञ्चिन्तयेत् देवीं साक्षात् त्रैलोक्यसुन्दरीम् ।।
नीलनीरज सङ्काशां प्रत्यालीढ पदास्थिताम् ।
चतुर्भुजां त्रिनयनां खण्डेन्दुकृत शेखराम् ।।
लम्बोदरीं विशालाक्षीं श्वेत-प्रेतासन-स्थिताम् ।
दक्षिणोर्ध्वेन निस्तृंशं वामोर्ध्वनीलनीरजम् ।।
कपालं दधतीं चैव दक्षिणाधश्च कर्तृकाम् ।
नागाष्टकेन सम्बद्ध जटाजूटां सुरार्चिताम् ।।
रक्तवर्तुल-नेत्राश्च प्रव्यक्त दशनोज्जवलाम् ।
व्याघ्र-चर्म-परीधानां गन्धाष्टक प्रलेपिताम् ।।
ताम्बूल-पूर्ण-वदनां सुरासुर नमस्कृताम् ।
एवं सञ्चिनतयेत् कालीं सर्वाभीष्टाप्रदां शिवाम् ।।
दीपं त्रिकोण विपुलं सर्वतः सुमनोहराम् ।
कूजत् कोकिला नादाढ्यं मन्दमारुत सेवितम् ।।
भृंङ्गपुष्पलताकीर्ण मुद्यच्चन्द्र दिवाकरम् ।
स्मृत्वा सुधाब्धिमध्यस्थं तस्मिन् माणिक्य-मण्डपे ।।
रत्न-सिंहासने पद्मे त्रिकोणेज्ज्वल कर्णिके ।
पीठे सञ्चिन्तयेत् देवीं साक्षात् त्रैलोक्यसुन्दरीम् ।।
नीलनीरज सङ्काशां प्रत्यालीढ पदास्थिताम् ।
चतुर्भुजां त्रिनयनां खण्डेन्दुकृत शेखराम् ।।
लम्बोदरीं विशालाक्षीं श्वेत-प्रेतासन-स्थिताम् ।
दक्षिणोर्ध्वेन निस्तृंशं वामोर्ध्वनीलनीरजम् ।।
कपालं दधतीं चैव दक्षिणाधश्च कर्तृकाम् ।
नागाष्टकेन सम्बद्ध जटाजूटां सुरार्चिताम् ।।
रक्तवर्तुल-नेत्राश्च प्रव्यक्त दशनोज्जवलाम् ।
व्याघ्र-चर्म-परीधानां गन्धाष्टक प्रलेपिताम् ।।
ताम्बूल-पूर्ण-वदनां सुरासुर नमस्कृताम् ।
एवं सञ्चिनतयेत् कालीं सर्वाभीष्टाप्रदां शिवाम् ।।
३॰ “हादि-क्रम” का ध्यान इस प्रकार है -
देव्याध्यानमहं वक्ष्ये सर्वदेवोऽप शोभितम् ।
अञ्नाद्रिनिभां देवीं करालवदनां शिवाम् ।।
मुण्डमालावलीकीर्णां मुक्तकेशीं स्मिताननाम् ।
महाकाल हृदम्भोजस्थितां पीनपयोधराम् ।।
विपरीतरतासक्तां घोरदंष्ट्रां शिवेन वै ।
नागयज्ञोपवीतां च चन्द्रार्द्धकृत शेखराम् ।।
सर्वालंकार संयुक्तां मुक्तामणि विभूषिताम् ।
मृतहस्तसहस्रैस्तु बद्धकाञ्ची दिगम्बराम् ।।
शिवाकोटि ससहस्रैस्तु योगिनीभिर्विराजजिताम् ।
रक्तपूर्ण मुखाम्भोजां सद्यः पानप्रमम्तिकाम् ।।
सद्यश्छिन्नशिरः खड्ग वामोर्ध्धः कराम्बुजाम् ।
अभयवरदं दक्षोर्ध्वाधः करां परमेश्वरीम् ।।
वह्नयर्क -शशिनेत्रां च रण-विस्फुरिताननाम् ।
विगतासु किशोराभ्यां कृतवर्णावतंसिनीम् ।।
देव्याध्यानमहं वक्ष्ये सर्वदेवोऽप शोभितम् ।
अञ्नाद्रिनिभां देवीं करालवदनां शिवाम् ।।
मुण्डमालावलीकीर्णां मुक्तकेशीं स्मिताननाम् ।
महाकाल हृदम्भोजस्थितां पीनपयोधराम् ।।
विपरीतरतासक्तां घोरदंष्ट्रां शिवेन वै ।
नागयज्ञोपवीतां च चन्द्रार्द्धकृत शेखराम् ।।
सर्वालंकार संयुक्तां मुक्तामणि विभूषिताम् ।
मृतहस्तसहस्रैस्तु बद्धकाञ्ची दिगम्बराम् ।।
शिवाकोटि ससहस्रैस्तु योगिनीभिर्विराजजिताम् ।
रक्तपूर्ण मुखाम्भोजां सद्यः पानप्रमम्तिकाम् ।।
सद्यश्छिन्नशिरः खड्ग वामोर्ध्धः कराम्बुजाम् ।
अभयवरदं दक्षोर्ध्वाधः करां परमेश्वरीम् ।।
वह्नयर्क -शशिनेत्रां च रण-विस्फुरिताननाम् ।
विगतासु किशोराभ्यां कृतवर्णावतंसिनीम् ।।
४॰ “वागादि-क्रम” का ध्यान इस प्रकार है -
चतुर्भुजां कृष्णवर्णां मुण्डमाला विभूषिताम् ।
खड्गं च दक्षिणे पाणौ विभ्रतीं सशरं धनुः ।।
मुण्डं च खर्परं चैव क्रमाद् वामे च विभ्रतीम् ।
द्यां लिखन्तीं जटामेकां विभ्रतीं शिरसा स्वयम् ।।
मुण्डमालाधरां शीर्षे ग्रीवायामपि सर्वदा ।
वक्षसा नागहारं तु विभ्रतीं रक्तलोचनाम् ।।
कृष्णवर्णधरां दिव्यां व्याघ्राजिन समन्विताम् ।
वामपादं शवहृदि संस्थाप्य दक्षिणं पदम् ।।
विन्यस्य सिंहपृष्ठे च लेलिहानां शवं स्वयम् ।
सट्टहासां महाशवयुक्तां महाविभीषिणा ।।
एवं विचिन्त्या भक्तैस्तु कालिका परमेश्वरी ।
सततं भक्तियुक्तैस्तु भोगेश्वर्यामभीप्सुभिः ।।
चतुर्भुजां कृष्णवर्णां मुण्डमाला विभूषिताम् ।
खड्गं च दक्षिणे पाणौ विभ्रतीं सशरं धनुः ।।
मुण्डं च खर्परं चैव क्रमाद् वामे च विभ्रतीम् ।
द्यां लिखन्तीं जटामेकां विभ्रतीं शिरसा स्वयम् ।।
मुण्डमालाधरां शीर्षे ग्रीवायामपि सर्वदा ।
वक्षसा नागहारं तु विभ्रतीं रक्तलोचनाम् ।।
कृष्णवर्णधरां दिव्यां व्याघ्राजिन समन्विताम् ।
वामपादं शवहृदि संस्थाप्य दक्षिणं पदम् ।।
विन्यस्य सिंहपृष्ठे च लेलिहानां शवं स्वयम् ।
सट्टहासां महाशवयुक्तां महाविभीषिणा ।।
एवं विचिन्त्या भक्तैस्तु कालिका परमेश्वरी ।
सततं भक्तियुक्तैस्तु भोगेश्वर्यामभीप्सुभिः ।।
५॰ “नादि-क्रम” का ध्यान -
खड्गं च दक्षिणे पादौ विभ्रतीन्दीवरद्वयम् ।
कर्तृकां खर्परं चैव क्रमाद् भुजयोद्वयं करान्विताम् ।।
खड्गं च दक्षिणे पादौ विभ्रतीन्दीवरद्वयम् ।
कर्तृकां खर्परं चैव क्रमाद् भुजयोद्वयं करान्विताम् ।।
६॰ “दादि-क्रम” का ध्यान -
सद्यः कृन्तशिरः खड्गमूर्ध्वद्वय कराम्बुजाम् ।
अभयं वरदंतु भुजयोद्वयं करान्विताम् ।।
सद्यः कृन्तशिरः खड्गमूर्ध्वद्वय कराम्बुजाम् ।
अभयं वरदंतु भुजयोद्वयं करान्विताम् ।।
७॰ प्रणवादि-क्रम” का ध्यान -
मंत्र के प्रारम्भ में “ॐ” प्रयुक्त होता है, उनका ध्यान “कादि-क्रम” के अनुसार करें ।
मंत्र के प्रारम्भ में “ॐ” प्रयुक्त होता है, उनका ध्यान “कादि-क्रम” के अनुसार करें ।
श्रीबगलाष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम्
।। श्रीनारद उवाच ।।
भगवन्, देव-देवेश ! सृष्टि-स्थिति-लयात्मकम् ।
शतमष्टोत्तरं नाम्नां, बगलाया वदाधुना ।।
।। श्रीभगवानुवाच ।।
श्रृणु वत्स ! प्रवक्ष्यामि, नाम्नामष्टोत्तरं शतम् ।
पीताम्बर्या महा-देव्याः, स्तोत्रं पाप-प्रणाशनम् ।।
यस्य प्रपठनात् सद्यो, वादी मूको भवेत् क्षणात् ।
रिपूणां स्तम्भनं गाति, सत्यं सत्यं चदाम्यहम् ।।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीपीताम्बरायाः शतमष्टोत्तरं नाम्नां स्तोत्रस्य, श्रीसदा-शिव ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्रीपीताम्बरा देवता, श्रीपीताम्बरा प्रीतये जपे विनियोगः ।
ऋष्यादिन्यासः- श्रीसदा-शिव ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे, श्रीपीताम्बरा देवतायै नमः हृदि, श्रीपीताम्बरा प्रीतये जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
।।अष्टोत्तर-शत-नाम-स्तोत्र ।।
ॐ बगला विष्णु-वनिता, विष्णु-शंकर-भामिनी ।
बहुला वेद-माता च, महा-विष्णु-प्रसूरपि ।।1।।
महा-मत्स्या महा-कूर्मा, महा-वाराह-रूपिणी ।
नरसिंह-प्रिया रम्या, वामना वटु-रूपिणी ।।2।।
जामदग्न्य-स्वरूपा च, रामा राम-प्रपूजिता ।
कृष्णा कपर्दिनी कृत्या, कलहा कल-कारिणी ।।3।।
बुद्धि-रूपा बुद्ध-भार्या, बौद्ध-पाखण्ड-खण्डिनी ।
कल्कि-रूपा कलि-हरा, कलि-दुर्गति-नाशिनी ।।4।।
कोटि-सूर्य-प्रतिकाशा, कोटि-कन्दर्प-मोहिनी ।
केवला कठिना काली, कला कैवल्य-दायिनी ।।5।।
केशवी केशवाराध्या, किशोरी केशव-स्तुता ।
रूद्र-रूपा रूद्र-मूर्ति, रूद्राणी रूद्र-देवता ।।6।।
नक्षत्र-रूपा नक्षत्रा, नक्षत्रेश-प्रपूजिता ।
नक्षत्रेश-प्रिया नित्या, नक्षत्र-पति-वन्दिता ।।7।।
नागिनी नाग-जननि, नाग-राज-प्रवन्दिता ।
नागेश्वरी नाग-कन्या, नागरी च नगात्मजा ।।8।।
नगाधिराज-तनया, नग-राज-प्रपूजिता ।
नवीन नीरदा पीता, श्यामा सौन्दर्य-कारिणी ।।9।।
रक्ता नीला घना शुभ्रा, श्वेता सौभाग्य-दायिनी ।
सुन्दरी सौभगा सौम्या, स्वर्णभा स्वर्गति-प्रदा ।।10।।
रिपु-त्रास-करी रेखा, शत्रु-संहार-कारिणी ।
भामिनी च तथा माया, स्तम्भिनी मोहिनी शुभा।।12।।
राग-द्वेष-करी रात्रि, रौरव-ध्वसं-कारिणी ।
यक्षिणी सिद्ध-निवहा सिद्धेशा सिद्धि-रूपिणी ।।13।।
लंका-पति-ध्वसं-करी, लंकेश-रिपु-वन्दिता ।
लंका-नाथ – कुल-हरा, महा-रावण-हारिणी ।।14।।
देव-दानव-सिद्धौघ-पूजिता परमेश्वरी ।
पराणु-रूपा परमा, पर-तन्त्र-विनाशिनी ।।15।।
वरदा वरदाऽऽराध्या, वर-दान-परायणा ।
वर-देश-प्रिया वीरा, वीर-भूषण-भूषिता ।।16।।
वसुदा बहुदा वाणी, ब्रह्म-रूपा वरानना ।
बलदा पीत-वसना, पीत-भूषण-भूषिता ।।17।।
पीत-पुष्प-प्रिया पीत-हारा पीत-स्वरूपिणी ।
शुभं ते कथितं विप्र ! नाम्नामष्टोत्तरं शतम् ।।18।।
।।फल-श्रुति।।
यः पठेद् पाठयेद् वापि, श्रृणुयाद् ना समाहितः ।
तस्य शत्रुः क्षयं सद्यो, याति वै नात्र संशयः ।।
प्रभात-काले प्रयतो मनुष्यः, पठेत् सु-भक्त्या परिचिन्त्य पीताम् ।
द्रुतं भवेत् तस्य समस्त-वृद्धिर्विनाशमायाति च तस्य शत्रुः ।।
।। श्रीविष्णु-यामले श्रीनारद-विष्णु-सम्वादे। श्रीबगलाऽष्टोत्तर-शत-नाम-स्तोत्रं ।।
भगवन्, देव-देवेश ! सृष्टि-स्थिति-लयात्मकम् ।
शतमष्टोत्तरं नाम्नां, बगलाया वदाधुना ।।
।। श्रीभगवानुवाच ।।
श्रृणु वत्स ! प्रवक्ष्यामि, नाम्नामष्टोत्तरं शतम् ।
पीताम्बर्या महा-देव्याः, स्तोत्रं पाप-प्रणाशनम् ।।
यस्य प्रपठनात् सद्यो, वादी मूको भवेत् क्षणात् ।
रिपूणां स्तम्भनं गाति, सत्यं सत्यं चदाम्यहम् ।।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीपीताम्बरायाः शतमष्टोत्तरं नाम्नां स्तोत्रस्य, श्रीसदा-शिव ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्रीपीताम्बरा देवता, श्रीपीताम्बरा प्रीतये जपे विनियोगः ।
ऋष्यादिन्यासः- श्रीसदा-शिव ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे, श्रीपीताम्बरा देवतायै नमः हृदि, श्रीपीताम्बरा प्रीतये जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
।।अष्टोत्तर-शत-नाम-स्तोत्र ।।
ॐ बगला विष्णु-वनिता, विष्णु-शंकर-भामिनी ।
बहुला वेद-माता च, महा-विष्णु-प्रसूरपि ।।1।।
महा-मत्स्या महा-कूर्मा, महा-वाराह-रूपिणी ।
नरसिंह-प्रिया रम्या, वामना वटु-रूपिणी ।।2।।
जामदग्न्य-स्वरूपा च, रामा राम-प्रपूजिता ।
कृष्णा कपर्दिनी कृत्या, कलहा कल-कारिणी ।।3।।
बुद्धि-रूपा बुद्ध-भार्या, बौद्ध-पाखण्ड-खण्डिनी ।
कल्कि-रूपा कलि-हरा, कलि-दुर्गति-नाशिनी ।।4।।
कोटि-सूर्य-प्रतिकाशा, कोटि-कन्दर्प-मोहिनी ।
केवला कठिना काली, कला कैवल्य-दायिनी ।।5।।
केशवी केशवाराध्या, किशोरी केशव-स्तुता ।
रूद्र-रूपा रूद्र-मूर्ति, रूद्राणी रूद्र-देवता ।।6।।
नक्षत्र-रूपा नक्षत्रा, नक्षत्रेश-प्रपूजिता ।
नक्षत्रेश-प्रिया नित्या, नक्षत्र-पति-वन्दिता ।।7।।
नागिनी नाग-जननि, नाग-राज-प्रवन्दिता ।
नागेश्वरी नाग-कन्या, नागरी च नगात्मजा ।।8।।
नगाधिराज-तनया, नग-राज-प्रपूजिता ।
नवीन नीरदा पीता, श्यामा सौन्दर्य-कारिणी ।।9।।
रक्ता नीला घना शुभ्रा, श्वेता सौभाग्य-दायिनी ।
सुन्दरी सौभगा सौम्या, स्वर्णभा स्वर्गति-प्रदा ।।10।।
रिपु-त्रास-करी रेखा, शत्रु-संहार-कारिणी ।
भामिनी च तथा माया, स्तम्भिनी मोहिनी शुभा।।12।।
राग-द्वेष-करी रात्रि, रौरव-ध्वसं-कारिणी ।
यक्षिणी सिद्ध-निवहा सिद्धेशा सिद्धि-रूपिणी ।।13।।
लंका-पति-ध्वसं-करी, लंकेश-रिपु-वन्दिता ।
लंका-नाथ – कुल-हरा, महा-रावण-हारिणी ।।14।।
देव-दानव-सिद्धौघ-पूजिता परमेश्वरी ।
पराणु-रूपा परमा, पर-तन्त्र-विनाशिनी ।।15।।
वरदा वरदाऽऽराध्या, वर-दान-परायणा ।
वर-देश-प्रिया वीरा, वीर-भूषण-भूषिता ।।16।।
वसुदा बहुदा वाणी, ब्रह्म-रूपा वरानना ।
बलदा पीत-वसना, पीत-भूषण-भूषिता ।।17।।
पीत-पुष्प-प्रिया पीत-हारा पीत-स्वरूपिणी ।
शुभं ते कथितं विप्र ! नाम्नामष्टोत्तरं शतम् ।।18।।
।।फल-श्रुति।।
यः पठेद् पाठयेद् वापि, श्रृणुयाद् ना समाहितः ।
तस्य शत्रुः क्षयं सद्यो, याति वै नात्र संशयः ।।
प्रभात-काले प्रयतो मनुष्यः, पठेत् सु-भक्त्या परिचिन्त्य पीताम् ।
द्रुतं भवेत् तस्य समस्त-वृद्धिर्विनाशमायाति च तस्य शत्रुः ।।
।। श्रीविष्णु-यामले श्रीनारद-विष्णु-सम्वादे। श्रीबगलाऽष्टोत्तर-शत-नाम-स्तोत्रं ।।
ब्रह्मास्त्र उपसंहार विद्या
यदि शत्रु भी बगला ब्रह्मास्त्र का ज्ञाता है, परप्रयोग भारी है तो यह कालरात्रि का मंत्र शीघ्र काम करता है, कृत्या व शत्रु शक्ति को सम्मोहित कर निष्प्राण कर शिथिल कर देता है ।
मंत्रः- ग्लौं हूं ऐं ह्रीं ह्रीं श्रीं कालि कालि महाकालि एहि एहि कालरात्रि आवेशय आवेशय महामोहे महामोहे स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर स्तंभनास्त्र शमनि हुं फट् स्वाहा ।
मंत्रः- ग्लौं हूं ऐं ह्रीं ह्रीं श्रीं कालि कालि महाकालि एहि एहि कालरात्रि आवेशय आवेशय महामोहे महामोहे स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर स्तंभनास्त्र शमनि हुं फट् स्वाहा ।
बगलामुखी मंत्र प्रयोग
बगलामुखी एकाक्षरी मंत्र –
|| ह्लीं ||
इसे स्थिर माया कहते हैं । यह मंत्र दक्षिण आम्नाय का है । दक्षिणाम्नाय में बगलामुखी के दो भुजायें हैं । अन्य बीज “ह्रीं” का उल्लेख भी बगलामुखी के मंत्रों में आता है, इसे “भुवन-माया” भी कहते हैं । चतुर्भुज रुप में यह विद्या विपरीत गायत्री (ब्रह्मास्त्र विद्या) बन जाती है । ह्रीं बीज-युक्त अथवा चतुर्भुज ध्यान में बगलामुखी उत्तराम्नाय या उर्ध्वाम्नायात्मिका होती है । ह्ल्रीं बीज का उल्लेख ३६ अक्षर मंत्र में होता है ।
(सांख्यायन तन्त्र)
विनियोगः- ॐ अस्य एकाक्षरी बगला मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः, बगलामुखी देवता, लं बीजं, ह्रीं शक्तिः ईं कीलकं, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- ब्रह्मा ऋषये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, बगलामुखी देवतायै नमः हृदि, लं बीजाय नमः गुह्ये, ह्रीं शक्तये नमः पादयो, ईं कीलकाय नमः नाभौ, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
|| ह्लीं ||
इसे स्थिर माया कहते हैं । यह मंत्र दक्षिण आम्नाय का है । दक्षिणाम्नाय में बगलामुखी के दो भुजायें हैं । अन्य बीज “ह्रीं” का उल्लेख भी बगलामुखी के मंत्रों में आता है, इसे “भुवन-माया” भी कहते हैं । चतुर्भुज रुप में यह विद्या विपरीत गायत्री (ब्रह्मास्त्र विद्या) बन जाती है । ह्रीं बीज-युक्त अथवा चतुर्भुज ध्यान में बगलामुखी उत्तराम्नाय या उर्ध्वाम्नायात्मिका होती है । ह्ल्रीं बीज का उल्लेख ३६ अक्षर मंत्र में होता है ।
(सांख्यायन तन्त्र)
विनियोगः- ॐ अस्य एकाक्षरी बगला मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः, बगलामुखी देवता, लं बीजं, ह्रीं शक्तिः ईं कीलकं, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- ब्रह्मा ऋषये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, बगलामुखी देवतायै नमः हृदि, लं बीजाय नमः गुह्ये, ह्रीं शक्तये नमः पादयो, ईं कीलकाय नमः नाभौ, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास | कर-न्यास | अंग-न्यास |
ह्लां | अंगुष्ठाभ्यां नमः | हृदयाय नमः |
ह्लीं | तर्जनीभ्यां नमः | शिरसे स्वाहा |
ह्लूं | मध्यमाभ्यां नमः | शिखायै वषट् |
ह्लैं | अनामिकाभ्यां नमः | कवचाय हुं |
ह्लौं | कनिष्ठिकाभ्यां नमः | नेत्र-त्रयाय वौषट् |
ह्लः | करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः | अस्त्राय फट् |
ध्यानः- हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे -
वादीभूकति रंकति क्षिति-पतिः वैश्वानरः शीतति,
क्रोधी शान्तति दुर्जनः सुजनति क्षिप्रानुगः खञ्जति ।
गर्वी खर्वति सर्व-विच्च जड़ति त्वद्यन्त्रणा यन्त्रितः,
श्रीनित्ये ! बगलामुखि ! प्रतिदिनं कल्याणि ! तुभ्यं नमः ।।
वादीभूकति रंकति क्षिति-पतिः वैश्वानरः शीतति,
क्रोधी शान्तति दुर्जनः सुजनति क्षिप्रानुगः खञ्जति ।
गर्वी खर्वति सर्व-विच्च जड़ति त्वद्यन्त्रणा यन्त्रितः,
श्रीनित्ये ! बगलामुखि ! प्रतिदिनं कल्याणि ! तुभ्यं नमः ।।
एक लाख जप कर, पीत-पुष्पों से हवन करे, गुड़ोदक से दशांश तर्पण करे ।
विशेषः- “श्रीबगलामुखी-रहस्यं” में शक्ति ‘हूं’ बतलाई गई है तथा ध्यान में पाठन्तर है – ‘शान्तति’ के स्थान पर‘शाम्यति’ ।
विशेषः- “श्रीबगलामुखी-रहस्यं” में शक्ति ‘हूं’ बतलाई गई है तथा ध्यान में पाठन्तर है – ‘शान्तति’ के स्थान पर‘शाम्यति’ ।
बगलामुखी त्र्यक्षर मंत्र -
|| ॐ ह्लीं ॐ ||
बगलामुखी चतुरक्षर मन्त्र -
|| ॐ आं ह्लीं क्रों ||
(सांख्यायन तन्त्र)
विनियोगः- ॐ अस्य चतुरक्षर बगला मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः, बगलामुखी देवता, ह्लीं बीजं, आं शक्तिः क्रों कीलकं, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- ब्रह्मा ऋषये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, बगलामुखी देवतायै नमः हृदि, ह्लीं बीजाय नमः गुह्ये, आं शक्तये नमः पादयो, क्रों कीलकाय नमः नाभौ, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
(सांख्यायन तन्त्र)
विनियोगः- ॐ अस्य चतुरक्षर बगला मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः, बगलामुखी देवता, ह्लीं बीजं, आं शक्तिः क्रों कीलकं, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- ब्रह्मा ऋषये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, बगलामुखी देवतायै नमः हृदि, ह्लीं बीजाय नमः गुह्ये, आं शक्तये नमः पादयो, क्रों कीलकाय नमः नाभौ, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास | कर-न्यास | अंग-न्यास |
ॐ ह्लां | अंगुष्ठाभ्यां नमः | हृदयाय नमः |
ॐ ह्लीं | तर्जनीभ्यां नमः | शिरसे स्वाहा |
ॐ ह्लूं | मध्यमाभ्यां नमः | शिखायै वषट् |
ॐ ह्लैं | अनामिकाभ्यां नमः | कवचाय हुं |
ॐ ह्लौं | कनिष्ठिकाभ्यां नमः | नेत्र-त्रयाय वौषट् |
ॐ ह्लः | करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः | अस्त्राय फट् |
ध्यानः- हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे -
कुटिलालक-संयुक्तां मदाघूर्णित-लोचनां,
मदिरामोद-वदनां प्रवाल-सदृशाधराम् ।
सुवर्ण-कलश-प्रख्य-कठिन-स्तन-मण्डलां,
आवर्त्त-विलसन्नाभिं सूक्ष्म-मध्यम-संयुताम् ।
रम्भोरु-पाद-पद्मां तां पीत-वस्त्र-समावृताम् ।।
कुटिलालक-संयुक्तां मदाघूर्णित-लोचनां,
मदिरामोद-वदनां प्रवाल-सदृशाधराम् ।
सुवर्ण-कलश-प्रख्य-कठिन-स्तन-मण्डलां,
आवर्त्त-विलसन्नाभिं सूक्ष्म-मध्यम-संयुताम् ।
रम्भोरु-पाद-पद्मां तां पीत-वस्त्र-समावृताम् ।।
पुरश्चरण में चार लाख जप कर, मधूक-पुष्प-मिश्रित जल से दशांश तर्पण कर घृत-शर्करा-युक्त पायस से दशांश हवन ।
बगलामुखी पञ्चाक्षर मंत्र -
|| ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट् ||
विनियोगः- ॐ अस्य पञ्चाक्षर बगला मंत्रस्य अक्षोभ्य ऋषिः, वृहती छन्दः, श्रीबगलामुखी चिन्मयी देवता, हूं बीजं, फट् शक्तिः, ह्रीं स्त्रीं कीलकं, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- अक्षोभ्य ऋषये नमः शिरसि, वृहती छन्दसे नमः मुखे, श्रीबगलामुखी चिन्मयी देवतायै नमः हृदि, हूं बीजाय नमः गुह्ये, फट् शक्तये नमः पादयो, ह्रीं स्त्रीं कीलकाय नमः नाभौ, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
विनियोगः- ॐ अस्य पञ्चाक्षर बगला मंत्रस्य अक्षोभ्य ऋषिः, वृहती छन्दः, श्रीबगलामुखी चिन्मयी देवता, हूं बीजं, फट् शक्तिः, ह्रीं स्त्रीं कीलकं, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- अक्षोभ्य ऋषये नमः शिरसि, वृहती छन्दसे नमः मुखे, श्रीबगलामुखी चिन्मयी देवतायै नमः हृदि, हूं बीजाय नमः गुह्ये, फट् शक्तये नमः पादयो, ह्रीं स्त्रीं कीलकाय नमः नाभौ, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास | कर-न्यास | अंग-न्यास |
ह्रां | अंगुष्ठाभ्यां नमः | हृदयाय नमः |
ह्रीं | तर्जनीभ्यां नमः | शिरसे स्वाहा |
ह्रूं | मध्यमाभ्यां नमः | शिखायै वषट् |
ह्रैं | अनामिकाभ्यां नमः | कवचाय हुं |
ह्रौं | कनिष्ठिकाभ्यां नमः | नेत्र-त्रयाय वौषट् |
ह्रः | करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः | अस्त्राय फट् |
ध्यानः- हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे -
प्रत्यालीढ-परां घोरां मुण्ड-माला-विभूषितां,
खर्वां लम्बोदरीं भीमां पीताम्बर-परिच्छदाम् ।।
नव-यौवन संपन्नां पञ्च-मुद्रा-विभूषितां,
चतुर्भुजां ललज्जिह्वां महा-भीमां वर-प्रदाम ।।
खड्ग-कर्त्री-समायुक्तां सव्येतर-भुज-द्वयां,
कपालोत्पल-संयुक्तां सव्यपाणि युगान्विताम् ।।
पिंगोग्रैक सुखासीनं मौलावक्षोभ्य-भूषितां,
प्रज्वलत्-पितृ-भू-मध्य-गतां दंष्ट्रा-करालिनीम् ।।
तां खेचरां स्मेर-वदनां भस्मालंकार-भूषितां,
विश्व-व्यापक-तोयान्ते पीत-पद्मोपरि-स्थिताम् ।।
प्रत्यालीढ-परां घोरां मुण्ड-माला-विभूषितां,
खर्वां लम्बोदरीं भीमां पीताम्बर-परिच्छदाम् ।।
नव-यौवन संपन्नां पञ्च-मुद्रा-विभूषितां,
चतुर्भुजां ललज्जिह्वां महा-भीमां वर-प्रदाम ।।
खड्ग-कर्त्री-समायुक्तां सव्येतर-भुज-द्वयां,
कपालोत्पल-संयुक्तां सव्यपाणि युगान्विताम् ।।
पिंगोग्रैक सुखासीनं मौलावक्षोभ्य-भूषितां,
प्रज्वलत्-पितृ-भू-मध्य-गतां दंष्ट्रा-करालिनीम् ।।
तां खेचरां स्मेर-वदनां भस्मालंकार-भूषितां,
विश्व-व्यापक-तोयान्ते पीत-पद्मोपरि-स्थिताम् ।।
त्रि-चत्वारिंशदक्षर मंत्र
बगलामुखी त्रि-चत्वारिंशदक्षर मंत्र -
|| ह्लीं हूं ग्लौं बगलामुखि वाचं मुखं पदं ग्रस ग्रस खाहि खाहि भक्ष भक्ष शोणितं पिब पिब बगलामुखि ह्लीं ग्लौं हुं फट् || (सांख्यायन-तंत्र)
इस मंत्र में अमुक का उल्लेख नहीं है, अतः ‘श्रीबगला-कल्प-तरु’ का नीचे दिया गया मंत्र जपना श्रेयष्कर है ।
|| ह्लीं हूं ग्लौं बगलामुखि वाचं मुखं पदं ग्रस ग्रस खाहि खाहि भक्ष भक्ष शोणितं पिब पिब बगलामुखि ह्लीं ग्लौं हुं फट् || (सांख्यायन-तंत्र)
इस मंत्र में अमुक का उल्लेख नहीं है, अतः ‘श्रीबगला-कल्प-तरु’ का नीचे दिया गया मंत्र जपना श्रेयष्कर है ।
बगलामुखी पञ्च-चत्वारिंशदक्षर मंत्र -
|| ह्लीं हूं ग्लौं बगलामुखि मम शत्रून् वाचं मुखं ग्रस ग्रस खाहि खाहि भक्ष भक्ष शोणितं पिब पिब बगलामुखि ह्लीं ग्लौं हुं फट् || (श्रीबगला-कल्प-तरु)
|| ह्लीं हूं ग्लौं बगलामुखि मम शत्रून् वाचं मुखं ग्रस ग्रस खाहि खाहि भक्ष भक्ष शोणितं पिब पिब बगलामुखि ह्लीं ग्लौं हुं फट् || (श्रीबगला-कल्प-तरु)
बगलामुखी सप्त-चत्वारिंशदक्षर मंत्र -
|| ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं श्रीबगलामुखि मम रिपून् नाशय नाशय ममैश्वर्याणि देहि देहि शीघ्रं मनोवाञ्छितं कार्यं साधय साधय ह्रीं स्वाहा ||
इसके प्रयोग अमोघ हैं । इससे प्रेतादिक उपद्रव दूर होते हैं, बंद होने वाले व्यापार पुनः चालू व स्थिर वृद्धि प्राप्त करते हैं । शत्रु-नाश व अर्थ-प्राप्ति दोनों ही फल हैं । दुर्गा-सप्तशती के सम्पुट पाठ से अधिक फल प्राप्ति होती है । विशेष बाधा में शत-चण्डी प्रयोग करना चाहिये ।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीबगलामुखी मंत्रस्य भैरव ऋषिः, विराट् छन्दः, श्रीबगलामुखी देवता, क्लीं बीजं, सौः शक्तिः, ऐं कीलकं अमुक रोग शांति, अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- भैरव ऋषये नमः शिरसि, विराट् छन्दसे नमः मुखे, श्रीबगलामुखी देवतायै नमः हृदि, क्लीं बीजाय नमः गुह्ये, सौः शक्तये नमः पादयो, ऐं कीलकाय नमः नाभौ अमुक रोग शांति, अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
|| ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं श्रीबगलामुखि मम रिपून् नाशय नाशय ममैश्वर्याणि देहि देहि शीघ्रं मनोवाञ्छितं कार्यं साधय साधय ह्रीं स्वाहा ||
इसके प्रयोग अमोघ हैं । इससे प्रेतादिक उपद्रव दूर होते हैं, बंद होने वाले व्यापार पुनः चालू व स्थिर वृद्धि प्राप्त करते हैं । शत्रु-नाश व अर्थ-प्राप्ति दोनों ही फल हैं । दुर्गा-सप्तशती के सम्पुट पाठ से अधिक फल प्राप्ति होती है । विशेष बाधा में शत-चण्डी प्रयोग करना चाहिये ।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीबगलामुखी मंत्रस्य भैरव ऋषिः, विराट् छन्दः, श्रीबगलामुखी देवता, क्लीं बीजं, सौः शक्तिः, ऐं कीलकं अमुक रोग शांति, अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- भैरव ऋषये नमः शिरसि, विराट् छन्दसे नमः मुखे, श्रीबगलामुखी देवतायै नमः हृदि, क्लीं बीजाय नमः गुह्ये, सौः शक्तये नमः पादयो, ऐं कीलकाय नमः नाभौ अमुक रोग शांति, अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास | कर-न्यास | अंग-न्यास |
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं | अंगुष्ठाभ्यां नमः | हृदयाय नमः |
श्रीबगलामुखि | तर्जनीभ्यां नमः | शिरसे स्वाहा |
मम रिपून् नाशय नाशय | मध्यमाभ्यां नमः | शिखायै वषट् |
ममैश्वर्याणि देहि देहि | अनामिकाभ्यां नमः | कवचाय हुं |
शीघ्रं मनोवाञ्छितं | कनिष्ठिकाभ्यां नमः | नेत्र-त्रयाय वौषट् |
कार्यं साधय साधय ह्रीं स्वाहा | करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः | अस्त्राय फट् |
ध्यानः- हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे -
सौवर्णासन संस्थिता त्रिनयनां पीतांशुकोल्लासिनीम्,
हेमाभांगरुचिं शशांक मुकुटां सच्चम्पक स्रग्युताम् ।
हस्तैर्मुद्गर पाश वज्र रसनाः संबिभ्रतीं भूषणै र्व्याप्तांगीं,
बगलामुखीं त्रिजगतां संस्तम्भिनीं चिंतयेत् ।।
सौवर्णासन संस्थिता त्रिनयनां पीतांशुकोल्लासिनीम्,
हेमाभांगरुचिं शशांक मुकुटां सच्चम्पक स्रग्युताम् ।
हस्तैर्मुद्गर पाश वज्र रसनाः संबिभ्रतीं भूषणै र्व्याप्तांगीं,
बगलामुखीं त्रिजगतां संस्तम्भिनीं चिंतयेत् ।।
गंभीरा च मदोन्मत्तां तप्त-काञ्चन-सन्निभां,
चतुर्भुजां त्रिनयनां कमलासन संस्थिताम् ।
मुद्गरं दक्षिणे पाशं वामे जिह्वां च वज्रकं,
पीताम्बरधरां सान्द्र-वृत्त पीन-पयोधराम् ।।
हेमकुण्डलभूषां च पीत चन्द्रार्द्ध शेखरां,
पीतभूषणभूषां च स्वर्ण-सिंहासने स्थिताम् ।।
चतुर्भुजां त्रिनयनां कमलासन संस्थिताम् ।
मुद्गरं दक्षिणे पाशं वामे जिह्वां च वज्रकं,
पीताम्बरधरां सान्द्र-वृत्त पीन-पयोधराम् ।।
हेमकुण्डलभूषां च पीत चन्द्रार्द्ध शेखरां,
पीतभूषणभूषां च स्वर्ण-सिंहासने स्थिताम् ।।
बगलामुखी एकोन-पञ्चाशदक्षर मंत्र -
|| ॐ श्रीं ह्रीं ऐं क्लीं श्रीबगलानने मम रिपून् नाशय नाशय ममैश्वर्याणि देहि देहि शीघ्रं मनोवाञ्छितं कार्यं साधय साधय ह्रीं श्रीं स्वाहा ||
उक्त तीनों मंत्र उभय एवं उर्ध्वाम्नाय के हैं । अतः ध्यान -
ध्यानः- हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे -
सौवर्णासन संस्थिता त्रिनयनां पीतांशुकोल्लासिनीम्,
हेमाभांगरुचिं शशांक मुकुटां सच्चम्पक स्रग्युताम् ।
हस्तैर्मुद्गर पाश वज्र रसनाः संबिभ्रतीं भूषणै र्व्याप्तांगीं,
बगलामुखीं त्रिजगतां संस्तम्भिनीं चिंतयेत् ।।
अथवा
गंभीरा च मदोन्मत्तां तप्त-काञ्चन-सन्निभां,
चतुर्भुजां त्रिनयनां कमलासन संस्थिताम् ।
मुद्गरं दक्षिणे पाशं वामे जिह्वां च वज्रकं,
पीताम्बरधरां सान्द्र-वृत्त पीन-पयोधराम् ।।
हेमकुण्डलभूषां च पीत चन्द्रार्द्ध शेखरां,
पीतभूषणभूषां च स्वर्ण-सिंहासने स्थिताम् ।।
अथवा
वन्दे स्वर्णाभवर्णा मणिगण विलसद्धेम सिंहासनस्थां,
पीतं वासो वसानां वसुपद मुकुटोत्तंस हारांगदाढ्याम् ।
पाणिभ्यां वैरिजिह्वामध उपरिगदां विभ्रतीं तत्पराभ्यां,
हस्ताभ्यां पाशमुच्चैरध उदितवरां वेदबाहुं भवानीम् ।।
|| ॐ श्रीं ह्रीं ऐं क्लीं श्रीबगलानने मम रिपून् नाशय नाशय ममैश्वर्याणि देहि देहि शीघ्रं मनोवाञ्छितं कार्यं साधय साधय ह्रीं श्रीं स्वाहा ||
उक्त तीनों मंत्र उभय एवं उर्ध्वाम्नाय के हैं । अतः ध्यान -
ध्यानः- हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे -
सौवर्णासन संस्थिता त्रिनयनां पीतांशुकोल्लासिनीम्,
हेमाभांगरुचिं शशांक मुकुटां सच्चम्पक स्रग्युताम् ।
हस्तैर्मुद्गर पाश वज्र रसनाः संबिभ्रतीं भूषणै र्व्याप्तांगीं,
बगलामुखीं त्रिजगतां संस्तम्भिनीं चिंतयेत् ।।
अथवा
गंभीरा च मदोन्मत्तां तप्त-काञ्चन-सन्निभां,
चतुर्भुजां त्रिनयनां कमलासन संस्थिताम् ।
मुद्गरं दक्षिणे पाशं वामे जिह्वां च वज्रकं,
पीताम्बरधरां सान्द्र-वृत्त पीन-पयोधराम् ।।
हेमकुण्डलभूषां च पीत चन्द्रार्द्ध शेखरां,
पीतभूषणभूषां च स्वर्ण-सिंहासने स्थिताम् ।।
अथवा
वन्दे स्वर्णाभवर्णा मणिगण विलसद्धेम सिंहासनस्थां,
पीतं वासो वसानां वसुपद मुकुटोत्तंस हारांगदाढ्याम् ।
पाणिभ्यां वैरिजिह्वामध उपरिगदां विभ्रतीं तत्पराभ्यां,
हस्ताभ्यां पाशमुच्चैरध उदितवरां वेदबाहुं भवानीम् ।।
बगलामुखी पञ्च-पञ्चाशदक्षर मंत्र -
|| ॐ ह्लीं हूं ग्लौं वगलामुखि ह्लां ह्लीं ह्लूं सर्व-दुष्टानां ह्लैं ह्लौं ह्लः वाचं मुखं पदं स्तम्भय ह्लः ह्लौं ह्लैं जिह्वां कीलय ह्लूं ह्लीं ह्लां बुद्धिं विनाशय ग्लौं हूं ह्लीं हुं फट् ||
‘सांख्यायन तंत्र’ । ‘श्रीबगला-कल्प-तरु’ में श्रीवगला के प्रथमास्त्र (वडवा-मुखी) रुप में यह मंत्र प्रकाशित है ।
|| ॐ ह्लीं हूं ग्लौं वगलामुखि ह्लां ह्लीं ह्लूं सर्व-दुष्टानां ह्लैं ह्लौं ह्लः वाचं मुखं पदं स्तम्भय ह्लः ह्लौं ह्लैं जिह्वां कीलय ह्लूं ह्लीं ह्लां बुद्धिं विनाशय ग्लौं हूं ह्लीं हुं फट् ||
‘सांख्यायन तंत्र’ । ‘श्रीबगला-कल्प-तरु’ में श्रीवगला के प्रथमास्त्र (वडवा-मुखी) रुप में यह मंत्र प्रकाशित है ।
बगलामुखी अष्ट-पञ्चाशदक्षर मंत्र – (उल्कामुख्यास्त्र)
|| ॐ ह्लीं ग्लौं वगलामुखि ॐ ह्लीं ग्लौं सर्व-दुष्टानां ॐ ह्लीं ग्लौं वाचं मुखं पदं ॐ ह्लीं ग्लौं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं ग्लौं जिह्वां कीलय ॐ ह्लीं ग्लौं बुद्धिं विनाशय ह्लीं ॐ ग्लौं ह्लीं ॐ स्वाहा ||
‘सांख्यायन तंत्र’ । ‘श्रीबगला-कल्प-तरु’ में श्रीवगला के द्वितीयास्त्र (उल्का-मुखी) रुप में यह मंत्र प्रकाशित है ।
|| ॐ ह्लीं ग्लौं वगलामुखि ॐ ह्लीं ग्लौं सर्व-दुष्टानां ॐ ह्लीं ग्लौं वाचं मुखं पदं ॐ ह्लीं ग्लौं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं ग्लौं जिह्वां कीलय ॐ ह्लीं ग्लौं बुद्धिं विनाशय ह्लीं ॐ ग्लौं ह्लीं ॐ स्वाहा ||
‘सांख्यायन तंत्र’ । ‘श्रीबगला-कल्प-तरु’ में श्रीवगला के द्वितीयास्त्र (उल्का-मुखी) रुप में यह मंत्र प्रकाशित है ।
बगलामुखि एकोन-षष्ट्यक्षर उपसंहार विद्या -
|| ग्लौं हूम ऐं ह्रीं ह्रीं श्रीं कालि कालि महा-कालि एहि एहि काल-रात्रि आवेशय आवेशय महा-मोहे महा-मोहे स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर स्तम्भनास्त्र-शमनि हुं फट् स्वाहा ||
|| ग्लौं हूम ऐं ह्रीं ह्रीं श्रीं कालि कालि महा-कालि एहि एहि काल-रात्रि आवेशय आवेशय महा-मोहे महा-मोहे स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर स्तम्भनास्त्र-शमनि हुं फट् स्वाहा ||
बगलामुखी षष्ट्यक्षर जात-वेद मुख्यस्त्र -
|| ॐ ह्लीं ह्सौं ह्लीं ॐ वगलामुखि सर्व-दुष्टानां ॐ ह्लीं ह्सौं ह्लीं ॐ वाचं मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं ह्सौं ह्लीं ॐ जिह्वां कीलय ॐ ह्लीं ह्सौं ह्लीं ॐ बुद्धिं नाशय नाशय ॐ ह्लीं ह्सौं ह्लीं ॐ स्वाहा ||
|| ॐ ह्लीं ह्सौं ह्लीं ॐ वगलामुखि सर्व-दुष्टानां ॐ ह्लीं ह्सौं ह्लीं ॐ वाचं मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं ह्सौं ह्लीं ॐ जिह्वां कीलय ॐ ह्लीं ह्सौं ह्लीं ॐ बुद्धिं नाशय नाशय ॐ ह्लीं ह्सौं ह्लीं ॐ स्वाहा ||
बगलामुखी अशीत्यक्षर हृदय मंत्र -
|| आं ह्लीं क्रों ग्लौं हूं ऐं क्लीं श्रीं ह्रीं वगलामुखि आवेशय आवेशय आं ह्लीं क्रों ब्रह्मास्त्ररुपिणि एहि एहि आं ह्लीं क्रों मम हृदये आवाहय आवाहय सान्निध्यं कुरु कुरु आं ह्लीं क्रों ममैव हृदये चिरं तिष्ठ तिष्ठ आं ह्लीं क्रों हुं फट् स्वाहा ||
|| आं ह्लीं क्रों ग्लौं हूं ऐं क्लीं श्रीं ह्रीं वगलामुखि आवेशय आवेशय आं ह्लीं क्रों ब्रह्मास्त्ररुपिणि एहि एहि आं ह्लीं क्रों मम हृदये आवाहय आवाहय सान्निध्यं कुरु कुरु आं ह्लीं क्रों ममैव हृदये चिरं तिष्ठ तिष्ठ आं ह्लीं क्रों हुं फट् स्वाहा ||
बगलामुखी शताक्षर मंत्र -
|| ह्लीं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ग्लौं ह्लीं वगलामुखि स्फुर स्फुर सर्व-दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय स्तम्भय प्रस्फुर प्रस्फुर विकटांगि घोररुपि जिह्वां कीलय महाभ्मरि बुद्धिं नाशय विराण्मयि सर्व-प्रज्ञा-मयी प्रज्ञां नाशय, उन्मादं कुरु कुरु, मनो-पहारिणि ह्लीं ग्लौं श्रीं क्लीं ह्रीं ऐं ह्लीं स्वाहा ||
|| ह्लीं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ग्लौं ह्लीं वगलामुखि स्फुर स्फुर सर्व-दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय स्तम्भय प्रस्फुर प्रस्फुर विकटांगि घोररुपि जिह्वां कीलय महाभ्मरि बुद्धिं नाशय विराण्मयि सर्व-प्रज्ञा-मयी प्रज्ञां नाशय, उन्मादं कुरु कुरु, मनो-पहारिणि ह्लीं ग्लौं श्रीं क्लीं ह्रीं ऐं ह्लीं स्वाहा ||
बगलामुखी षडुत्तर-शताक्षर वृहद्भानु-मुख्यस्त्र -
|| ॐ ह्ल्रां ह्ल्रीं ह्ल्रूं ह्ल्रैं ह्ल्रौं ह्ल्रः ह्ल्रां ह्ल्रीं ह्ल्रूं ह्ल्रैं ह्ल्रौं ह्ल्रः ॐ वगलामुखि १४ सर्व-दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय स्तम्भय १४ जिह्वां कीलय १४ बुद्धिं नाशय १४ ॐ स्वाहा ||
|| ॐ ह्ल्रां ह्ल्रीं ह्ल्रूं ह्ल्रैं ह्ल्रौं ह्ल्रः ह्ल्रां ह्ल्रीं ह्ल्रूं ह्ल्रैं ह्ल्रौं ह्ल्रः ॐ वगलामुखि १४ सर्व-दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय स्तम्भय १४ जिह्वां कीलय १४ बुद्धिं नाशय १४ ॐ स्वाहा ||
बगलामुखी विंशोत्तर-शताक्षर ज्वालामुख्यस्त्र -
|| ॐ ह्लीं रां रीं रुं रैं रौं प्रस्फुर प्रस्फुर ज्वाला-मुखि १३ सर्व-दुष्टानां १३ वाचं मुखं पदं स्तम्भय स्तम्भय १३ जिह्वां कीलय कीलय १३ बुद्धिं नाशय नाशय १३ स्वाहा ||
|| ॐ ह्लीं रां रीं रुं रैं रौं प्रस्फुर प्रस्फुर ज्वाला-मुखि १३ सर्व-दुष्टानां १३ वाचं मुखं पदं स्तम्भय स्तम्भय १३ जिह्वां कीलय कीलय १३ बुद्धिं नाशय नाशय १३ स्वाहा ||
सप्तमाक्षर मंत्र
बगलामुखी सप्तमाक्षर मंत्र -
|| ह्रीं बगलायै स्वाहा ||
|| ह्रीं बगलायै स्वाहा ||
बगलामुखी अष्टाक्षर मंत्र -
१॰ || ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट् ||
विनियोगः- ॐ अस्य एकाक्षरी बगला मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः, बगलामुखी देवता, ॐ बीजं, ह्रीं शक्तिः क्रों कीलकं, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- ब्रह्मा ऋषये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, बगलामुखी देवतायै नमः हृदि, ॐ बीजाय नमः गुह्ये, ह्रीं शक्तये नमः पादयो, क्रों कीलकाय नमः नाभौ, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
१॰ || ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट् ||
विनियोगः- ॐ अस्य एकाक्षरी बगला मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः, बगलामुखी देवता, ॐ बीजं, ह्रीं शक्तिः क्रों कीलकं, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- ब्रह्मा ऋषये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, बगलामुखी देवतायै नमः हृदि, ॐ बीजाय नमः गुह्ये, ह्रीं शक्तये नमः पादयो, क्रों कीलकाय नमः नाभौ, सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास | कर-न्यास | अंग-न्यास |
ॐ ह्लां | अंगुष्ठाभ्यां नमः | हृदयाय नमः |
ॐ ह्लीं | तर्जनीभ्यां नमः | शिरसे स्वाहा |
ॐ ह्लूं | मध्यमाभ्यां नमः | शिखायै वषट् |
ॐ ह्लैं | अनामिकाभ्यां नमः | कवचाय हुं |
ॐ ह्लौं | कनिष्ठिकाभ्यां नमः | नेत्र-त्रयाय वौषट् |
ॐ ह्लः | करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः | अस्त्राय फट् |
ध्यानः- हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे -
युवतीं च मदोन्मक्तां पीताम्बर-धरां शिवां,
पीत-भूषण-भूषांगीं सम-पीन-पयोधराम् ।
मदिरामोद-वदनां प्रवाल-सदृशाधरां,
पान-पात्रं च शुद्धिं च विभ्रतीं बगलां स्मरेत् ।।
युवतीं च मदोन्मक्तां पीताम्बर-धरां शिवां,
पीत-भूषण-भूषांगीं सम-पीन-पयोधराम् ।
मदिरामोद-वदनां प्रवाल-सदृशाधरां,
पान-पात्रं च शुद्धिं च विभ्रतीं बगलां स्मरेत् ।।
२॰ || ॐ ह्रीं श्रीं आं क्रों वगला ||
बगलामुखी नवाक्षर मंत्र -
|| ह्रीं क्लीं ह्रीं बगलामुखि ठः ||
एकादशाक्षर मंत्र
बगलामुखी एकादशाक्षर मंत्र -
१॰ || ॐ ह्लीं क्लीं ह्रीं बगलामुखि ठः ठः ||
२॰ || ॐ ह्लीं क्लीं ह्रीं बगलामुखि स्वाहा ||
२॰ || ॐ ह्लीं क्लीं ह्रीं बगलामुखि स्वाहा ||
बगलामुखी पञ्चादशाक्षर मंत्र -
|| ह्रीं क्लीं ऐं बगलामुख्यै गदाधारिण्यै स्वाहा ||
बगलामुखी एकोनविंशाक्षर मंत्र - (भक्त-मंदार मंत्र)
यह मंत्र वाञ्छा-कल्प-लता मंत्र है, अर्थ-प्राप्ति हेतु उत्तम मंत्र है ।
|| श्रीं ह्रीं ऐं भगवति बगले मे श्रियं देहि देहि स्वाहा ||
यह मंत्र वाञ्छा-कल्प-लता मंत्र है, अर्थ-प्राप्ति हेतु उत्तम मंत्र है ।
|| श्रीं ह्रीं ऐं भगवति बगले मे श्रियं देहि देहि स्वाहा ||
विशेषः- इस मंत्र के पद-विभाग करके श्रीमद-भागवत के आठवें स्कंध के आठवें अध्याय के आठवें मंत्र से संयोग कर लक्ष्मी-प्राप्ति हेतु सफल प्रयोग किये जा सकते हैं । यथा -
|| श्रीं ह्रीं ऐं भगवति बगले ततश्चाविरभुत साक्षाच्छ्री रमा भगवत्परा ।
रञ्जयन्ती दिशः कान्त्या विद्युत् सौदामिनी यथा मे श्रियं देहि देहि स्वाहा ||
इस मंत्र से पुटित शत-चण्डी प्रयोग आर्थिक रुप से आश्चर्य-जनक रुप से सफल होते हैं ।
|| श्रीं ह्रीं ऐं भगवति बगले ततश्चाविरभुत साक्षाच्छ्री रमा भगवत्परा ।
रञ्जयन्ती दिशः कान्त्या विद्युत् सौदामिनी यथा मे श्रियं देहि देहि स्वाहा ||
इस मंत्र से पुटित शत-चण्डी प्रयोग आर्थिक रुप से आश्चर्य-जनक रुप से सफल होते हैं ।
बगलामुखी त्रयविंशाक्षर मंत्र -
|| ॐ ह्लीं क्लीं ऐं बगलामुख्यै गदाधारिण्यै प्रेतासनाध्यासिन्यै स्वाहा ||
|| ॐ ह्लीं क्लीं ऐं बगलामुख्यै गदाधारिण्यै प्रेतासनाध्यासिन्यै स्वाहा ||
ॐ पीत शंख दगाहस्ते पीतचन्दन चर्चिते ।
बगले मे वरं देहि शत्रुसंघ-विदारिणि ।।
बगले मे वरं देहि शत्रुसंघ-विदारिणि ।।
बगलामुखी चतुस्त्रिंशदक्षर मंत्र -
|| ॐ ह्लीं क्लीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं स्तंभय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्लीं ॐ स्वाहा ||
‘हिन्दी तंत्र-शास्त्र’ व ‘मूल-मंत्र-कोष’ में नारद ऋषिः । त्रिष्टुप् छन्दः । बगलामुखी देवता । ह्लीं बीजं । शक्तिः । कहा गया है । ‘पुरश्चर्यार्णव’ में ऋषि नारायण, छन्द पंक्ति कहा गया है ।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीबगलामुखी-मन्त्रस्य नारद ऋषिः । त्रिष्टुप् छन्दः । बगलामुखी देवता । ह्लीं बीजं । स्वाहा शक्तिः । सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादिन्यासः- नारद ऋषये नमः शिरसि । त्रिष्टुप् छन्दसे नमः मुखे । बगलामुखी देवतायै नमः हृदि । ह्लीं बीजाय नमः गुह्ये । स्वाहा शक्तये नमः पादयोः । सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
|| ॐ ह्लीं क्लीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं स्तंभय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्लीं ॐ स्वाहा ||
‘हिन्दी तंत्र-शास्त्र’ व ‘मूल-मंत्र-कोष’ में नारद ऋषिः । त्रिष्टुप् छन्दः । बगलामुखी देवता । ह्लीं बीजं । शक्तिः । कहा गया है । ‘पुरश्चर्यार्णव’ में ऋषि नारायण, छन्द पंक्ति कहा गया है ।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीबगलामुखी-मन्त्रस्य नारद ऋषिः । त्रिष्टुप् छन्दः । बगलामुखी देवता । ह्लीं बीजं । स्वाहा शक्तिः । सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादिन्यासः- नारद ऋषये नमः शिरसि । त्रिष्टुप् छन्दसे नमः मुखे । बगलामुखी देवतायै नमः हृदि । ह्लीं बीजाय नमः गुह्ये । स्वाहा शक्तये नमः पादयोः । सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास | कर-न्यास | अंग-न्यास |
ॐ ह्लीं क्लीं | अंगुष्ठाभ्यां नमः | हृदयाय नमः |
बगलामुखि | तर्जनीभ्यां नमः | शिरसे स्वाहा |
सर्वदुष्टानां | मध्यमाभ्यां नमः | शिखायै वषट् |
वाचं मुखं स्तंभय | अनामिकाभ्यां नमः | कवचाय हुं |
जिह्वां कीलय | कनिष्ठिकाभ्यां नमः | नेत्र-त्रयाय वौषट् |
बुद्धिं विनाशय ह्लीं ॐ स्वाहा | करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः | अस्त्राय फट् |
ध्यानः-
गंभीरा च मदोन्मत्तां स्वर्णकान्ती समप्रभां,
चतुर्भुजां त्रिनयनां कमलासन संस्थिताम् ।
मुद्गरं दक्षिणे पाशं वामे जिह्वां च वज्रकं,
पीताम्बरधरां देवीं दृढपीन पयोधराम् ।।
हेमकुण्डलभूषां च पीत चन्द्रार्द्ध शेखरां,
पीतभूषणभूषां च रत्नसिंहासने स्थिताम् ।।
गंभीरा च मदोन्मत्तां स्वर्णकान्ती समप्रभां,
चतुर्भुजां त्रिनयनां कमलासन संस्थिताम् ।
मुद्गरं दक्षिणे पाशं वामे जिह्वां च वज्रकं,
पीताम्बरधरां देवीं दृढपीन पयोधराम् ।।
हेमकुण्डलभूषां च पीत चन्द्रार्द्ध शेखरां,
पीतभूषणभूषां च रत्नसिंहासने स्थिताम् ।।
बगलामुखी षट् त्रिशदक्षर मंत्र -
१॰ || ॐ ह्लीं क्लीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं स्तंभय जिह्वां कीलय कीलय बुद्धिं नाशय ह्लीं ॐ स्वाहा ||
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीबगलामुखी-मन्त्रस्य नारद ऋषिः । त्रिष्टुप् छन्दः । बगलामुखी देवता । ह्लीं बीजं । स्वाहा शक्तिः । सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादिन्यासः- नारद ऋषये नमः शिरसि । त्रिष्टुप् छन्दसे नमः मुखे । बगलामुखी देवतायै नमः हृदि । ह्लीं बीजाय नमः गुह्ये । स्वाहा शक्तये नमः पादयोः । सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
१॰ || ॐ ह्लीं क्लीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं स्तंभय जिह्वां कीलय कीलय बुद्धिं नाशय ह्लीं ॐ स्वाहा ||
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीबगलामुखी-मन्त्रस्य नारद ऋषिः । त्रिष्टुप् छन्दः । बगलामुखी देवता । ह्लीं बीजं । स्वाहा शक्तिः । सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादिन्यासः- नारद ऋषये नमः शिरसि । त्रिष्टुप् छन्दसे नमः मुखे । बगलामुखी देवतायै नमः हृदि । ह्लीं बीजाय नमः गुह्ये । स्वाहा शक्तये नमः पादयोः । सर्वार्थ सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास | कर-न्यास | अंग-न्यास |
ॐ ह्लीं क्लीं | अंगुष्ठाभ्यां नमः | हृदयाय नमः |
बगलामुखि | तर्जनीभ्यां नमः | शिरसे स्वाहा |
सर्वदुष्टानां | मध्यमाभ्यां नमः | शिखायै वषट् |
वाचं मुखं स्तंभय | अनामिकाभ्यां नमः | कवचाय हुं |
जिह्वां कीलय कीलय | कनिष्ठिकाभ्यां नमः | नेत्र-त्रयाय वौषट् |
बुद्धिं नाशय ह्लीं ॐ स्वाहा | करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः | अस्त्राय फट् |
ध्यानः- हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे -
मध्ये सुधाब्धि-मणि-मण्डप-रत्न-वेद्यां, सिंहासनोपरि-गतां परिपीत-वर्णाम् ।
पीताम्बराभरण-माल्य-विभूषितांगीं, देवीं स्मरामि धृत-मुद्-गर-वैरि-जिह्वाम् ।।
जिह्वाग्रमादाय करेण देवीं, वामेन शत्रून् परि-पीडयन्तीम् ।
गदाभिघातेन च दक्षिणेन, पीताम्बराढ्यां द्विभुजां नमामि ।।
मध्ये सुधाब्धि-मणि-मण्डप-रत्न-वेद्यां, सिंहासनोपरि-गतां परिपीत-वर्णाम् ।
पीताम्बराभरण-माल्य-विभूषितांगीं, देवीं स्मरामि धृत-मुद्-गर-वैरि-जिह्वाम् ।।
जिह्वाग्रमादाय करेण देवीं, वामेन शत्रून् परि-पीडयन्तीम् ।
गदाभिघातेन च दक्षिणेन, पीताम्बराढ्यां द्विभुजां नमामि ।।
२॰ || ॐ ह्ल्रीं (ह्लीं) बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्ल्रीं (ह्लीं) ॐ स्वाहा ||
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीबगलामुखी-मन्त्रस्य नारद ऋषिः । त्रिष्टुप् छन्दः । श्रीबगलामुखी देवता । ह्लीं बीजं । स्वाहा शक्तिः । ॐ कीलकं । ममाभीष्ट सिद्धयर्थे च शत्रूणां स्तंभनार्थे जपे विनियोगः ।
‘मंत्र-महोदधि’ में छन्द वृहती लिखा है तथा विनियोग ‘शत्रूणां स्तम्भनार्थे या ममाभीष्ट-सिद्धये’ है । ‘सांख्यायन तंत्र’ में छंद अनुष्टुप्, लं बीज, हं शक्ति तथा ईं कीलक बतलाया गया है ।
ऋष्यादिन्यासः- नारद ऋषये नमः शिरसि । त्रिष्टुप् छन्दसे नमः मुखे । श्रीबगलामुखी देवतायै नमः हृदि । ह्लीं बीजाय नमः गुह्ये । स्वाहा शक्तये नमः पादयोः । ॐ कीलकाय नमः नाभौ । ममाभीष्ट सिद्धयर्थे च शत्रूणां स्तंभनार्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीबगलामुखी-मन्त्रस्य नारद ऋषिः । त्रिष्टुप् छन्दः । श्रीबगलामुखी देवता । ह्लीं बीजं । स्वाहा शक्तिः । ॐ कीलकं । ममाभीष्ट सिद्धयर्थे च शत्रूणां स्तंभनार्थे जपे विनियोगः ।
‘मंत्र-महोदधि’ में छन्द वृहती लिखा है तथा विनियोग ‘शत्रूणां स्तम्भनार्थे या ममाभीष्ट-सिद्धये’ है । ‘सांख्यायन तंत्र’ में छंद अनुष्टुप्, लं बीज, हं शक्ति तथा ईं कीलक बतलाया गया है ।
ऋष्यादिन्यासः- नारद ऋषये नमः शिरसि । त्रिष्टुप् छन्दसे नमः मुखे । श्रीबगलामुखी देवतायै नमः हृदि । ह्लीं बीजाय नमः गुह्ये । स्वाहा शक्तये नमः पादयोः । ॐ कीलकाय नमः नाभौ । ममाभीष्ट सिद्धयर्थे च शत्रूणां स्तंभनार्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास | कर-न्यास | अंग-न्यास |
ॐ ह्ल्रीं क्लीं | अंगुष्ठाभ्यां नमः | हृदयाय नमः |
बगलामुखि | तर्जनीभ्यां नमः | शिरसे स्वाहा |
सर्वदुष्टानां | मध्यमाभ्यां नमः | शिखायै वषट् |
वाचं मुखं पदं स्तंभय | अनामिकाभ्यां नमः | कवचाय हुं |
जिह्वां कीलय | कनिष्ठिकाभ्यां नमः | नेत्र-त्रयाय वौषट् |
बुद्धिं विनाशय ह्ल्रीं ॐ स्वाहा | करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः | अस्त्राय फट् |
ध्यानः- हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे -
मध्ये सुधाब्धि-मणि-मण्डप-रत्न-वेद्यां, सिंहासनोपरि-गतां परिपीत-वर्णाम् ।
पीताम्बराभरण-माल्य-विभूषितांगीं, देवीं स्मरामि धृत-मुद्-गर-वैरि-जिह्वाम् ।।
जिह्वाग्रमादाय करेण देवीं, वामेन शत्रून् परि-पीडयन्तीम् ।
गदाभिघातेन च दक्षिणेन, पीताम्बराढ्यां द्विभुजां नमामि ।।
उत्तराम्नाय व ऊर्ध्वाम्नाय मंत्रों के लिये ध्यान -
सौवर्णासन संस्थिता त्रिनयनां पीतांशुकोल्लासिनीम्,
हेमाभांगरुचिं शशांक मुकुटां सच्चम्पक स्रग्युताम् ।
हस्तैर्मुद्गर पाश वज्र रसनाः संबिभ्रतीं भूषणै र्व्याप्तांगीं,
बगलामुखीं त्रिजगतां संस्तम्भिनीं चिंतयेत् ।।
‘सांख्यायन तंत्र’ में अन्य ध्यान दिया हैं । न्यास हेतु मंत्र के जो विभाग हैं, उनमें प्रत्येक के आगे “ॐ ह्लीं” जोड़ने की विधि दी है ।
चतुर्भुजां त्रिनयनां कमलासन-संस्थिता,
त्रिशूलं पान-पात्रं च गदां जिह्वां च विभ्रतीम् ।
बिम्बोष्ठीं कम्बुकण्ठीं च सम पीन-पयोधराम्,
पीताम्बरां मदाघूर्णां ध्यायेद् ब्रह्मास्त्र-देवताम् ।।
एक लाख जप करके चम्पा के फूल से व बिल्व-कुसुमों से दशांश हवन करें ।
मध्ये सुधाब्धि-मणि-मण्डप-रत्न-वेद्यां, सिंहासनोपरि-गतां परिपीत-वर्णाम् ।
पीताम्बराभरण-माल्य-विभूषितांगीं, देवीं स्मरामि धृत-मुद्-गर-वैरि-जिह्वाम् ।।
जिह्वाग्रमादाय करेण देवीं, वामेन शत्रून् परि-पीडयन्तीम् ।
गदाभिघातेन च दक्षिणेन, पीताम्बराढ्यां द्विभुजां नमामि ।।
उत्तराम्नाय व ऊर्ध्वाम्नाय मंत्रों के लिये ध्यान -
सौवर्णासन संस्थिता त्रिनयनां पीतांशुकोल्लासिनीम्,
हेमाभांगरुचिं शशांक मुकुटां सच्चम्पक स्रग्युताम् ।
हस्तैर्मुद्गर पाश वज्र रसनाः संबिभ्रतीं भूषणै र्व्याप्तांगीं,
बगलामुखीं त्रिजगतां संस्तम्भिनीं चिंतयेत् ।।
‘सांख्यायन तंत्र’ में अन्य ध्यान दिया हैं । न्यास हेतु मंत्र के जो विभाग हैं, उनमें प्रत्येक के आगे “ॐ ह्लीं” जोड़ने की विधि दी है ।
चतुर्भुजां त्रिनयनां कमलासन-संस्थिता,
त्रिशूलं पान-पात्रं च गदां जिह्वां च विभ्रतीम् ।
बिम्बोष्ठीं कम्बुकण्ठीं च सम पीन-पयोधराम्,
पीताम्बरां मदाघूर्णां ध्यायेद् ब्रह्मास्त्र-देवताम् ।।
एक लाख जप करके चम्पा के फूल से व बिल्व-कुसुमों से दशांश हवन करें ।
३॰ || ॐ ह्रीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्रीं ॐ स्वाहा ||(पुरश्चर्यार्णव)
यह मंत्र उभयाम्नाय उत्तर व ऊर्ध्वाम्नाय है । अतः उक्त दोनों ध्यान करें । ‘मेरु तंत्र’ के अनुसार इसके नारायण ऋषि, त्रिष्टुप् छन्द, बगलामुखी देवता, ह्रीं बीज तथा स्वाहा शक्ति है ।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीबगलामुखी-मन्त्रस्य नारायण ऋषिः । त्रिष्टुप् छन्दः । श्रीबगलामुखी देवता । ह्रीं बीजं । स्वाहा शक्तिः । पुरुषार्थ-चतुष्टये सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादिन्यासः- नारायण ऋषये नमः शिरसि । त्रिष्टुप् छन्दसे नमः मुखे । श्रीबगलामुखी देवतायै नमः हृदि । ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये । स्वाहा शक्तये नमः पादयो । पुरुषार्थ-चतुष्टये सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
यह मंत्र उभयाम्नाय उत्तर व ऊर्ध्वाम्नाय है । अतः उक्त दोनों ध्यान करें । ‘मेरु तंत्र’ के अनुसार इसके नारायण ऋषि, त्रिष्टुप् छन्द, बगलामुखी देवता, ह्रीं बीज तथा स्वाहा शक्ति है ।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीबगलामुखी-मन्त्रस्य नारायण ऋषिः । त्रिष्टुप् छन्दः । श्रीबगलामुखी देवता । ह्रीं बीजं । स्वाहा शक्तिः । पुरुषार्थ-चतुष्टये सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादिन्यासः- नारायण ऋषये नमः शिरसि । त्रिष्टुप् छन्दसे नमः मुखे । श्रीबगलामुखी देवतायै नमः हृदि । ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये । स्वाहा शक्तये नमः पादयो । पुरुषार्थ-चतुष्टये सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास | कर-न्यास | अंग-न्यास |
ॐ ह्रीं | अंगुष्ठाभ्यां नमः | हृदयाय नमः |
बगलामुखि | तर्जनीभ्यां नमः | शिरसे स्वाहा |
सर्वदुष्टानां | मध्यमाभ्यां नमः | शिखायै वषट् |
वाचं मुखं पदं स्तंभय | अनामिकाभ्यां नमः | कवचाय हुं |
जिह्वां कीलय | कनिष्ठिकाभ्यां नमः | नेत्र-त्रयाय वौषट् |
बुद्धिं विनाशय ह्रीं ॐ स्वाहा | करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः | अस्त्राय फट् |
ध्यानः-
गंभीरा च मदोन्मत्तां तप्त-काञ्चन-सन्निभां,
चतुर्भुजां त्रिनयनां कमलासन संस्थिताम् ।
मुद्गरं दक्षिणे पाशं वामे जिह्वां च वज्रकं,
पीताम्बरधरां सान्द्र-वृत्त पीन-पयोधराम् ।।
हेमकुण्डलभूषां च पीत चन्द्रार्द्ध शेखरां,
पीतभूषणभूषां च स्वर्ण-सिंहासने स्थिताम् ।।
पुरश्चरण में दस-सहस्र जप कर पीत-द्रव्यों से दशांश होम । अथवा एक लाख जप कर प्रियंगु, पायस व पीत पुष्पों से दशांश होम ।
गंभीरा च मदोन्मत्तां तप्त-काञ्चन-सन्निभां,
चतुर्भुजां त्रिनयनां कमलासन संस्थिताम् ।
मुद्गरं दक्षिणे पाशं वामे जिह्वां च वज्रकं,
पीताम्बरधरां सान्द्र-वृत्त पीन-पयोधराम् ।।
हेमकुण्डलभूषां च पीत चन्द्रार्द्ध शेखरां,
पीतभूषणभूषां च स्वर्ण-सिंहासने स्थिताम् ।।
पुरश्चरण में दस-सहस्र जप कर पीत-द्रव्यों से दशांश होम । अथवा एक लाख जप कर प्रियंगु, पायस व पीत पुष्पों से दशांश होम ।
४॰ || ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं बगलामुखि रिपून् नाशय ऐश्वर्यं देहि देहि अभीष्टं साधय साधय ह्रीं स्वाहा ||
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीबगलामुखी-मन्त्रस्य भैरव ऋषिः, विराट् छन्दः, श्रीबगलामुखी देवता, क्लीं बीजं, अपरा शक्तिः, ऐं कीलकं, अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः-भैरव ऋषये नमः शिरसि, विराट् छन्दसे नमः मुखे, श्रीबगलामुखी देवतायै नमः हृदि, क्लीं बीजाय नमः गुह्ये, अपरा शक्तये नमः पादयो, ऐं कीलकाय नमः नाभौ, अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीबगलामुखी-मन्त्रस्य भैरव ऋषिः, विराट् छन्दः, श्रीबगलामुखी देवता, क्लीं बीजं, अपरा शक्तिः, ऐं कीलकं, अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः-भैरव ऋषये नमः शिरसि, विराट् छन्दसे नमः मुखे, श्रीबगलामुखी देवतायै नमः हृदि, क्लीं बीजाय नमः गुह्ये, अपरा शक्तये नमः पादयो, ऐं कीलकाय नमः नाभौ, अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास | कर-न्यास | अंग-न्यास |
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं | अंगुष्ठाभ्यां नमः | हृदयाय नमः |
बगलामुखि | तर्जनीभ्यां नमः | शिरसे स्वाहा |
रिपून् नाशय | मध्यमाभ्यां नमः | शिखायै वषट् |
ऐश्वर्यं देहि देहि | अनामिकाभ्यां नमः | कवचाय हुं |
अभीष्टं साधय साधय | कनिष्ठिकाभ्यां नमः | नेत्र-त्रयाय वौषट् |
ह्रीं स्वाहा | करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः | अस्त्राय फट् |
ध्यानः- हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे -
सौवर्णासन संस्थिता त्रिनयनां पीतांशुकोल्लासिनीम्,
हेमाभांगरुचिं शशांक मुकुटां सच्चम्पक स्रग्युताम् ।
हस्तैर्मुद्गर पाश वज्र रसनाः संबिभ्रतीं भूषणै र्व्याप्तांगीं,
बगलामुखीं त्रिजगतां संस्तम्भिनीं चिंतयेत् ।।
सौवर्णासन संस्थिता त्रिनयनां पीतांशुकोल्लासिनीम्,
हेमाभांगरुचिं शशांक मुकुटां सच्चम्पक स्रग्युताम् ।
हस्तैर्मुद्गर पाश वज्र रसनाः संबिभ्रतीं भूषणै र्व्याप्तांगीं,
बगलामुखीं त्रिजगतां संस्तम्भिनीं चिंतयेत् ।।
बगलामुखी अष्ट त्रिंशदक्षर मंत्र -
|| ॐ ह्ल्रीं (ह्लीं) बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं गतिं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्ल्रीं (ह्लीं) ॐ स्वाहा ||
|| ॐ ह्ल्रीं (ह्लीं) बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं गतिं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्ल्रीं (ह्लीं) ॐ स्वाहा ||
बगलामुखी गायत्री मन्त्र -
१॰ || ह्लीं वगलामुखी विद्महे दुष्ट-स्तम्भनी धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ||
२॰ || ॐ ह्लीं ब्रह्मास्त्राय विद्महे स्तम्भन-वाणाय धीमहि तन्नो वगला प्रचोदयात् ||
३॰ || ब्रह्मास्त्राय विद्महे स्तम्भनं तन्नः वगला प्रचोदयात् ||
४॰ || ॐ वगलामुख्यै विद्महे स्तम्भिन्यै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ||
५॰ || बगलाम्बायै विद्महे ब्रह्मास्त्र विद्यायै धीमहि तन्न स्तम्भिनी प्रचोदयात् ||
६॰ || ॐ ऐं बगलामुखि विद्महे ॐ क्लीं कान्तेश्वरि धीमहि ॐ सौः तन्नः प्रह्लीं प्रचोदयात् ||
अन्य मन्त्र -
१॰ || ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं स ४ ह ४ क ४ परा-षोडशी हंसः सौहं ह्लौं ह्लौं ||
२॰ || ॐ क्षीं ॐ नमो भगवते क्षीं पक्षि-राजाय क्षीं सर्व-अभिचार-ध्वंसकाय क्षीं ॐ हुं फट् स्वाहा ||
१॰ || ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं स ४ ह ४ क ४ परा-षोडशी हंसः सौहं ह्लौं ह्लौं ||
२॰ || ॐ क्षीं ॐ नमो भगवते क्षीं पक्षि-राजाय क्षीं सर्व-अभिचार-ध्वंसकाय क्षीं ॐ हुं फट् स्वाहा ||
बगलामुखी शाबर मंत्र -
|| ॐ मलयाचल बगला भगवती महाक्रूरी महा-कराली राज-मुख-बंधंन ग्राम मुख-बंधंन ग्राम पुरुबंधंन कालमुखबंधंन चौरमुखबंधंन सर्व-दुष्ट-ग्रहबंधंन सर्व-जन-बंधंन वशीकुरु हुं फट् स्वाहा ||
|| ॐ मलयाचल बगला भगवती महाक्रूरी महा-कराली राज-मुख-बंधंन ग्राम मुख-बंधंन ग्राम पुरुबंधंन कालमुखबंधंन चौरमुखबंधंन सर्व-दुष्ट-ग्रहबंधंन सर्व-जन-बंधंन वशीकुरु हुं फट् स्वाहा ||
पाण्डवी चेटिका विद्या -
|| ॐ पाण्डवी बगले बगलामुखि शत्रोः पदं स्तंभय स्तंभय क्लीं ह्रीं श्रीं ऐं ह्लीं स्फ्रीं स्वाहा ||
ध्यानम् -
पीताम्बरां पीतवर्णां पीतगन्धानुलेपनाम् ।
प्रेतासनां पीतवर्णां विचित्रां पाण्डवीं भजे ।।
प्रतिपदा शुक्रवार को जपे । ३० हजार कुसुंभ-कुसुमों से होम करे । प्रसन्न होकर पाण्डवी साधक को वस्त्र प्रदान करती है तथा शत्रु का स्तम्भन करती है ।
|| ॐ पाण्डवी बगले बगलामुखि शत्रोः पदं स्तंभय स्तंभय क्लीं ह्रीं श्रीं ऐं ह्लीं स्फ्रीं स्वाहा ||
ध्यानम् -
पीताम्बरां पीतवर्णां पीतगन्धानुलेपनाम् ।
प्रेतासनां पीतवर्णां विचित्रां पाण्डवीं भजे ।।
प्रतिपदा शुक्रवार को जपे । ३० हजार कुसुंभ-कुसुमों से होम करे । प्रसन्न होकर पाण्डवी साधक को वस्त्र प्रदान करती है तथा शत्रु का स्तम्भन करती है ।
पीताम्बरा बगलामुखी खड्ग मालामन्त्र
यह स्तोत्र शत्रुनाश एवं कृत्यानाश, परविद्या छेदन करने वाला एवं रक्षा कार्य हेतु प्रभावी है । साधारण साधकों को कुछ समय आवेश व आर्थिक दबाव रहता है, अतः पूजा उपरान्त नमस्तस्यादि शांति स्तोत्र पढ़ने चाहिये ।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीपीताम्बरा बगलामुखी खड्गमाला मन्त्रस्य नारायण ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः, बगलामुखी देवता, ह्लीं बीजं, स्वाहा शक्तिः, ॐ कीलकं, ममाभीष्टसिद्धयर्थे सर्वशत्रु-क्षयार्थे जपे विनियोगः ।
हृदयादि-न्यासः-नारायण ऋषये नमः शिरसि, त्रिष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, बगलामुखी देवतायै नमः हृदि, ह्लीं बीजाय नमः गुह्ये, स्वाहा शक्तये नमः पादयो, ॐ कीलकाय नमः नाभौ, ममाभीष्टसिद्धयर्थे सर्वशत्रु-क्षयार्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीपीताम्बरा बगलामुखी खड्गमाला मन्त्रस्य नारायण ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः, बगलामुखी देवता, ह्लीं बीजं, स्वाहा शक्तिः, ॐ कीलकं, ममाभीष्टसिद्धयर्थे सर्वशत्रु-क्षयार्थे जपे विनियोगः ।
हृदयादि-न्यासः-नारायण ऋषये नमः शिरसि, त्रिष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, बगलामुखी देवतायै नमः हृदि, ह्लीं बीजाय नमः गुह्ये, स्वाहा शक्तये नमः पादयो, ॐ कीलकाय नमः नाभौ, ममाभीष्टसिद्धयर्थे सर्वशत्रु-क्षयार्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास - | कर-न्यास – | अंग-न्यास - |
ॐ ह्लीं | अंगुष्ठाभ्यां नमः | हृदयाय नमः |
बगलामुखी | तर्जनीभ्यां नमः | शिरसे स्वाहा |
सर्वदुष्टानां | मध्यमाभ्यां नमः | शिखायै वषट् |
वाचं मुखं पद स्तम्भय | अनामिकाभ्यां नमः | कवचाय हुम् |
जिह्वां कीलय | कनिष्ठिकाभ्यां नमः | नेत्र-त्रयाय वौषट् |
बुद्धिं विनाशय ह्लीं ॐ स्वाहा | करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः | अस्त्राय फट् |
ध्यानः-
हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे -
मध्ये सुधाब्धि-मणि-मण्डप-रत्न-वेद्यां, सिंहासनोपरि-गतां परि-पीत-वर्णाम् ।
पीताम्बराभरण-माल्य-विभूषितांगीं, देवीं स्मरामि धृत-मुद्-गर-वैरि-जिह्वाम् ।।
जिह्वाग्रमादाय करेण देवीं, वामेन शत्रून् परि-पीडयन्तीम् ।
गदाभिघातेन च दक्षिणेन, पीताम्बराढ्यां द्विभुजां नमामि ।।
मानस-पूजनः- इस प्रकार ध्यान करके भगवती पीताम्बरा बगलामुखी का मानस पूजन करें -
ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-कनिष्ठांगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि । (ऊर्ध्व-मुख-मध्यमा-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-अनामिका-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ शं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-सर्वांगुलि-मुद्रा) ।
खड्ग-माला-मन्त्रः-
ॐ ह्लीं सर्वनिन्दकानां सर्वदुष्टानां वाचं मुखं स्तम्भय-स्तम्भय बुद्धिं विनाशय-विनाशय अपरबुद्धिं कुरु-कुरु अपस्मारं कुरु-कुरु आत्मविरोधिनां शिरो ललाट मुख नेत्र कर्ण नासिका दन्तोष्ठ जिह्वा तालु-कण्ठ बाहूदर कुक्षि नाभि पार्श्वद्वय गुह्य गुदाण्ड त्रिक जानुपाद सर्वांगेषु पादादिकेश-पर्यन्तं केशादिपाद-पर्यन्तं स्तम्भय-स्तम्भय मारय-मारय परमन्त्र-परयन्त्र-परतन्त्राणि छेदय-छेदय आत्म-मन्त्र-यन्त्र-तन्त्राणि रक्ष-रक्ष, सर्व-ग्रहान् निवारय-निवारय सर्वम् अविधिं विनाशय-विनाशय दुःखं हन-हन दारिद्रयं निवारय निवारय, सर्व-मन्त्र-स्वरुपिणि सर्व-शल्य-योग-स्वरुपिणि दुष्ट-ग्रह-चण्ड-ग्रह भूतग्रहाऽऽकाशग्रह चौर-ग्रह पाषाण-ग्रह चाण्डाल-ग्रह यक्ष-गन्धर्व-किंनर-ग्रह ब्रह्म-राक्षस-ग्रह भूत-प्रेतपिशाचादीनां शाकिनी डाकिनी ग्रहाणां पूर्वदिशं बन्धय-बन्धय, वाराहि बगलामुखी मां रक्ष-रक्ष दक्षिणदिशं बन्धय-बन्धय, किरातवाराहि मां रक्ष-रक्ष पश्चिमदिशं बन्धय-बन्धय, स्वप्नवाराहि मां रक्ष-रक्ष उत्तरदिशं बन्धय-बन्धय, धूम्रवाराहि मां रक्ष-रक्ष सर्वदिशो बन्धय-बन्धय, कुक्कुटवाराहि मां रक्ष-रक्ष अधरदिशं बन्धय-बन्धय, परमेश्वरि मां रक्ष-रक्ष सर्वरोगान् विनाशय-विनाशय, सर्व-शत्रु-पलायनाय सर्व-शत्रु-कुलं मूलतो नाशय-नाशय, शत्रूणां राज्यवश्यं स्त्रीवश्यं जनवश्यं दह-दह पच-पच सकल-लोक-स्तम्भिनि शत्रून् स्तम्भय-स्तम्भय स्तम्भनमोहनाऽऽकर्षणाय सर्व-रिपूणाम् उच्चाटनं कुरु-कुरु ॐ ह्लीं क्लीं ऐं वाक्-प्रदानाय क्लीं जगत्त्रयवशीकरणाय सौः सर्वमनः क्षोभणाय श्रीं महा-सम्पत्-प्रदानाय ग्लौं सकल-भूमण्डलाधिपत्य-प्रदानाय दां चिरंजीवने । ह्रां ह्रीं ह्रूं क्लां क्लीं क्लूं सौः ॐ ह्लीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय राजस्तम्भिनि क्रों क्रों छ्रीं छ्रीं सर्वजन संमोहिनि सभास्तंभिनि स्त्रां स्त्रीं सर्व-मुख-रञ्जिनि मुखं बन्धय-बन्धय ज्वल-ज्वल हंस-हंस राजहंस प्रतिलोम इहलोक परलोक परद्वार राजद्वार क्लीं क्लूं घ्रीं रुं क्रों क्लीं खाणि खाणि , जिह्वां बन्धयामि सकलजन सर्वेन्द्रियाणि बन्धयामि नागाश्व मृग सर्प विहंगम वृश्चिकादि विषं निर्विषं कुरु-कुरु शैलकानन महीं मर्दय मर्दय शत्रूनोत्पाटयोत्पाटय पात्रं पूरय-पूरय महोग्रभूतजातं बन्धयामि बन्धयामि अतीतानागतं सत्यं कथय-कथय लक्ष्मीं प्रददामि-प्रददामि त्वम् इह आगच्छ आगच्छ अत्रैव निवासं कुरु-कुरु ॐ ह्लीं बगले परमेश्वरि हुं फट् स्वाहा ।
हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे -
मध्ये सुधाब्धि-मणि-मण्डप-रत्न-वेद्यां, सिंहासनोपरि-गतां परि-पीत-वर्णाम् ।
पीताम्बराभरण-माल्य-विभूषितांगीं, देवीं स्मरामि धृत-मुद्-गर-वैरि-जिह्वाम् ।।
जिह्वाग्रमादाय करेण देवीं, वामेन शत्रून् परि-पीडयन्तीम् ।
गदाभिघातेन च दक्षिणेन, पीताम्बराढ्यां द्विभुजां नमामि ।।
मानस-पूजनः- इस प्रकार ध्यान करके भगवती पीताम्बरा बगलामुखी का मानस पूजन करें -
ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-कनिष्ठांगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि । (ऊर्ध्व-मुख-मध्यमा-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-अनामिका-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ शं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्रीबगलामुखी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-सर्वांगुलि-मुद्रा) ।
खड्ग-माला-मन्त्रः-
ॐ ह्लीं सर्वनिन्दकानां सर्वदुष्टानां वाचं मुखं स्तम्भय-स्तम्भय बुद्धिं विनाशय-विनाशय अपरबुद्धिं कुरु-कुरु अपस्मारं कुरु-कुरु आत्मविरोधिनां शिरो ललाट मुख नेत्र कर्ण नासिका दन्तोष्ठ जिह्वा तालु-कण्ठ बाहूदर कुक्षि नाभि पार्श्वद्वय गुह्य गुदाण्ड त्रिक जानुपाद सर्वांगेषु पादादिकेश-पर्यन्तं केशादिपाद-पर्यन्तं स्तम्भय-स्तम्भय मारय-मारय परमन्त्र-परयन्त्र-परतन्त्राणि छेदय-छेदय आत्म-मन्त्र-यन्त्र-तन्त्राणि रक्ष-रक्ष, सर्व-ग्रहान् निवारय-निवारय सर्वम् अविधिं विनाशय-विनाशय दुःखं हन-हन दारिद्रयं निवारय निवारय, सर्व-मन्त्र-स्वरुपिणि सर्व-शल्य-योग-स्वरुपिणि दुष्ट-ग्रह-चण्ड-ग्रह भूतग्रहाऽऽकाशग्रह चौर-ग्रह पाषाण-ग्रह चाण्डाल-ग्रह यक्ष-गन्धर्व-किंनर-ग्रह ब्रह्म-राक्षस-ग्रह भूत-प्रेतपिशाचादीनां शाकिनी डाकिनी ग्रहाणां पूर्वदिशं बन्धय-बन्धय, वाराहि बगलामुखी मां रक्ष-रक्ष दक्षिणदिशं बन्धय-बन्धय, किरातवाराहि मां रक्ष-रक्ष पश्चिमदिशं बन्धय-बन्धय, स्वप्नवाराहि मां रक्ष-रक्ष उत्तरदिशं बन्धय-बन्धय, धूम्रवाराहि मां रक्ष-रक्ष सर्वदिशो बन्धय-बन्धय, कुक्कुटवाराहि मां रक्ष-रक्ष अधरदिशं बन्धय-बन्धय, परमेश्वरि मां रक्ष-रक्ष सर्वरोगान् विनाशय-विनाशय, सर्व-शत्रु-पलायनाय सर्व-शत्रु-कुलं मूलतो नाशय-नाशय, शत्रूणां राज्यवश्यं स्त्रीवश्यं जनवश्यं दह-दह पच-पच सकल-लोक-स्तम्भिनि शत्रून् स्तम्भय-स्तम्भय स्तम्भनमोहनाऽऽकर्षणाय सर्व-रिपूणाम् उच्चाटनं कुरु-कुरु ॐ ह्लीं क्लीं ऐं वाक्-प्रदानाय क्लीं जगत्त्रयवशीकरणाय सौः सर्वमनः क्षोभणाय श्रीं महा-सम्पत्-प्रदानाय ग्लौं सकल-भूमण्डलाधिपत्य-प्रदानाय दां चिरंजीवने । ह्रां ह्रीं ह्रूं क्लां क्लीं क्लूं सौः ॐ ह्लीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय राजस्तम्भिनि क्रों क्रों छ्रीं छ्रीं सर्वजन संमोहिनि सभास्तंभिनि स्त्रां स्त्रीं सर्व-मुख-रञ्जिनि मुखं बन्धय-बन्धय ज्वल-ज्वल हंस-हंस राजहंस प्रतिलोम इहलोक परलोक परद्वार राजद्वार क्लीं क्लूं घ्रीं रुं क्रों क्लीं खाणि खाणि , जिह्वां बन्धयामि सकलजन सर्वेन्द्रियाणि बन्धयामि नागाश्व मृग सर्प विहंगम वृश्चिकादि विषं निर्विषं कुरु-कुरु शैलकानन महीं मर्दय मर्दय शत्रूनोत्पाटयोत्पाटय पात्रं पूरय-पूरय महोग्रभूतजातं बन्धयामि बन्धयामि अतीतानागतं सत्यं कथय-कथय लक्ष्मीं प्रददामि-प्रददामि त्वम् इह आगच्छ आगच्छ अत्रैव निवासं कुरु-कुरु ॐ ह्लीं बगले परमेश्वरि हुं फट् स्वाहा ।
विशेषः- मूलमन्त्रवता कुर्याद् विद्यां न दर्शयेत् क्वचित् ।
विपत्तौ स्वप्नकाले च विद्यां स्तम्भिनीं दर्शयेत् ।
गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः ।
प्रकाशनात् सिद्धहानिः स्याद् वश्यं मरणं भवेत् ।
दद्यात् शानताय सत्याय कौलाचारपरायणः ।
दुर्गाभक्ताय शैवाय मृत्युञ्जयरताय च ।
तस्मै दद्याद् इमं खड्गं स शिवो नात्र संशयः ।
अशाक्ताय च नो दद्याद् दीक्षाहीनाय वै तथा ।
न दर्शयेद् इमं खड्गम् इत्याज्ञा शंकरस्य च ।।
।। श्रीविष्णुयामले बगलाखड्गमालामन्त्रः ।।
विपत्तौ स्वप्नकाले च विद्यां स्तम्भिनीं दर्शयेत् ।
गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः ।
प्रकाशनात् सिद्धहानिः स्याद् वश्यं मरणं भवेत् ।
दद्यात् शानताय सत्याय कौलाचारपरायणः ।
दुर्गाभक्ताय शैवाय मृत्युञ्जयरताय च ।
तस्मै दद्याद् इमं खड्गं स शिवो नात्र संशयः ।
अशाक्ताय च नो दद्याद् दीक्षाहीनाय वै तथा ।
न दर्शयेद् इमं खड्गम् इत्याज्ञा शंकरस्य च ।।
।। श्रीविष्णुयामले बगलाखड्गमालामन्त्रः ।।
बगलामुखी साधना
|| मन्त्र ||
ॐ रीम श्रीम बगलामुखी वाचस्पतये नमः !
|| साधना विधि ||
इस मन्त्र को बगलामुखी जयंती को पूरी रात लिंग मुद्रा का प्रदर्शन करते हुए सारी रात जप करते रहे यदि थक जाये तो थोडा आराम कर ले पर आसन से न उठे ! इस प्रकार यह मन्त्र एक रात में सिद्ध हो जाता है ! दुसरे दिन किसी लड़की को पीला प्रसाद जरूर खिलाये और मंदिर में देवी दुर्गा को भी पीले प्रसाद का भोग लगाये !
|| प्रयोग विधि ||
जब प्रयोग करना हो तो इस मन्त्र को 21 दिन 21 माला रात्रि में हल्दी की माला से जपे आपकी शत्रु बाधा से सम्बंधित सभी समस्याए शांत हो जाएगी!
यह मेरी अनुभूत साधना है आप एक बार इस साधना को जरूर करे !
श्री बगलमुखी दिगबंध रक्षा स्तोत्र में निर्रार्तिदेव और कुबेर देव का वर्णन नहीं किया है, कृपया संशोधन करें।
ReplyDeleteJai Mata Di 🙏🙏
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